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विज्ञान और आनंद की सापेक्षता का सूत्र 

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डॉ. विकास मानव

1आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः।
यह सनतकुमारजी का नारद को उपदेश है(छा०उ०/७/२६/२) इसी को श्रीकृष्ण ने युक्ताsहार विहारस्य कहा है।
2- आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो, मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्।। (बृ०उ०/२/४/५)
ब्रह्मज्ञान के आख्यान को यहाँ श्रुति ने याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी को प्रतीकरूप से उपदेश करने के लिए पात्र बनाया है।
आत्मा से प्रेम होने पर अन्य प्रेम गौण हो जाता है, जिसमे पहला सूत्र तो आहार की शुद्धि और दूसरा सूत्र,,श्रोतव्यो,,श्रुत परंपरा मे जब लिखने पढ़ने का आविष्कार नही हुआ था तब इन सूत्रों को आचार्य के पास रहकर सुना जाता था इसलिए इसे श्रुति कहते हैं।
अब आचार्य का प्रेम धन मे हो गया और वर्णाश्रम परंपरा भी विलुप्त हो गयी इसलिए श्रुत को वाचन कहना उचित है, लेकिन केवल वाचन या श्रवण जैसी भी सुविधा ही पर्याप्त नही है।
वैसे हमारे अनुभव मे वाचन की अपेक्षा श्रवण ज्यादा श्रेष्ठ है, क्योंकि श्रवण मे आचार्य अपने अनुभव को भी साझा करता है जो पुस्तकों मे नही लिखा होता।
मुण्डक श्रुति ने तो स्पष्ट कहा है कि नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन. यहाँ प्रवचन का अर्थ प्र=विशिष्टार्थे और वचन=वाचन अर्थात् केवल पुस्तक पढ़ने वा मेधाशक्ति से या सुनने से विदित नही है और नायमात्मा बलहिनेन लभ्यो अर्थात् जीर्ण को भी विदित नही है।
तो किसको विदित है कि जो,,एतैरुपायैर्यतते,,यानी जो यत्नपूर्वक उपाय करता है उसको लभ्य है। तो उपाय क्या है कि पहले आहार की शुद्धि तत्पश्चात् श्रवण/पाठन (जैसी सुविधा हो) उसके बाद मन्तव्यो,,जो सुना या पढ़ा उसका मनन् करना।
मनन् करने का अभिप्राय स्वयं से तर्क/वितर्क (कुतर्क नही) करना, निरंतर यजन करने से विदित है।
तो तर्क क्या है कि अविज्ञाततत्त्वेsर्थे कारणोपपत्तितस्तत्वज्ञानार्थमृहस्तर्कः (न्यायसूत्र/१/१/४०) अर्थात् अभी तक जो तत्त्व अविज्ञात है उसका मर्म समझने, उसका कारण और उत्त्पत्ति और उसके ज्ञान के लिए स्वयं से और अन्य जाननेवालों से विनयपूर्वक प्रश्न करना सुसङ्गत तर्क है।.
जब श्रवण और मनन् हो जाय तब उसके अनुसार स्वाध्याय अर्थात् निरंतर यजन करने/स्त्री पुत्रादिको/धन से विराग पैदा हो ऐसा कर्म करने यानी प्रकृति से पृथक रहने, योग करने से निदिध्यासन पूर्ण होता है। तब कुछ-कुछ संकेत मिलना प्रारंभ होता है।
3-किसी ने सुषुप्तिकाल मे विज्ञान और आनंद एक साथ होने का जो उदाहरण दिया है वह सुसंगत नही है।
खर्टाटे भर रहे मनुष्य को जलती हुई सिगरेट टच कराकर देख लिजिए उसका आनंद और विज्ञान दोनो गायब हो जाएगा।
यह एक यजन है। किसी ने ईशावास्योपनिषद् मञ्त्र १७ का उदाहरण दिया है वह भी आंशिकरुप से प्रासाङ्गिक है, क्योंकि शरीर का विघटन ही करना है तो आनंद कैसा? श्रीकृष्ण ने भी गीता अ०/१७/५-६/ मे इसे तत्त्ववेत्ता का जिज्ञासु न मानते हुए आसुर स्वभाववाला कहा है और छा०/७/२६/२/ मे जो सत्वशुद्धि ध्रुवा स्मृत वाक्य है वह सत्य को शुद्ध करके २४ कैरेट बनाने का है उसका अनुपालन नही होने से स्मृति अटल नही होगी वह गायब हो जाएगी।
इसलिए चलते, फिरते, सोते, जागते इस पथ के पथिक को हमेशा जाग्रत रहना होता है, तभी विज्ञान और अटल आनंद की स्थिति बन सकती है, सुषुप्ति मे बेहोशी होती है।
बेहोश व्यक्ति को आनंद का अनुभव नही हो सकता, वह एक उदाहरण मात्र है।
4-योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि के अनुसार :
Yoga generates certain supra-normal powers. But they should be avoided and attention should be fixed on liberation which is the end of human life.
The ideal is Kaivalya, the absolute independence and eternal and free life of the purusa, Free from Prakrti(Nature)
पुनः याज्ञयवल्क्य कहता है :
अरी मैत्रेयी! आत्मा का दर्शन, श्रवन, मनन और ज्ञान होने पर निश्चय ही इसी शरीर मे हो जाता है तब वह विज्ञानानन्द ब्रह्म कहा जाता है यानी End of natural life.
[लेखक मनोचिकित्सक, ध्यानप्रशिक्षक, एवं चेतना विकास मिशन के निदेशक हैं.]

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