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राहुल ने हिन्दुत्वाद का सवाल उठाकर बड़ा दांव खेल दिया

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शकील अख्तर

भारत में धर्म सबसे संवेदनशील मसला है। स्टिकी पिच (अनिश्चित, असमतल, फिसलन भरी) पर खेलने की तरह। राहुल जो सबसे अलग किस्म के बैट्समेन हैं इस पर उतर आए हैं। फिलहाल स्टार्ट भी अच्छा लिया है। मगर यह पिच कब कैसा बर्ताव कर जाए किसी को नहीं मालूम। पाकिस्तान जिसकी कई मामलों में भारत के साथ समानता है। इस पिच पर खेलते हुए बुरी तरह लुढ़क चुका है। यूरोप जिसने 200 साल पहले राजनीति और धर्म में स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी प्रगति में आज सबसे आगे है।
आज बात हम विश्व गुरु की करते हैं। मगर विश्व को राह दिखाने और आधुनिक राष्ट्र राज्य की शुरूआत नेहरू ने की थी। नेहरू ने उस समय धारा के विपरीत धर्म से दूरी बनाते हुए सांइटिफिक टेम्पर (वैज्ञानिक मिज़ाज) की बात कही थी। गांधी जिनका उदाहरण राहुल ने जयपुर में हिन्दू कैसा होता है बताने के लिए दिया उनके दौर में नेहरू धर्म से दूरी बनाते हुए यूरोप की तरह राजनीति को इससे बचाना चाहते थे। वह नेहरू का अपने समय में क्रान्तिकारी सोच था। भगत सिंह ने इसीलिए नेहरू का युवाओं का आदर्श बताया था। नेहरू उस समय धारा के विपरीत तैरे थे। और आज यह काम राहुल कर रहे हैं।
इस समय जब भाजपा, संघ और प्रधानमंत्री मोदी धर्म की पिच पर खेल रहे हैं। और सारी राजनीति को हिन्दू मुसलमान में बांट रहे हैं तब राहुल ने इस खतरनाक पिच पर आकर जबर्दस्त साहस का प्रदर्शन किया। यूपी का चुनाव पूरा भाजपा धर्म के नाम पर लड़ने की तैयारी कर रही है। ऐसे में हिन्दू और हिन्दुत्वा के वैचारिक सवाल उठाकर राहुल ने एक बहुत बड़ा दांव खेला है। जयपुर में उन्होंने भारी भीड़ को अपनी बात बहुत ठीक तरीके से समझाई। लोगों की तालियां और प्रतिक्रियाएं बता रही थीं कि जनता भी कुछ इस तरह से सोच रही है। मगर उसे इन मुद्दों को विस्तार देने वाला, सही परिप्रेक्ष्य में समझाने वाला नहीं मिल रहा।
भारत की जनता अनुगामी प्रवृति की है। उसके विचारों के कुछ आसपास का हो और उसे एक सिद्धांत बनाकर पेश किया जाए तो वह उस पर भरोसा कर लेती है। धर्म भारत की जिन्दगी का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मगर भारत के लोग यह भी जानते है कि धर्म एक अलग विभाग है और राजनीति एक अलग काम। हिन्दु या मुस्लिम या सिख किसी भी धर्म के आधार पर बनी पार्टी जनता को कभी पसंद नहीं आई। हां लेकिन जिन पार्टियों ने धर्म के साथ अन्य मुद्दों को भी साथ रखा वे चल गईं। हिन्दु महासभा नहीं चली। मगर भाजपा ने समाजवादियों के साथ गठबंधन (1967) छात्र आंदोलन का समर्थन ( 1974) गांधीवादी समाजवाद (1985) जैसे मुद्दों को अपने साथ रखा तो अटल बिहारी वाजपेयी ने भाजपा के लिए प्रधानमंत्री पद का रास्ता खोल दिया। इसी तरह पंजाब में भी वही पार्टी अकाली दल चली जिसने खेती किसानी साथ में जोड़ी। बाकी सिखों की कोई पार्टी नहीं चली।
मुसलमानों की कोई पार्टी भारत में नहीं चल पाई, अभी ओवेसी की पार्टी एआईएमआईएम भी सिर्फ मुसलिम कयादत ( लीडरशीप) का सवाल उठाने तक ही सीमित रहने के कारण चुनाव से पहले ही यूपी के राजनीतिक परिदृश्य से बाहर हो गई। कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने पहले अपनी पार्टी का नाम मुस्लिम कान्फ्रेंस रखा मगर सपलता तब मिली जब नेशनल कान्फ्रेंस नाम किया। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 2002 में संघ जम्मू में विधानसभा के चुनाव लड़ चुका है। मगर हिन्दुओं ने कहीं भी नहीं जिताया। मतलब सिर्फ धर्म राजनीति का आधार नहीं हो सकता।
और इसी तरह फिलहाल आज की राजनीति के संदर्भ में कोई धर्म को पूरी तरह नजरअंदाज करके भाजपा को चुनौति भी नहीं दे सकता। राहुल इससे बच ही नहीं सकते थे। अगर उन्हें संघ और भाजपा से लड़ना था तो उनके मैदान में जाकर ललकराना बहुत जरूरी था। जनता को यह तेवर पसंद आते हैं। हम चाहे खुद वीर हों या न हों वीरता का भाव उत्साहित करता है। हमारे यहां नायकत्व में करुणा, संवेदना जैसे गुणों से ज्यादा वीर भाव देखा जाता है। राहुल ने जयपुर में उसी अंदाज में प्रधानमंत्री मोदी और संघ के हिन्दुत्वा पर प्रहार करते हुए पूरे जोश में बोला कि मैं हिन्दू हूं। आप हिन्दु हैं। गांधी हिन्दू थे। मगर ये हिन्दू नहीं हैं।
राहुल इससे बच नहीं सकते थे। बाकी सारे मुद्दे राहुल सात साल और खास तौर पर दो साल में तो जबर्दस्त तरीके से उठा रहे हैं। मगर मीडिया के प्रचार के सहारे भाजपा उन्हें प्रकाश में आने ही नहीं देती। अभी भाजपा ने कहा कि कोरोना में विपक्ष आइसोलेशन में चला गया था। और केवल सरकार दिख रही थी। यह मीडिया द्वारा दी गई हिम्मत है कि इतना बड़ा झूठ सरे आम बोल दिया जाए। कोरोना के समय युथ कांग्रेस के अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास सबसे ज्यादा सक्रिय रहे। यहां तक कि विदेशी दूतावासों, भाजपा के नेताओं, मंत्रियों ने उनसे मदद मांगी। और उन्होंने की। इसी तरह और भी कांग्रेस के कई नेता लोगों की मदद करते रहे। खुद राहुल और प्रियंका ने बहुत लोगों की जिनमें मीडिया के लोग भी यहां उन्हें गोदी मीडिया कहना अच्छा नहीं लगेगा क्योंकि उस समय वे और उनका परिवार बहुत मुसीबत में थे कि मदद की। मगर कहानी यही चल रही है कि कोरोना के समय विपक्ष कहां था। जनता कह रही थी सरकार कहां हैं। मगर मीडिया अभी तक कह रहा है कि विपक्ष कहां था।
तो कव्वाली के इस मुकाबले में आप राग भैरवी के साथ भाग नहीं ले सकते। उसी हाई पिच पर आकर वैसे ही सवाल जवाब करना होंगे। राहुल ने जैसा कहा ठीक कहा कि धर्म साहस की चीज है। डर की नहीं। ये लोग डरते हैं। किसानों की तरह कोई सामने खड़ा हो जाए तो हाथ जोड़कर माफी मांगने लगते हैं। बात सही है। अगर ठीक तरीके से पहुंचाई जाए तो लोगों में असर होगा। सावरकर से लेकर इमरजेंसी में माफी मांगने और अभी कृषि कानून वापस लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी के माफी मांगने तक हर बार डर ही था जिसकी वजह से माफी मांगी। कोई बड़प्पन या जैसा कहते हैं क्षमा वीरस्य भूषणम जैसे भाव नहीं था।
राहुल ने सही खेल शुरू कर दिया है। धर्म और धर्म के राजनीतिक उपयोग पर बात होना चाहिए। यह भारत जैसे विविधता वाले देश के भविष्य के लिये बहुत जरूरी है। पाकिस्तान का उदाहरण उपर दिया। उसके पतन का मुख्य कारण है ध्रर्म की राजनीति। दूसरी तरफ उसी से अलग होकर बना बांग्ला देश। जिसने प्रगति, उद्योग का मतलब समझा और आज कई पैमानों पर भारत से आगे निकल गया। यूरोप के विकास और वैज्ञानिक प्रगति का तो मुख्य कारण ही चर्च का राजनीति से हट जाना रहा। तो जब भारत में राजनीति का केन्द्र ही धर्म को बना लिया गया तो राहुल का धर्म और अधर्म को समझाना बहुत सही फैसला है। भाजपा को अब इसकी व्याख्या कराना पड़ेगी। अभी तक वह सिर्फ भेडिया आया, भेडिया आया करके ही ध्र्रविकरण करती रही है। मगर अब उसे नेक्स्ट स्टेज के सवाल का मुकाबला करना पड़ेगा कि भेडिया है कहां? हिन्दू को कहां खतरा है? और अगर है तो उन्हीं से जो खतरे का झूठा डर पैदा कर रहे हैं। वे अपनी राजनीति के खोखले आधारों के ढहने के डर में हैं। और डरा जनता को रहे हैं।
खेल अब अच्छा है। विचार की बात होगी। कोई जीते हारे मगर नारों और जुमलों, अखबारों की झूठी हेडलाइनों और टीवी की सड़क छाप डिबेटों से अलग हटकर कुछ सिद्दातों, आदर्शों, विचार की बात करना पड़ेगी। भाजपा जिस पिच को सबसे अनुकूल मानती थी राहुल ने उसका मिज़ाज बदल दिया है। देखना दिलचस्प होगा कि अब भाजपा हिन्दू और हिन्दुत्वा के सवालों का कैसे मुकाबला करती है।

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