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आम आदमी के लिए विश्व आर्थिक मंच की प्रासंगिकता सवालों के घेरे में

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इस वर्ष पांच दिन तक चले विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम) के सम्मेलन में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई, उनका सामान्य जन से कोई खास सरोकार दिखाई नहीं देता। मसलन, एक सत्र में इस बात पर चर्चा हुई कि दुनिया में व्यापार और निवेश कथित रूप से कुशल साझेदारी के बजाय मित्रता के आधार पर हो रहा है। रूस-यूक्रेन संघर्ष, इस्राइल-हमास युद्ध आदि स्थितियों के कारण उनके निवेश प्रभावित हो रहे हैं, इसलिए उनमें चिंता व्याप्त है।

विगत 15 से 19 जनवरी के बीच विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम) का सम्मेलन दावोस (स्विट्जरलैंड) में संपन्न हुआ, जिसमें आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और प्रौद्योगिकी क्षेत्र की बड़ी हस्तियों ने हिस्सा लिया। 60 देशों के शासनाध्यक्षों के अलावा कई बड़ी संस्थाओं के प्रतिनिधि, राजनेता, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुख और आर्थिक जगत के अनेकानेक प्रमुख इस सम्मेलन में दिखे। वर्ष 1971 में अस्तित्व में आए इस मंच पर पिछले लगभग 53 साल से व्यापार, भू-राजनीति, सुरक्षा, सहकार, ऊर्जा से लेकर पर्यावरण और प्रकृति समेत अनेक मुद्दों पर चर्चा होती रही है, लेकिन उसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपना एजेंडा होता है।

इस वर्ष पांच दिन तक चले इस सम्मेलन में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई, उनका सामान्य जन से कोई खास सरोकार दिखाई नहीं देता। मसलन, एक सत्र में इस बात पर चर्चा हुई कि दुनिया में व्यापार और निवेश कथित रूप से कुशल साझेदारी के बजाय मित्रता के आधार पर हो रहा है। रूस-यूक्रेन संघर्ष, इस्राइल-हमास युद्ध आदि स्थितियों के कारण उनके निवेश प्रभावित हो रहे हैं, इसलिए उनमें चिंता व्याप्त है। इस मंच पर जिन 60 शासनाध्यक्षों ने भाग लिया, वे सभी वैश्विक भू-राजनीति में उथल-पुथल से चिंतित दिखे। बेशक उनकी चिंता वाजिब है, लेकिन आर्थिकी की चर्चा करते समय उनका ध्यान मुल्कों के बीच असमानताओं और दुनिया में गरीबी, निरक्षरता और बेरोजगारी की तरफ नहीं था। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर बात तो हुई, लेकिन समाधान के लिए वैश्विक नेताओं में कोई विशेष इच्छाशक्ति दिखाई नहीं दी।

पिछले कई पर्यावरण सम्मेलनों से यह स्पष्ट हो रहा है कि आज पर्यावरण पर चर्चा से ज्यादा समाधान की जरूरत है। कई वर्ष पहले विकसित देशों ने वादा किया था कि वे पर्यावरण समस्या से निपटने के लिए हर वर्ष 100 अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता देंगे। लेकिन वह सहायता दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ रही। उसी तरह से बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी अपने पास उपलब्ध प्रौद्योगिकी बिना भारी शुल्क लिए साझा करने को तैयार नहीं हैं। जो लोग दावोस बैठक में हिस्सा लेने आए, उन्होंने बिगड़ते पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से तबाही की आशंकाओं पर चर्चा तो की, लेकिन विडंबना देखिए कि उनमें से अधिकांश अपने-अपने निजी विमान से आए। जाहिर है, उससे जितनी कार्बन का उत्सर्जन हुआ, उससे वे उदासीन थे।

एक हजार बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा पोषित यह मंच अपने सम्मेलनों में हिस्सा लेने वालों से फीस के रूप में मोटी रकम वसूलता है, जिसका मतलब है कि इसे सर्वसमावेशी मंच नहीं कहा जा सकता है। इसे दुनिया की उन विशालकाय कंपनियों का ही मंच कहा जा सकता है, जिनके पैसे से इसका काम चलता है। यदि वास्तव में वे दुनिया के समक्ष मौजूद समस्याओं के प्रति संवेदनशील होते, तो इसमें भाग लेने के लिए भारी-भरकम शुल्क की अनिवार्यता नहीं होती, बल्कि हाशिये पर खड़े समुदायों, पिछड़े समाजों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सामान्य लोगों को भी इसमें हिस्सेदारी के लिए आमंत्रित किया जाता। शासनाध्यक्षों, सरकारों में बड़े मंत्रियों और बड़ी कंपनियों के चहेते चुनिंदा बुद्धिजीवियों की उपस्थिति इन कंपनियों के एजेंडे को वैधता प्रदान करती है। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां मानवता और विश्व कल्याण की चाहे कितनी भी बातें करें, इनका असली चेहरा इस सदी की सबसे बड़ी महामारी के दौरान देखने को मिला, जब फाइजर कंपनी ने अप्रभावी वैक्सीन जान बूझकर दुनिया भर में बेची। कंपनी को भली-भांति मालूम था कि उनकी वैक्सीन प्रभावी नहीं है, उसके बावजूद वह अमेरिकी सरकार के जरिये भारत पर भी दबाव बना रही थी। पिछले वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम (2023) में जब पत्रकारों द्वारा फाइजर कंपनी के प्रमुख से इस बाबत पूछा गया, तो वह कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं हुए।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ‘गैट’ समझौतों में अधिकांश समझौते बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में हुए। ट्रिप्स समझौते में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में न केवल दवाओं और चिकित्सकीय उपकरणों समेत सभी प्रकार के उत्पादों पर पेटेंट की अवधि बढ़ाई गई, बल्कि प्रक्रिया पेटेंट से उत्पाद पेटेंट की व्यवस्था भी लागू की गई, जिससे दुनिया के देशों में स्वास्थ्य सुरक्षा बाधित हुई। जब भारत की कैडिला कंपनी से दक्षिण अफ्रीका द्वारा दवाई खरीदने का उन कंपनियों ने विरोध किया, तो उन्हें जनता के रोष का सामना करना पड़ा। फिर डब्ल्यूटीओ ने कहा कि महामारी और आपातकालीन परिस्थितियों में पेटेंट अप्रभावी रहेंगे। लेकिन दुनिया ने देखा कि महामारी के बावजूद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने पेटेंट अधिकारों को नहीं छोड़ा। यही नहीं, जब भारत और दक्षिण अफ्रीका के नेतृत्व में 100 से अधिक देशों ने ट्रिप्स काउंसिल के सामने ट्रिप्स से छूट का प्रस्ताव रखा, तो अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में सभी विकसित देशों ने इसका विरोध किया। तमाम प्रयासों के बावजूद सिर्फ कोरोना वैक्सीन पर ही उन्होंने पेटेंट के अधिकार को छोड़ने का प्रस्ताव माना, लेकिन उसमें भी इतनी शर्तें जोड़ दी गईं, कि वह छूट लगभग निष्प्रभावी हो गई।

समझना होगा कि वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही एक मंच है, जिससे कुछ खास अपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे मंचों से विश्व को सावधान रहने की जरूरत है, क्योंकि उनका वास्तविक एजेंडा पारदर्शी नहीं है। ऐसे मंचों पर जब आर्थिकी, व्यापार, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और यहां तक कि असमानताओं की चर्चा होती है, तो समझ लेना चाहिए कि इन चर्चाओं के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने हित में वैश्विक एजेंडा चला रही हैं।

विगत 19 जनवरी को अमेरिकी प्रतिनिधि स्कॉट पेरी (पीए-10) ने पांच अन्य लोगों के साथ मिलकर ‘डिफंड दावोस ऐक्ट’ पेश करते हुए कहा, ‘अमेरिकी करदाताओं को द्वीपीय, वैश्विक अभिजात्य वर्ग की वार्षिक स्की रिसॉर्ट यात्राओं के लिए धन देने को मजबूर करना बेतुका है-निंदनीय तो छोड़ ही दें… विश्व आर्थिक मंच अमेरिकी फंडिंग के एक प्रतिशत के लायक भी नहीं है, और यह सही समय है, जब हम दावोस को निधि से वंचित कर रहे हैं।’ साफ है कि अमेरिकी कांग्रेस भी अभिजात्य वर्ग का बताकर इसका विरोध कर रही है। आम आदमी के लिए अब इसकी प्रासंगिकता सवालों के घेरे में है।

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