अग्नि आलोक
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रवीशकुमार…..बे अक़ल आदमी

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जावेद सिद्धिकी 

यार ऐसी भी क्या खुद्दारी ! ….. और ऐसा भी क्या ज़मीर कि बिकने का नाम ही न ले ! बेवक़ूफ़ आदमी ………!

अरे भैया , सारी सच्चाई का ठेका तुमने ही ले रखा है क्या ? ये क्या बात हुई कि आदमी अपने ज़मीर को इतना महंगा बना ले कि कोई ख़रीद ही न सके !  ऐसे वक़्त में जब आटा महँगा बिकता हो और ज़मीर सस्ता , तुम अपना ज़मीर लिए बैठो हो ?

ये कौन सी अक़्लमंदी है भाई , दूसरों को देखकर भी सबक़ नहीं लेते ? मीडिया में कोई एक नाम बताओ जो सिक्कों की खनक के सामने ज़मीर की आवाज़ सुन रहा हो ? यहाँ किसका ज़मीर है जो बिकाऊ नहीं है ? तुम क्या आसमान से उतरे हो ? यार सीधा सा गणित तुम्हें समझ क्यों नहीं आया ? जो आदमी चैनल ख़रीदने के लिए 400 करोड़ खर्च कर सकता हो , वो क्या 100 -200 करोड़ तुम्हें ख़ामोश रहने के न दे देता ? सोच कर देखो ! 100 करोड़ ! कभी देखा भी है ? इतना होता है कि सात पुश्तें बिना हाथ पैर हिलाये भी बैठ कर खातीं ! सारा झंझट ही ख़त्म हो जाता ! बेचारा सेठ ! भले आदमी के कितने पैसे खर्च करवा दिए तुमने ! बेचारे को पहले उस कंपनी को ख़रीदना पड़ा जिसका लोन NDTV पर था , फिर लोन का दबाव बनाकर मालिकों की हिस्सेदारी ख़रीदी , इसके अलावा , पूरा क़ब्ज़ा लेने के लिए बेचार को अभी और भी हिस्सेदारी खरीदनी पड़ेगी ! यानि कुल मिलाकर उन 400 करोड़ समेत बेचारे सेठ को अभी और हज़ार बारह सौ करोड़ खर्च करना पड़ेगा ! किसकी वजह से ? तुम्हारी वजह से !

तुम भी अगर दूसरों की तरह चुपचाप बिना शोर मचाये अपने ज़मीर का सौदा कर लेते तो तुम्हारा क्या जाता ? मगर नहीं जी , लोगों को सच बताएँगे और मुसीबत मोल लेंगे !  बताओ फिर सच और भुगतो ! अभी तो तुम्हारे ज़मीर ने तुमसे इस्तीफ़ा ही दिलवाया है ,  इस ईमानदारी की तुम्हें क्या क्या क़ीमत चुकानी पड़ेगी , ये ऊपर वाला ही जानता है। तुम्हारे ही शब्दों में ” ईमानदारी बहुत महंगा शौक़ है “

अगर तुम मान जाते तो  दौलत के अलावा सरकार से ईनाम ओ इकराम, सुरक्षा के लिए SPG की पूरी बटालियन  और राज्य सभा की सीट मिलती अलग से ! मगर नहीं जी ! अड़े हुए हैं कि न तो ज़मीर बेचूंगा और न ख़ामोश रहूँगा।

वैसे, पूछ सकता हूँ कि किसके लिए कर रहे हो ये सब ? देश के लिए ? देश की अवाम के लिए ? तो सुनो – इस देश में अब गांधी नहीं गोडसे पूजे जाते हैं , इसलिए गांधी बनने से पहले देश की अवाम से भी एक बार पूछ लेना कि उसे गांधी चाहिए या गोडसे।

बस मुझे इतना ही कहना था , आगे तुम्हारी मर्ज़ी।

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