मनीष सिंह
आजादी का दिन है रवीश, अब प्राइम टाइम का शो, रात के नौ बजने का मोहताज नहीं। दौर के सबसे बड़े मंच पर माईक और कैमरा, दोनो रवीश के हाथों में है।
हम दम साधे बैठे हैं, तुम्हे सुनना है।
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हां, सबसे बड़ा मंच हिंदुस्तान का दिल,
हमारा दिल।
बहुत वक्त तो नही हुआ जब दर्जनो चेहरे, इस रंगमंच पर छाये थे। सितारों का जमघट, जो छीजता गया।जैसे जैसे धुंध बढ़ी, सितारे, धूमिल होकर जुगनू हुए.. नजरों से ओझल, जाने कब आहिस्ता इस मंच से उतर भीड़ में खो गए।
कभी कभी वो दिखते हैं, रंगी पुती शक्लो और खोखली धौंस के साथ। कभी खुद की लाश ढ़ोते, यहां-वहां रेंगते भी नजर आते हैं। और जब पलट कर मंच की ओर निगाह घुमाई,
तो एक सूरज चमचमाता नजर आया- वो तुम थे, सीधे तने, उत्तुंग आकाश को आंखों मे आंखे डालकर सीधी चुनौती देता –
रवीश कुमार..!!
मन का ये मंच पूरा ही तुम्हारा है।आवाज यहां से दूर तक तक जाती है, इसलिए कि जगह बहुत ऊंची है। यहां खड़ा होने वाला रिपोर्टर, चैनलों के रूपहले परदे का मोहताज नही।
ये रिपोर्टर, प्राइम टाइम के स्लॉट से मुक्त है। टेलीविजन कही जाने वाली के बीते दौर की तकनीक से मुक्त है। सूचना हमारे हाथों में, रवीश से मिलना हमारे हाथो में है। ये जादुई दरवाजा, उंगलियों की चन्द खटखटाहट खुल जाता है।
कभी भी, कहीं भी..
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बेफिक्र रहो, जो कहना हो कहो। अब तक जो कहा तुमने , हमने माना है। टीवी देखना छोड़ दिया, रीढ़ सीधी और प्रतिरोध कायम रखा, सच की खोज को तवज्जो दी। इस सीधी रीढ़ के बावजूद, मारे मोहब्बत के तुमसे एक बात कभी कह नही पाये।
सचाई है, कि एक अरसे से रवीश भी किसी खांचे में बंध गया था।
देश को सेलेब्रिटी एंकर नही, सेलेब्रिटी रिपोर्टरों की जरूरत है। जमीन से कटे स्टूडियो में, अखबारी कतरनों और सरकारी आंकड़ों के पोस्टमार्टम से बनी स्क्रिप्ट, तंज और प्रतिरोध तो जरूर थी।
लेकिन खबर, कुछ पीछे छूट गयी थी।
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जब खबर पर पहरे हो, तो सबसे बड़े खबरची का सेलेब्रिटी एंकर के खांचे में बंध जाना, शाप था, नेशनल लॉस था।
न्यूज चैनलों के अपशकुनी स्टूडियो, एंकरों से खाली होता जाना जरूरी था। वो प्रोसेस मुकम्मल कर दी गयी है। सेठ ने रविश का खाँचा तोड़ दिया है, धीमे धीमे, अनजाने ओढ़ा शाप तोड़ दिया है। हाथ पांव खुल चुके रवीश…
तुम पर चढ़ी दीमक की बाम्बी, वो वाल्मीक टूट चुका है। जब बदन से दीमक की बांबी हट जाए, तो वाल्मीकि उठ खड़ा होता है। और फिर पता है वो क्या करता है??
फिर वो दास्तान रचता है।
सबसे बड़ी दास्तान, कालजई, हर हिंदुस्तानी को जुबानी याद हो जाने वाली, हिंदुस्तान की दास्तान!!!
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तो खबरें कहो रवीश.. नाप दो हिंदुस्तान को। दक्षिण से उत्तर, पूरब से पश्चिम, वही माइक लेकर घूमो गंदी बस्तियों में, गांव गुरबों में, चमचमाती सोसायटी तक, मजदूर से व्यापारी तक, किसान से बेरोजगार तक। सचाई दिखाओ।
सचाइयां । कागज के फूलों के नीचे छुपा दी गयी ..बजबजाती बदबू की, दानवाकारआकाशदीप के पैरों तले अंधेरे की। सचाइयां, जो रेजीम के बिछाए, सुनहरे वरक को चाक कर दे।
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अकेले नही तुम। हिंदुस्तान के कोने कोने से, जनता तुम्हारी रिपोर्टर बनेगी, मेजबान बनेगी, दर्शक बनेगी, और निस्संदेह, वही रिपोर्टर का पालनहार भी बनेगी। वो देखेगी तुम्हे, बिना किसी ब्रेक के, बिना मुकर्रर वक्त के, किसी भी स्रोत से, खोजकर पढ़ेगी, वाइरल करेगी।
क्योकि इस देश को ..रवीश की जुबान से खबरे सुननी हैं।
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कभी भी कहा था तुमने कि पढ़ देंगे, जहां होंगे वहीं से। सड़क पर, बाथरूम से, चौराहे पर। तो लो, हम आ गए है, सड़कों पर, नुक्कड़ों चौक चौराहे पर।
दौर के सबसे बड़े मंच पर माईक और कैमरा, दोनो रवीश के हाथों में है। हम दम साधे बैठे हैं, तुम्हे सुनना है। डर का आखरी किला, जो रवीश जमींदोज कर आया है, उसका एहतराम …
आओ। दास्तान कहो,
हम सुनेंगे!!