शशिकांत गुप्ते
बाजारवाद के बढ़ते प्रचलन के कारण विज्ञापनों का व्यापार बहुत फलफूल रहा है।
हरएक उत्पादक उद्योग ग्राहकों को लुभाने नित नई स्कीम की घोषणा कर रहें है। एक ख़रीदने पर एक फ्री। तीन पर दो मुफ्त।
सामान्यज्ञान का उपयोग किया जाए तो समझ में आता है कि तेल तिल्ली में से ही निकलेगा।
ग्राहकों को यह समझना चाहिए कि वे सिर्फ ग्राहक Customer नहीं है, उपभोक्त Consumer भी है।
एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है।
सस्ता रोएं बार बार महंगा रोएं एक बार
इस कहावत में एक बहुत गूढ़ रहस्त छिपा है, महंगी वस्तु को महत्व दिया है। इस मुद्दे पर एक सामान्यज्ञान का प्रश्न उपस्थित होता है,क्या हरएक महंगी वस्तु की गुणवत्ता उत्तम होती है?
कोई वस्तु गुणवत्ता में परिपूर्ण हो तो वह महंगी हो सकती है, लेकिन हरएक महंगी वस्तु गुणवत्ता में उत्तम हो जरूरी नहीं है।
उपर्युक्त समीकरण को हम व्यापार के अतिरिक्त सामाजिक,धार्मिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी लागू कर सकतें हैं।
सामाजिक क्षेत्र में किसी धनकुबेर का वर्चस्व हो सकता है। लेकिन धनकुबेर समझदार हो या वो अहंकारमुक्त हो जरूरी नहीं।
कोई साधारण व्यक्ति भी सामाजिक क्षेत्र में सर्वमान्य हो सकता है।
इनदिनों धार्मिक क्षेत्र पर कोई टिका टिप्पणी करना मतलब काटने वाली मधुमख्खियों के छत्ते पर कंकर मारने वाला अपराध हो सकता है। अनुभवी लोगों ने कहा है जिस गांव जाना ही नहीं उसका रास्ता भी नहीं पूछना चाहिए।
सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत,नृत्य आदि को छोड़ अभिनय के क्षेत्र पर नज़र दौड़ाई जाए तो अभिनय करने वाला व्यक्ति स्त्री हो या पुरूष उसका व्यक्तिगत चरित्र उजला ही होगा जरूरी नहीं है।और ऐसा भी नहीं हो सकता की उजले चरित्र का व्यक्ति अभिनय नहीं कर सकता है?
राजनीति में तो अब की बार अब की बार के प्रलोभन में महंगाई फलक की ऊँचाई चूमने के लिए लपक रही है। महंगाई का फलक को चूमने के लिए इतनी लालायित होने की अनवरत आतुरता पहली बार दिखाई दे रही है।
स्वतंत्रता संग्राम की असंख्य कुर्बानियों को नजरअंदाज करते हुए,यह प्रचार प्रसारित किया गया कि, निरंतर सत्तर वर्षो में देश में कुछ हुआ ही नहीं। लेखक स्वयं इकहत्तर सावन देख चुका है।
जो कुछ नहीं हुआ उसी माहौल में पढ़ना, लिखना, नोकरी बैंक के राष्ट्रीयकरण के कारण ऋण उपलब्ध होने से साधारण व्यक्ति भी स्वयं का गृह निर्मित कर पाया या खरीद पाया।
बहरहाल मुद्दा है, गुणवत्ता का?,
बाजारवाद के प्रचलन में विज्ञापनों में हम बहुत विकास कर रहें हैं। वास्तव में कागजी घोड़े दौड़ने की बनावटी आवाज सुनाई दे रही है।
इसीलिए यह समझना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है कि, गुणवत्ता से परिपूर्ण वस्तु महंगी हो सकती है। लेकिन महंगी वस्तु में गुणवत्ता हो जरूरी नहीं।
वर्तमान में बाजार में Offer मतलब प्रस्ताव का प्रचलन जोरों पर है। ऑन लाइन सब मिल जाता है। मतलब घर बैठ।
कल्पना लोक उड़ान भरने वाले तो कहतें हैं चांद खिला वो तारे हंसे।
कल्पना लोक की उड़ान में चांद खिलता है,तारे हँसतें हैं।
आगे की पंक्ति सारगर्भित है।
समझने वाले समझ गएं
जो ना समझे वो अनाड़ी है
शशिकांत गुप्ते इंदौर