शशिकांत गुप्ते
धर्म आचरण की सभ्यता सीखने वाला एक मोर्चा है।
सभ्य आचरण,एक मानवीय गुण है। किसी व्यक्ति में मानवीय गुण विद्यमान होना ही मानवीयता कहलाती है।
जिस व्यक्ति में मानवीयता होती है,वह कबीर साहब के इस दोहे के भावार्थ को आत्मसात करता है।
‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना, निरमल होत सुभाय
इसी बात को संत तुकारामजी ने मराठी भाषा में लिखी निम्न पंक्ति में समझाया है।
निंदका चे घर असावे शेजारी
अर्थात निंदक का घर अपने पड़ोस में ही होना चाहिए।
उक्त विचारों का आचरण करने वाले की सोच बहुत व्यापक होती है। जिस व्यक्ति की सोच व्यापक होगी उसका आचरण निश्चित सभ्य ही होगा।
ऐसा व्यक्ति कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति से द्वेष नहीं करेगा।
ऐसे व्यक्ति के जेहन से हमेशा यही उदगार प्रकट होंगे
मज़हब नहीं सीखाता आपस में बेर रखना
जिस किसी व्यक्ति के आचरण सभ्य होंगे, वह ओलचना करने वाले पर कदापि हिंसक नहीं होगा। ना ही विरोधी की इहलिला समाप्त करने के लिए किसी पारितोषिक की घोषणा ही करेगा।
अहम सवाल है,क्या कोई भी धर्मावलंबी व्यक्ति किसी भी प्राणी की हत्या जैसे निर्मम कृत्य को जायज ठहरा सकता है? क्या हत्या जैसे क्रूर कृत्य के लिए किसी को उकसा सकता है?
उक्त आचरण हैवानियत ही कहलाएगा।
भूदान प्रणेता,गांधीजी के अनुयायी आचार्य विनोबा का एक उपदेशक स्मरण प्रासंगिक है।
संत विनोबा भावे ने अपनी ऐतिहासिक व आध्यात्मिक कश्मीर यात्रा के दौरान अनेक प्रश्नों व भ्रांतियों का निराकरण सहज में ही कर दिया। जब वे वेदों और उपनिषदों के मंत्र, गीता के श्लोक धारा प्रवाह बोलते तो, लोग उनसे पूछते की क्या आप हिन्दू हैं, क्योंकि नाम व पहनावे से तो नहीं लगते। जब कुरान शरीफ़ की आयतें बोलते व उनका तरजुमा करते तो लोग पूछते, क्या आप मुसलमान हैं? पर नाम से तो नहीं लगते। और फिर जब वे बाइबिल के सरमन बोलते, तो लोगों का सवाल होता कि क्या आप क्रिश्चियन हैं? भाषा और खानपान से तो नहीं लगते। जब भी अपनी मस्ती में गुरबाणी का पाठ करते तो लोग ऐसा ही सवाल करते। पर हर बार विनोबा का एक ही तरह का जवाब होता, हां मैं हिन्दू भी हूं। मुसलमान भी हूं, ईसाई भी और सिख भी हूं।
संस्मरण पूर्णतया मानवीयता को परिलक्षित करता है।
यही स्मरण सभ्य आचरण की पुष्टि करता है।
अंत में प्रख्यात गीतकार,कवि गोपालदास नीरज का निम्न शेर एकदम प्रासंगिक है।
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाएं
जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए
इन दिनों चल रहे मजहब पर अनावश्यक विवाद पर प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी का यह शेर मौजू है।
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
शशिकांत गुप्ते इंदौर