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गणतन्त्र दिवस पर:राम के बाद का गणतंत्र!

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-डा0 श्रीगोपाल नारसन

पुरातन काल मे भी जब लोकतंत्र के बजाए राजशाही थी,बादशाह या फिर राजा साधु-संतों ,पीर-पैग़म्बर के दरबार मे आने पर अपना सिंहासन छोड़ देते थे और उनके सामने नतमस्तक होकर उन्हें भावपूर्ण सम्मान देते थे,लेकिन आज सत्ता के मद में राजा ,शंकराचार्य की उपेक्षा करने में भी नही हिचक रहा है।राजा के पियादे तो राजा को शंकराचार्यो से भी उच्च होने का दावा कर रहे है।पहले नई भारतीय संसद के उदघाटन में भारत गणराज्य के सर्वोच्च पदासीन महामहिम राष्ट्रपति को न बुलाना और अब अयोध्या में जिन शंकराचार्य की कड़ी मेहनत व न्यायालय में साक्ष्य प्रमाण देने से राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सका,उन्हें ही सम्मान न देना भारतीय गणतंत्र व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नही है।

वास्तव में राममंदिर का उदघाटन प्रधानमंत्री के बजाए शंकराचार्य से कराया जाना चाहिए था,जिनके कारण राममंदिर बन पाया है।अध्यात्म व धर्म क्षेत्र में राजनीतिक घुसपैठ निश्चित ही देश व समाज हित मे नही है।लगता है देश अपना गणतंत्र स्वरूप धीरे धीरे खोता जा रहा है और हम राजनीतिक तानाशाही की ओर बढ़ रहे है।जबकि भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के साथ आमजन को ही अपना शासक चुनने का अधिकार दिया गया है।वोट के माध्यम से जिसे चाहे आम जनता फर्श से अर्श पर और अर्श से फर्श पर पहुंचा सकती है।लेकिन क्या वास्तव में वोटर असली राजा की भूमिका निभा पा रहा है?क्या वह शतप्रतिशत अपने मताधिकार का उपयोग कर पाता है?या फिर ईवीएम उसके लिए एक धोखा बनकर रह गई है?क्या अपना शासक चुनने के लिए वोट देते समय आम मतदाता लोभविहीन रहकर देशहित,समाजहित व समाज के आखिर व्यक्ति तक के हित के बारे में सोचकर निष्पक्ष मतदान करने का दायित्व निभा पा रहा है?

यदि नही तो फिर कैसे दुनिया का यह सबसे बड़ा गणतंत्र सुरक्षित रह पाएगा?,यह विचारणीय विषय है।हमारा संविधान भले ही जाति धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न करता हो, लेकिन राजनीति से जुड़े लोग सत्ता की चाबी हाथ लगते ही चाबी अपने पास बनाये रखने के लिए भारतीय संविधान को उसकी मूल भावना से परे जाकर अपने अपने स्वार्थ से परिभाषित करने का प्रयास करते है।तभी तो अभी तक भारतीय संविधान को अनेक बार संशोधनों का सामना करना पड़ा है।भारतीय संविधान की वर्षगांठ पर यह विचार करना आवश्यक है कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र में क्या सही मायनों में स्वस्थ लोकतंत्र सुरक्षित है?क्या यह सच नही है कि गण का तंत्र होने पर भी गण यानि आमजन ही अपने अधिकार से वंचित होकर रह गए है।

भारतीय संविधान लागू होने के बाद आमजन को लगा था कि अब उनका अपना शासन उनके खुद के द्वारा ही किया जाएगा। लेकिन कुछ बड़े लोगो की जेब का खिलौना बने राजनीतिक दलों ने आमजन को दरकिनार कर इन तथाकथित बड़े लोगो के सहारे देश में सत्ता प्राप्त करने की ऐसी चाल चली कि लोकतन्त्र बेचारा धराशाही होकर रह गया। विधायको और सांसदो की कथित खरीद फरोख्त ने तो देश के लोकतन्त्र को कमजोर करके रख दिया है। भारतीय गण्तन्त्र को यूं धराशाही करने की कोशिश की जाएगी यह पहले किसी ने सोचा
तक नही था। तभी तो इस लोकतन्त्र में क्या वास्तव में आमजनता को उनका अपना वास्तविक तन्त्र मिल पाया ?भारतीय संविधान की मूल भावना
जनता पर जनता के द्वारा शासन का सपना क्या वास्तव में चरितार्थ हो पाया? सन 1950 में भारतीय संविधान देश मेंलागू हो गया था। देश के प्रत्येक नागरिक को भारतीय संविधान में समानता का अधिकार मिला था। लेकिन गणतन्त्र लागू होने के इतने सालों बाद भी देश मे नाम मात्र के लोगो का ही गणतन्त्र बन पाया है। देश मे शासन वे लोग ही कर रहे है,जिनके पास धन बल की ताकत है।देश की आम जनता आजादी के बाद से आज तक इन धन बल वालो की ही गुलाम बनी हुई है। यही कारण है कि आम लोग जब असहनीय रूप से शोषित और पीड़ित हो जाते है तो वे अपने अधिकारों के लिए सडकों पर आकर आंदोलन करने को मजबूर होते है।जिन्हें इन्ही शासकों द्वारा लाठी डंडे से दबाने की कोशिश की जाती है। ग्राम पंचायत से लेकर राष्टृपति पद तक के चुनाव में कोई भी आम आदमी चुनाव लडने का साहसनही जुटा पाता है। ग्राम स्तर पर गांव के धनाढय वर्ग सेजुडे लोग चुनाव लडते है तो क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत, विधान सभा,लोक सभा चुनाव मे भी आम जनता मे से कोई चुनाव लडने का साहस नही जुटा पाता है।। क्योकि लाखो करोड़ो रुपयों के बिना अब कोई भी चुनाव लडना सभंव नही रह गया है। राज्य सभा और विधानपरिषदतो राजनीतिक दलो की अपनी बपोती बन गई है। शायद ही किसी गरीब और आम आदमी को इन सदनो मे से किसी का सदस्य बनाया जाता हो, बडीराजनितिक पार्टिया अपने चेहतो को राज्य सभा और विधान परिषदो मे भेजकर उपकृत करती रही है । इन सीटो पर वे अपने चेहतो को भेजने के लिए संख्या बल के हिसाब से सीटो का आपसी बटवारा कर लेते है।जिस कारण आम जनता हर बार ठगी सी रह जाती है


इसी कारण इन सदनो मे चुनकर जाने वाले नेता अपने क्षेत्र के प्रतिज वाबदेह भी नही रहते, यहाॅं तक कि उनकी सांसद निधि और विधायकनिधि या तो खर्च ही नही हो पाती या फिर उसका जमकर दुरूपयोग किया जाता है।जो राष्ट्रहित में नही है।गत चुनाव मे एक भी ऐसा प्रत्याशी किसी बडे राजनीतिक दल से चुनाव मैदान में नही आया जो गरीब की रेखा से नीचे का हो या फिर आमजनता के बीच काहो और किसी बडी राजनीतिक पार्टी ने उसे कट दिया हो । जीवनभरअपनी पार्टी के प्रति वफादार रहने वाले भी इसी कारण टिकट से वंचित रह
जाते है क्योकि उनके पास धन बल नही होता। जबकि धनबल के सहारे दलबदल कर स्वार्थी नेता हर पार्टी में टिकट पाने मे कामयाब हो जाते है।

तभीतो करोडो खर्च करके जो मौकाप्रस्त टिकट पा जाते है वे चुनाव जीतकर पहले जो चुनाव में करोड़ों रुपया खर्च किया उसे बटोरेंगे।ऐसे में वे कैसे जनता की सेवा कर पायगे? चुनाव प्रभावित क्षेत्रो से करोड़ो रूपये का काला धन पकडा जाना, चुनाव मे बेताहशा खर्च की असलियत का जीता जागता प्रमाण है।
आजादी के इतने साल बाद भी आम व्यक्ति भूख से मर रहा है,युवा रोजगार को तरस रहा है,अन्नदाता किसान आत्महत्या करने को मजबूर है।आज भी कानून की रक्षक कही जाने वाली पुलिस जिसे चाहे, जब चाहे, जहाॅं चाहे उठाकर बिना किसी कारणके हवालात में बन्द कर सकती है। जो व्यक्ति या दल चाहे सडक जाम कर मरीजो को अस्पताल जाने से रोक देता है। आज भी कर्मचारी या अधिकारी चाहे तो गरीब को उसके द्वारा घूस न देने के कारण उसे उसके मौलिक अधिकारों से वंचित कर देता है। आज भी प्राइवेट स्कूलों व प्राइवेटअस्पतालो मे गरीबो के लिए के लिए प्रवेश आरक्षण व्यवस्था लागू होने पर भी उन्हे प्रवेश से वंचित किया जाता है।

आज भी गरीब की भूमि पर भूमाफियाओ के कब्जे की शिकायते मिलना आम बात है।आज आमजन नेताओ के झूठे वायदो व भृष्टअधिकारियो के मायाजाल फंसकर परेशान है।आज उद्योगपतियों के अरबो रुपये के ऋण सरकार माफ कर देती है लेकिन मात्र हजारों रुपये के कर्जदार किसान को पकड़कर बंद कर देती है या उसके खेत,मकान नीलाम कर देती है।आम आदमी आज उस असली गणतंत्र को खोज रहा है जिसमे आमजन में राजा बनाने की शक्ति निहित की गई थी। ऐसे में कैसे, भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप सभी भारतीयों को उनका अपना लोकतन्त्र मिल प्राप्त हो सकता है?वह भी तब जब गणतंत्र का असली राजा कहे जाने वाले आमजन जिनमे मजदूर, किसान, युवा,महिलाएं, बुजुर्ग आदि शामिल है,खुद के मूलभूत अधिकारों से वंचित है,जबकि जिनको आमजन ने चुनकर विधानमंडल व संसद में भेजा है ,वे कुर्सी पर रहते लाखो का वेतन भत्ते पाते है और कुर्सी से उतरने पर जितनी बार भी कुर्सी पर रही उतनी पेंशन पाते है।उनका आर्थिक बोझ देश को खोखला कर रहा है।जिस कारण गणतंत्र का राजा मतदाता ही असहाय ,शोषित व पीड़ित होकर रह गया है।जो गणतंत्र के लिए शुभ नही है।

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