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आंबेडकर का नाम बार-बार लेना राजनीतिक संस्कृति के लोकतांत्रिकरण का प्रमाण

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शिवेश्वर कुंडू

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का राज्यसभा में हालिया संबोधन, जिसमें उन्होंने कहा कि डॉ. बी.आर. आंबेडकर के नाम पर राजनीति फैशनेबुल बन गई है, ने पूरे देश में हंगामा बरपा दिया है। शाह ने अपने विवादास्पद संबोधन में कहा कि आंबेडकर का नाम दोहराना एक फैशन बन गया है और अगर उन्होंने (विपक्ष) भगवान का नाम इतनी बार लिया होता तो उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो गई होती।

इस वक्तव्य से दो बातें साफ़ हैं। पहली यह कि गृहमंत्री और उनकी तरह की राजनीति करने वाले अन्य लोग, डॉ. आंबेडकर को दलितों और अन्य दमित समुदायों का मसीहा नहीं मानते। दूसरी, आंबेडकरवादी राजनीति को फैशनेबुल बताकर उन्होंने यह दिखा दिया है कि बाबासाहेब के नाम पर राजनीति के लोकतांत्रिकरण में उनकी कोई रूचि नहीं है।

क्या यह सचमुच फैशनेबुल है?

कोई यह क्यों नहीं कहता कि गांधीवादी राजनीति फैशनेबुल बन गई है? या यह कि सुभाषचंद्र बोस के नाम पर राजनीति फैशनेबुल बन गई है? या यह कि रबींद्रनाथ टैगोर का नाम लेना फैशन बन गया है? ये सभी आधुनिक भारत के महत्वपूर्ण और सम्मानित व्यक्तित्व हैं। मगर डॉ. आंबेडकर के मामले में अलग मानक अपनाए जाते हैं।

भारत के स्वाधीन होने के कई बरसों बाद तक डॉ. आंबेडकर उपेक्षा के शिकार रहे। उनके जीवनकाल में उनकी सामाजिक पहचान के कारण उनकी उपेक्षा की गई, उन्हें ख़ारिज किया गया। उनकी मृत्यु के बाद भी उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। डॉ. आंबेडकर भारतीय सामाजिक चेतना की मुख्यधारा में भारत के संविधान – जिसका प्रारूप उनकी अध्यक्षता में तैयार किया गया था – के ज़रिए लौटे। हाशियाकृत समुदायों के लोगों के संसद में आने के बाद ही सत्ता के गलियारों में आंबेडकवादी राजनीति का असर महसूस होना शुरू हुआ।

देश के विभिन्न भागों में आंबेडकरवादी राजनीति का असर कम-ज्यादा हो सकता है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ. आंबेडकर आज भारत के हर कोने में मौजूद हैं। निश्चित रूप से हर व्यक्ति उनसे और उनकी विचारधारा से पूर्णतः सहमत नहीं हो सकता, मगर उन्हें खारिज करने की स्थिति में तो कोई भी नहीं है। और यह दमित समुदायों – जिनके लिए बाबासाहेब खुदा से कम नहीं थे – की जीत है।

सच तो यह है कि आंबेडकर का नाम लेना फैशन नहीं, बल्कि आंबेडकरवादी विचारों का लोकतांत्रिकरण है जिसने भारतीय राजनीतिक संस्कृति को बदला है। इसे फैशन बताना देश के अंदर और उसके बाहर भी करोड़ों आंबेडकरवादियों के संघर्ष का अपमान और तिरस्कार करना है।

जबकि लोकतांत्रिकरण की इस प्रक्रिया में आंबेडकर के विचारों के माध्यम से अपने-अपने तरीके से निशाना साधने की एक राजनीतिक प्रवृत्ति भी प्रचलित है। मुख्यधारा की ऐसी किसी भी एक पार्टी का नाम लेना मुश्किल है, जिसने आंबेडकर के विचारों को पूरी तरह से अपनाया हो। ऐसा करने के लिए उन्हें ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद – इन दोनों बुराईयों के खिलाफ लड़ना पड़ेगा, जैसा कि बाबासाहेब ने ‘जाति का विनाश’ शीर्षक अपने उस भाषण में कहा था, जिसे उन्हें देने नहीं दिया गया और जिसे उन्हें स्वयं प्रकाशित करना पड़ा था।

कर्नाटक विधानसभा में सत्ताधारी कांग्रेस के सदस्यों ने अपनी-अपनी बेंचों पर आंबेडकर के चित्र प्रदर्शित कर अमित शाह के वक्तव्य के प्रति अपना विरोध दर्ज किया

आंबेडकर पर कब्ज़ा ज़माने की भाजपा की कोशिश

अगर हम भारत की राजनीति में सक्रिय सभी पार्टियों का इस परिप्रेक्ष्य से अध्ययन करें कि डॉ. आंबेडकर के बरक्स वे कहां खड़ीं हैं तो हम पाएंगे कि डॉ. आंबेडकर के विचारों और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की विचारधारा में मूलभूत और अंतर्निहित विरोधाभास हैं। ये अंतर इतने गहरे हैं कि दोनों में कोई मेल-मिलाप संभव ही नहीं है। सबसे पहले, भाजपा भारत के बहुसंख्यक धर्म (हिंदू) पर आधारित पार्टी है। डॉ. आंबेडकर ने अपने जीवन के संध्याकाल में हिंदू धर्म त्याग दिया था और अपने समर्थकों को भी यही करने का निर्देश दिया था। हिंदू धर्म छोड़ने के अपने निर्णय की घोषणा उन्होंने अपने धर्मांतरण से दो दशक पहले ही कर दी थी।

दूसरे, भाजपा के पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दलितों को हिंदू धर्म में समावेशित करना चाहता है। जबकि डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म त्यागने के बाद बौद्ध धर्म को अपनाया था, क्योंकि उनका मानना था कि जाति-आधारित सिद्धांतों के चलते हिंदू धर्म में अन्यों के प्रति सहानुभूति और करुणा के लिए कोई जगह ही नहीं है। यह बात उन्होंने 1936 में अपने एक भाषण में कहा था, जिसका शीर्षक था– ‘मुक्ति कौन पथे’ (मुक्ति की राह क्या है)।

तीसरे, भेदभाव मिटाने और जाति-आधारित असमानताओं से निपटने के लिए डॉ. आंबेडकर मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र के हिमायती थे। वहीं अपने वर्तमान स्वरूप में भाजपा न्यूनतम शासन और अधिकतम विनिवेश की हामी है। और अंत में, भाजपा के श्रद्धेय चिंतकों जैसे वी.डी. सावरकर और एम.एस. गोलवलकर एवं डॉ. आंबेडकर के हिंदू धर्म संबंधी विचारों में तनिक भी साम्यता नहीं है।

आंकड़े क्या कहते हैं?

सन् 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में सबसे ज्यादा दलित वोट भाजपा और उसके सहयोगियों की झोली में गिरे थे। मगर पिछले साल हुए आम चुनाव में दलित वोटों में कांग्रेस की हिस्सेदारी में इज़ाफा हुआ है। सन् 2019 में भाजपा ने अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए आरक्षित 46 सीटों पर जीत हासिल की थी, जो 2024 में घट कर 29 रह गई। इसी अवधि में, कांग्रेस द्वारा जीती गईं एससी सीटों की संख्या 6 से बढ़कर 20 हो गई। न केवल सीटों बल्कि प्राप्त मतों की दृष्टि से भी कांग्रेस के प्रदर्शन में जबरदस्त सुधार हुआ। सन् 2019 के चुनाव में कांग्रेस को 16.7 प्रतिशत मत हासिल हुए थे, जो 2024 में बढ़कर 20.8 प्रतिशत हो गए। (सीएसडीएस रिपोर्ट, द हिंदू)

यद्यपि हाल में संपन्न हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भाजपा को पूर्व की तुलना में अधिक दलित वोट मिले मगर भाजपा के नेतृत्व को यह डर सता रहा है कि विपक्षी पार्टियों की आक्रामक राजनीति के चलते, उसे दलित वोटों का नुकसान हो सकता है। इस डर के पीछे मुख्यतः दो कारण हैं। पहला यह कि सरकारी तंत्र द्वारा दलितों व अन्य दमित समुदायों पर अत्याचारों को रोकने के लिए पर्याप्त और ज़रूरी कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।

एक ताज़ा सरकारी रपट के अनुसार, अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत सन् 2022 में दर्ज मामलों में से करीब 97.7 प्रतिशत 13 राज्यों में दर्ज किये गए हैं। इन 13 राज्यों में से इस अधिनियम के अंतर्गत अनुसूचित जातियों पर अत्याचार के सबसे ज्यादा 12,287 (23.78 प्रतिशत) मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए। इसी तरह, एसटी समुदायों पर अत्याचारों और उनके खिलाफ हिंसा के मामलों में मध्य प्रदेश सबसे ऊपर है, जहां ऐसे 2,979 मामले दर्ज किये गए हैं। ये दोनों राज्य और 13 राज्यों में से कई भाजपा द्वारा शासित हैं।

दूसरे, भाजपा पर विपक्षी पार्टियां, जातिगत जनगणना और जाति-आधारित सर्वेक्षण करवाने का दबाव बना रही हैं। इस मामले में भाजपा असमंजस में है। और शायद इसका कारण यह कि उसे आशंका है कि अगर उसने इस दिशा में कदम उठाए तो वह अपना मूलाधार – उच्च जातियां व उच्च माध्यम वर्ग – का समर्थन खो सकती है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भले ही भाजपा सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए 2014 से लेकर अब तक दलित मतदाताओं का समर्थन हासिल करने में सफल रही हो, मगर अब दलितों के संदर्भ में उसकी विचारधारा के अंतर्निहित विरोधाभास सामने आ रहे हैं। पार्टी ने निस्संदेह एक दलित और एक आदिवासी को देश का राष्ट्रपति बनाया है, मगर उसके अत्यंत केंद्रीयकृत ढांचे से अब तक मज़बूत दलित और आदिवासी नेतृत्व नहीं उभरा है।

हमें गृहमंत्री के बयान को इन संदर्भों में समझना होगा। यह वक्तव्य उनकी पार्टी को दलितों के डगमगाते समर्थन से उत्पन्न नैराश्य और चिंता का नतीजा है। सच तो यह है कि आंबेडकर का नाम बार-बार लेना (अमित शाह के शब्दों में फैशन) राजनीतिक संस्कृति के लोकतांत्रिकरण का एक प्रमाण है। भारत की राजनीति अब इस स्थिति में पहुंच गई है जहां दमित समुदाय अब उसी राजनीतिक पार्टी को समर्थन देगा जो उनके हितार्थ काम करेगी।

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