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यथार्थ~मंथन : इक्कीसवीं सदी के अँधेरे में!

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 पुष्पा गुप्ता

       _भव्य मुखारविन्दों से अक्सर टुच्ची बातें चू जाती हैं ! प्रकाशमान आभामण्डलों के पीछे अक्सर एक अन्धकार का वलय दीखने लगता है. उपदेशों के पीछे से निजी कमजोरियाँ, निराशा, पराजय-बोध और स्वार्थपरता झाँकने लगती हैं!_

      अनुभववाद का बाजा बहुत तेज़ बजता है !  विद्वत्ता एक खोखले झुनझुने का नाम है जो बहुत हिलाने पर भी नहीं बजता!  दर्शन और सिद्धांत अब पढ़ने की चीज़ें नहीं रहीं ! उनसे दाल बघारी जाती है जिसे पीकर डकारने के बाद प्रतिभाशाली लोग शान्ति से क्रान्ति कर देने की लाइन निकालते हैं, या, कालजयी साहित्य  लिखते हैं !

   कविता में क्रान्ति करने की एक उम्र होती है ! फिर सारा अर्जित कलात्मक कौशल यह बताने में खर्च होता है कि ‘अब चीज़ें वैसी नहीं रहीं’ और ‘क्रान्ति से कुछ कम पर संतोष करना सीखना होगा’, और, ‘एक मानवीय यूटोपिया का बस पीछा करते जाना ही मनुष्यता की त्रासद नियति है’ I

      जो सबसे अधिक कहते हैं कि ‘चीज़ें अब वैसी नहीं रहीं’, वे न तो यह जानते हैं कि चीज़ें पहले कैसी थीं, न ही यह जानते हैं कि अब चीज़ों में क्या बदलाव आ गया है ! वे उनके मददगार होते हैं जो चीज़ें बदल जाने का तर्क देकर चीज़ों को बदलने का बुनियादी तरीका ही बदल देने के दावे करते हैं और इसी बहाने इस व्यवस्था में व्यवस्थित हो जाते हैं !

     बहुतेरे प्रगतिकामी, क्रांतिकारी लेखकों का जीवन भर का अर्जित अनुभव बुढापे में चैन, सुविधा, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा से जी लेने की राह निकालने के काम आता है I वे हृदय से शान्ति के पुजारी बन निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं !

 जो तर्क नहीं कर सकता, वह निर्णय सुनाता है और लेबल लगाता है ! जो कहते थे कि उनके पास एक चादर भी नहीं, उनके घर से वह कम्बल बरामद होता है, जिसे ओढ़कर घी पिया जाता है !

     वामपंथ एक जेनेरिक टर्म बना दिया गया है जिसमें सामाजिक जनवाद, संशोधनवाद आदि को भी शामिल कर लिया गया है और इन सबको एक हो जाने की नसीहत राह चलता कोई अलटू-पलटू भी दे देता है !

        फासिज्म को अब चुनावी जंग से पीछे धकेल दिया जाएगा I उसे ज़मीनी संघर्ष के द्वारा पीछे धकेलने, ज़मीनी संघर्ष में संयुक्त मोर्चा बनाने, मज़दूर वर्ग के लड़ाकू दस्ते संगठित करने जैसी बातें अब पुरानी पड़ चुकी हैं ! अब चुनावी मोर्चा ही फासिज्म-विरोधी मोर्चे का पर्याय है !

      चलो, कहीं से खुशी के कुछ कतरे नसीब हो जाएँ, वाशिंगटन हो या पटना ! अब जिसे देखो, वही अब्दुल्ला दीवाना है ! कौन अब्दुल्ला ? वही जो बेगानी शादी में दीवाना हुआ करता है !

ज़माना ऐसा आ गया है कि जो कल तक व्यंग्य हुआ करता था, वह आज यथार्थ हो गया है, जो हास्य रस था वह करुण रस हो गया है और अगर कुछ जादुई यथार्थवाद की शैली में लिखने की कोशिश करो तो वह यथातथ्य आख्यानात्मक शैली में लिखा गया विवरण प्रतीत होने लगता है !     

       क्षुद्रताओं के “महाख्यानों”, आदर्शों और उसूलों के प्रहसनों और विदूषकों के नायकत्व के युग में ऐसा ही होता है !

जिसे दिखता ही नहीं वह राह दिखाता है।  तोतल और हकले कव्वाली सुनाते हैं।  स्टेडियम में बैठे दर्शक खिलाड़ियों को खेल की बारीकियाँ समझाते हैं ।

       विद्वान लोग सारी आपदाओं और फ़ासिज़्म के लिए जनता की मूढ़ता, जड़ता, पिछड़ेपन को दोषी ठहराते हैं और अपने लिए नयी जनता चुनना चाहते हैं।

      समाजवाद धीरे-धीरे संसद मार्ग से होता हुआ राजपथ की ओर बढ़ता है. जिसने न आज की दुनिया के बदलावों का अध्ययन किया है, न ही बुनियादी मार्क्सवादी क्लासिक्स पढ़े हैं, वह आज के बदले हालात के हिसाब से मार्क्सवाद में संशोधन की ज़रूरत समझाता है और कुछ संशोधन करने बैठ भी जाते हैं।

 जिसे पजामे का नाड़ा भी बाँधने नहीं आता, वह समाजवाद की विफलता के बारे में अपनी एक थीसिस दे देता है।

     आन्दोलन के पुराने भगोड़े, लम्पट, मूर्ख सरकारी मुलाजिम, सोशल डेमोक्रेट मार्क्सवाद और दर्शन की आनलाइन पाठशाला लगाते हैं।

       मार्क्स का यह कथन पुराना पड़ चुका है कि ‘अज्ञान एक राक्षसी शक्ति है जो भविष्य में कई महाविपदाओं का कारण बनेगी ।’ इक्कीसवीं सदी में अज्ञान से कृपा बरसती है।

चतुर्दिक आततायी का ‘खल-खल’ अट्टहास गूँज रहा है । उसकी प्रतिध्वनियाँ ईश्वर और न्याय और जनमत और ज्ञान-विवेक के प्रांगणों में कोलाहल रच रही हैं।

      ईश्वर स्वर्ग में सो रहा है, ज्ञानीजन अपने अध्ययन कक्षों में ! मनुष्यता कहीं तमस-विवर में छुप गयी है। 

      कुछ पुराने योद्धाओं को वातरोग हो गया है या स्मृति लोप ! कुछ  प्रव्रज्या लेकर गुहावासी हो गये हैं और कुछ सिद्धपीठों पर बैठ जगत-जंजालों से छुटकारा पाकर कला और कविता के अमूर्तन में निर्वाण-प्राप्ति के मार्ग बता रहे हैं।

         कुछ धीरे-धीरे दुनिया बदलने के नये नुस्खे बता रहे हैं और किसी पुराने क्रांतिकारी गीत को हारमोनियम पर किसी निर्गुण भजन की धुन पर गा रहे हैं। 

     अज्ञान एक बार फिर साबित कर रहा है कि वह एक राक्षसी शक्ति है । इतिहास के शाप शहरों-गाँवों पर तेज़ाब की तरह बरस रहे हैं।

     सभ्यता के हाशिए पर धकेल दिये गये लोगों की अँधेरी-धुँआरी बस्तियों में कुछ रहस्यमय पल रहा है जिसके बारे में निराश मानवतावादी विद्वज्जनों को अगर कोई कुछ बताये भी तो वे सुनते नहीं और अगर सुनते भी हैं तो विश्वास नहीं करते।

       वे अपने सुरक्षित-शान्त-सुविधाजनक अँधेरे में बैठे हुए कभी निराशा में हाथ मलते हैं कभी उम्मीदों और प्रतिरोध की बातों को अविश्वास और उपहास के साथ सुनते हैं और फिर अगले दिन दुनिया के तमाम सताये गये दबे-कुचले लोगों को दी जाने वाली नयी नसीहत और नये सुझावों की नयी कलात्मक भाषा के बारे में सोचते हुए सोने चले जाते हैं।

     दीवानगी और जुनून की हदों से न गुज़र जाये तो फिर प्यार कैसा ? फिर चाहे वह प्यार किसी इंसान से हो, किसी कला से, किसी खेल से, किसी सपने से, या किसी उदात्त लक्ष्य से। 

        यह पागलों का काम है। “व्यावहारिक” लोगों, “भले” नागरिकों, असुरक्षा और अपयश से डरने वाले भद्र जनों, जीत की गारंटी होने पर ही रणघोष करने वाले “चतुर-सुजानों” और सुखी-संतुष्ट मसखरों को इस जोखिम भरे काम से दूर ही रहना चाहिए । उनका काम तो वैसे भी प्यार और प्रगतिशीलता और मनुष्यता के लिए चिरंतन चिंता का ड्रामा करना होता है जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा पारंगत होने में ही उनकी उम्र तमाम हो जाती है।

      मैं बहुत सारे ऐसे प्रबुद्ध नागरिकों, लेखकों-कलाकारों को क़रीब से जानती हूँ, जो हमेशा इतना ड्रामा करते हैं कि उनकी ज़िन्दगी एक ड्रामा बन चुकी होती है । प्यार, मौलिकता, महानता, सरलता, यहाँतक कि सपने देखने और चिन्तन करने का भी वे ड्रामा करते हैं । बरस-दर-बरस ड्रामा में ही जीते हुए वे जीवन को ही ड्रामा और ड्रामा को ही जीवन समझने लगते हैं । वे हमेशा ‘हैलुसिनेशन’ की मानसिक अवस्था में रहते हैं । ‘नार्सीसस ग्रंथि’ से पीड़ित वे घंटों अपनी किताबों को पलटते रहते हैं, समारोहों की पुरानी तस्वीरें देखते रहते हैं, स्मृति-चिह्नों, ताम्रपत्रों आदि को निहारते रहते हैं । सहसा वे ऐसी ही किसी पुरानी चीज़ को तलाशते हुए उठते हैं और पुरानी लोहे की आलमारी का दरवाज़ा खोलते हैं।

      एकदम अप्रत्याशित, आलमारी से उनकी तुच्छताओं, क्षुद्रताओं, नीचताओं, चालाकियों,  कायरता और कूपमंडूकता के कई कंकाल भड़भड़ाकर फर्श पर गिर पड़ते हैं और इधर-उधर लुढ़कने लगते हैं।

     घबराकर चीखते हुए वे बाहर की ओर भागते हैं । उनकी चीख सुनकर भी पत्नी हिलती-डुलती नहीं, बेडरूम में पलंग पर जड़वत बैठी रहती है। बड़ा हो चुका बेटा जो आई टी सेक्टर में नौकरी करता है, उनके पीछे भागता है और पकड़ कर वापस लाकर एक आरामकुर्सी पर बैठाने के बाद नफ़ीस किस्म की वोदका का एक तगड़ा पेग बनाकर उनके हाथ में पकड़ा देता है।

      धीरे-धीरे ज़िन्दगी की ठोस भयावहता से वे अपने ड्रामा में वापस दाख़िल हो जाते हैं । कुछ देर बाद अँधेरे में उनके खर्राटे गूँजने लगते हैं।

      सोच तो रही थी माराडोना के बारे में, लेकिन आवारगी से बाज़ न आने वाले ख़यालात मटरगश्ती करते हुए बहककर किसी और ही दिशा में निकल गये!

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