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जल संकट से उबरने के लिए नदियों को चाहिए जमीन

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(विशद कुमार 

गर्मी ने जैसे ही दस्तक दिया झारखंड में जल संकट ने अपना पैर पसारना शुरू कर दिया। यह सिलसिला पिछले कई सालों से चल रहा है फिर भी इस संकट से उबरने को लेकर जो गंभीरता होनी चाहिए वह राज्य में देखने को नहीं मिल रही है। जबकि इस जल संकट के कारणों पर पर्यावरणविदों व जल संरक्षण से जुड़े हस्तियों के लगातार बयान आते रहे हैं। 

झारखंड हाई कोर्ट ने पिछले 15 अप्रैल को राज्य की राजधानी रांची सहित राज्य के अन्य हिस्सों में घटते जल स्तर को लेकर चिंता व्यक्त की। अदालत ने जल निकायों के अतिक्रमण और पानी के स्रोतों में कमी पर खुद संज्ञान लिया था। 

वहीं न्यायमूर्ति रोंगोन मुखोपाध्याय और न्यायमूर्ति दीपक रोशन की खंडपीठ ने जल संकट पर एक अन्य जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि लोगों के लिए पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए जल संसाधनों के संरक्षण की दिशा में गंभीर कदम उठाए जाने चाहिए।

याचिका में बताया गया था कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और इंडियन स्कूल ऑफ माइंस, धनबाद की ओर से राज्य भर में एक अध्ययन किया गया है, जिसमें पाया गया कि पिछले दो वर्षों में रांची और झारखंड के अन्य हिस्सों में जल स्तर में गिरावट आ रही है।

हाई कोर्ट ने सरकार के साथ-साथ विशेषज्ञों से राज्य में जल स्तर को बढ़ाने के तरीकों और साधनों पर विचार करने का निर्देश दिया। 

इस पर रांची नगर निगम ने कहा कि राज्य की राजधानी में जल संचयन के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। नगर निकाय ने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए नियमित रूप से जांच की जाती है कि जल संचयन के नियमों का निवासियों की ओर से अनुपालन किया जाता या नहीं। 

बता दें कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि रांची में अत्यधिक आबादी, पिछले 50 सालों में तालाबों का अस्तित्व खत्म होने, कम बारिश की वजह से घटते जल स्तर की वजह से भी पानी की कमी हुई है। राज्य में जल संकट का आलम यह है कि इंसान तो इंसान पानी को लेकर जानवरों को भी राहत नहीं है। यह जल संकट लंबे समय से चला आ रहा है। 2016 में हुई पानी की कमी ने तो दिल दहला देने वाली कई घटनाओं को जन्म दिया।

राज्य के गिरिडीह जिले के पूरना नगर पंचायत के 26 वर्षीय दिलीप यादव ने कुएं में कूद कर उस वक्त आत्महत्या कर ली जब उन्होंने अपने कुएं में बोरिंग कराने के लिए 95 हजार रुपये कर्ज लिए थे। लेकिन बोरिंग के बावजूद भी पानी नहीं निकल पाया जिससे हताश होकर उन्होंने उसी सूखे कुएं में कूद कर अपनी जान दे दी।

वहीं बोकारो जिले के चंदनकियारी प्रखंड अंतर्गत भोस्की गांव के संटुलाल महथा के श्राद्धकर्म के लिए भी पानी बामुश्किल मिल पाया था, बड़ी मुश्किल से मात्र एक बाल्टी पानी ही मिल पाया था। यह खबर भी उस वक्त सुर्खियों में थी। इस जल संकट की वजह से कई जिलों में शादी वगैरह तक का कार्यक्रम स्थगित किया जाता रहा है। 

पूर्वी सिंहभूमि में जलश्रोतों के सुख जाने की वजह से चेकाम पहाड़ी पर एक हाथी का बच्चा प्यास से तड़पकर मर गया। पटमदा के दलमा वन में जलाशय सूख जाने के कारण दो हिरण के बच्चों के प्यास की वजह से मौत हो गई। पानी के तलाश में भटक रहे गढ़वा के केतार गांव में तेंदुए ने पानी के लिए एक कुएं में छलांग लगा दी जिसकी वजह से उसकी मौत हो गई। वहीं गोड्डा जिले में एक जंगली लगड़बग्घा पानी की तलाश में घर के अंदर घुस गया।

पानी की किल्लत की स्थिति यह है कि बोकारो जिले स्थित तेनुघाट डैम जो पूरे जिले को पानी देता है, उसी की तलहटी में बसे एक दर्जन से अधिक गांवों के लोग दो किमी दूर से पानी लाकर अपनी प्यास बुझा रहे हैं।

डैम की तलहटी पर बसे पेटरवार प्रखंड के अरजुवा, गागा, मेरुदारु, पारघुटु, लावा गढ़ा नीच टोला, धमना, केंदुआ टांड़, टुंगरी टोला, पोखर टोला, बोरवा कोच्चा, परसा बेड़ा, तेतरिया टांड़, इरगुवा सहित कई गांव के लोग गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं। 3 साल पहले इस क्षेत्र में करोड़ों रुपए की लागत से ग्रामीण पेयजल आपूर्ति योजना के तहत पाइपलाइन बिछाई गई थी। इस दौरान ग्रामीणों ने 320 रुपए देकर पानी का कनेक्शन भी लिया था। लेकिन पाइपलाइन बिछने के आज 3 साल बाद भी इनके यहां पानी नहीं पहुंचा है। कुछ जगहों पर पाइपलाइन से पानी पहुंचता भी है, तो उससे एक बाल्टी भी नहीं भरता है। 

ग्रामीण बताते हैं कि “अभी गर्मी शुरू ही हुई है और गांव के कुएं सूख चुके हैं। हमलोग जोरिया और चुआं के पानी से अपना काम किसी तरह चला रहे हैं।” 

आमतौर पर पूरे घर के लिए पानी लाने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है। गांव की महिलाएं डेढ़ किलोमीटर दूर से तेनुघाट डैम से पानी लाती हैं। गर्मी में यह समस्या और भी भयावह हो जाती है। खासकर उम्रदराज महिलाओं की हालत काफी खराब हो जाती है।महिलाएं कहती हैं – “नेता लोग सिर्फ चुनाव में वोट मांगने के लिए आते हैं, हमारी समस्या को देखने वाला कोई नहीं है।” 

गागा गांव के लोगों की जमीन पर तेनुघाट डैम का निर्माण हुआ है। जबकि वर्तमान में यहीं के लोगों को सबसे अधिक पेयजल के लिए भटकना पड़ता है। पानी की समस्या को लेकर गांवों की तस्वीर भयावह तो है ही, राज्य की राजधानी भी इस समस्या से मुक्त नहीं है। यहां भी स्थिति भयावह होती जा रही है।

राज्य की राजधानी रांची में बीते 20 वर्षों से पानी की समस्या बनी हुई है। जो पिछले दस वर्षों में विकराल रूप धारण करता जा रहा है। इसके पीछे की वजह पर गौर करें तो इसका मुख्य कारण पानी का अत्यधिक दोहन के साथ-साथ जंगलों की अंधाधुंध कटाई और पानी की बर्बादी है। बीते कुछ सालों में यहां ग्राउंड वाटर लेवल इतनी तेजी से नीचे गिरा है कि बीस साल पहले जहां दो सौ फीट पर पानी मिल जाया करता था, अब वहीं सात-आठ सौ फीट की बोरिंग सामान्य बात हो गई है, कुछ स्थानों पर तो हजार फीट की बोरिंग भी फेल साबित होने लगी है। 

जहां कभी रांची तालाबों और नदियों का शहर माना जाता था और यहां 600 से अधिक तालाब थे, जो आज महज 39 रह गए हैं। उसमें से भी आधा से अधिक सूखने के कगार पर हैं। हरमू और स्वर्णरेखा नदी जिसे रांची की लाइफलाइन कहा जाता था। अब यह भी नदी से बदल कर नाले का रूप ले चुका है। 

अलग राज्य गठन के बाद जबसे रांची को राजधानी बनाया गया, रांची में नई-नई इमारतों का निर्माण होता गया। इस निर्माण के लिए कई तालाबों, जलाशयों को भर दिया गया। स्थिति यह है कि रांची की लगभग आधी आबादी को जलापूर्ति करने वाले गोंदा व हटिया डैम भी अतिक्रमण की भेंट चढ़ता जा रहा है। अभी 2022 में झारखंड के 226 प्रखंड को पानी की कमी की वजह से सूखाग्रस्त घोषित किया गया था। पिछले साल राज्य सरकार द्वारा इन सूखाग्रस्त प्रखंडों के लिए 1,200 करोड़ रुपये खर्च किए गए। यदि यह पैसा छोटे चैक डैम और वर्षा के जल संचयन पर खर्च किये गये होते, तो शायद इस तरह प्रत्येक साल पानी की कमी इस तरह नहीं होती। 

यहां हर साल बारिश का पानी करीब 1,200 से 1,400 मिमी. है और उसी पानी से सारी जरूरतें पूरी करनी पड़ती हैं। इसमें 23,500 एमसीएम सतही जल के रूप में तथा 500 एमसीएम भूजल के रूप में प्रतिवर्ष उपलब्ध होता है। भौगोलिक स्थिति के कारण 80 फीसद सतही और 74 फीसद भूजल राज्य के बाहर चला जाता है, जो यहां के 38 प्रतिशत सूखे का मुख्य कारण है।

रांची सहित इन इलाकों में पानी की हो रही किल्लत पर बात करें तो आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2020 में राज्य में भूमिगत जल का दोहन और निकासी 29.13 फीसद थी, जो 2022 में बढ़कर 31.35 फीसद हो गयी। नगर निगम की माने तो रांची में हर साल जल का श्रोत 20 फीट नीचे जा रहा है। राज्य के बोकारो, जमशेदपुर, गिरिडीह, धनबाद आदि सभी जगह कमोबेश यही स्थिति है। झारखंड के शहरी क्षेत्रों में पानी की जरूरत 1616.3 लाख गैलन पानी की है, लेकिन उपलब्धता सिर्फ 734.53 एमसीएम है।

पूरे राज्य में करीब 197 छोटी बड़ी नदियां हैं। इनमें से लगभग 72 फीसदी यानी 141 नदियां ऐसी हैं जो गर्मी का मौसम आते ही सूखने लगती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बरसात में होने वाली बारिश का पानी के संचय की क्षमता इन नदियों में नहीं हो पाता है। क्योंकि बरसात के पानी को रोके रखने की कोई समुचित व्यवस्था झारखंड में आजतक नहीं हो सकी है और बरसात का पानी जितना जमीन सोख पाती है, सोख लेती है, बाकी पानी बहकर बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। अतः ऐसा होना राज्य के लिए एक गंभीर संकट से कम नहीं है। यही कारण हैं कि गांव से लेकर शहरों तक में पेयजल और दूसरे उपयोग के लिए जल संकट की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है।

राज्य में वर्षा जल के संरक्षण का अभाव तो है ही। नदियों में लगातार कूड़ा-कचरा डाला जा रहा है। तेजी से नदियों के आस-पास की भूमि का अतिक्रमण कर उसमें ऐसी संरचनाएं खड़ी की जा रही हैं, जिससे नदियों के आस-पास जल भरण की संरचनाएं विलीन हो रही हैं। खेतों और फसलों में व्यापक पैमाने पर रासायनिक खाद और कीटनाशी दवाओं के प्रयोग से जमीन के अंदर जल ग्रहण की क्षमता दिन-प्रतिदिन प्रभावित हो रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, केरल, असम, मिजोरम, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और अरुणाचल प्रदेश में 10 फीसदी से कम भू-भाग कटाव के दायरे में हैं। वहीं, झारखंड, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा ऐसे राज्य हैं, जहां 50 फीसदी से अधिक भूमि कटाव क्षेत्र में आ गये हैं। इसमें झारखंड सबसे ऊपर है। राज्य में खनिजों का तेजी से अवैध दोहन भी हमारी नदियों की बर्बादी के प्रमुख कारणों में से एक है। 

सिर्फ एक स्वर्ण रेखा नदी जो न केवल झारखंड की जीवन दायिनी है, बल्कि पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के कई इलाकों के लिए भी जीवन रेखा है। इसके बेसिन का क्षेत्रफल करीब 19 हजार किलोमीटर है। यह नदी रांची से 16 किलोमीटर दूर जिले का नगड़ी प्रखंड अंतर्गत पांडु गांव स्थित ‘रानी चुआं’ से निकलकर सरायकेला – खरसावां और पूर्वी सिंहभूम होते हुए पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर और उड़ीसा के बालासोर होकर बहती है। यह नदी 474 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद समुद्र में मिल जाती है। यदि यह नदी सूखी या कमजोर हुई तो तीनों राज्यों के कई इलाके जल विहीन हो जाएंगे। रानी चुआं एक गड्ढे के रूप में था जिसको अब एक कुआं का रूप देकर घेर दिया गया है। इससे लगातार पानी निकलता रहता है। गर्मी के मौसम में भी इस कुआं का जलस्तर जमीन के लेवल पर बना रहता है। यहां का पानी खेतों से बहते हुए करीब दो किलोमीटर दूर बांधगांव पहुंचता हैं और यहीं से यह नदी का रूप धारण कर आगे जाकर स्वर्णरेखा नदी में तब्दील हो जाती है।

बताते चलें कि गढ़वा जिला अंतर्गत गंगा की सहायक नदी बांकी नदी जो धुड़की रोड स्थित संगमा से निकलती है और नगर उंटारी और विष्णुपुरा से गुजरती हुई 53.08 किमी के बाद बूढ़ी खार गांव के पास उत्तर कोयल में मिल जाती है। लगभग 7 लाख लोगों का जीवन स्तर बांकी नदी पर आश्रित है। 

बताना जरूरी हो जाता है कि दुनिया में लगभग 40 प्रतिशत लोग जलभृत झील और दो या दो से अधिक देशों के बीच साझा नदी घाटियों में रहते हैं। ये वैश्विक भूमि की सतह का लगभग 50 प्रतिशत और 60 प्रतिशत वैश्विक जल प्रवाह को कवर करते हैं और अमेजन, नील, मिसिसिपी, येलो, यांग्त्जी, येनिसी, ब्रह्मपुत्र, गंगा, सिंधु आदि जैसी जलभृत नदियों के किनारे स्थित देश अपने जलग्रहण क्षेत्रों में अभूतपूर्व जलवायु, शहरी और ग्रामीण इलाकों में अचानक बाढ़, सूखा, भूजल की कमी में परिवर्तन का सामना कर रहे हैं।

आईआईटी (आईएसएम) धनबाद के पर्यावरण विज्ञान एवं इंजीनियरिंग विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अंशुमाली कहते हैं “इन तमाम समस्याओं के मुख्यतः कारण हमारी जीवन शैली है। झारखंड जो कभी 70 प्रतिशत जंगल से आच्छादित था अब वह निरंतर घटता जा रहा है। पहाड़ टूटते जा रहे हैं, उनका अस्तित्व मिटता जा रहा है। पेड़ कटते जा रहे हैं, जंगल सिमटता जा रहा है। इसके कारण नदियां सूखती जा रही हैं। क्योंकि इन्हीं पहाड़ों व पेड़ों से जल वर्षा के पानी का रिसाव होता रहता था जो आगे जाकर नदियों में मिलकर उनके अस्तित्व को बनाए रखने में सहयोगी होता था।”

उन्होंने कहा कि “पहले हर 500 मीटर की दूरी पर जोरिया-नाला हुआ करता था, जिससे निरंतर पानी का बहाव नदियों में जाकर गिरता था।”

प्रो. अंशुमाली कहते हैं – “पहले जल वर्षा का पहाड़ों व जंगल से काफी गहरा रिश्ता था, अब पहाड़ों के नष्ट होने और जंगलों की कटाई से यह लिंक समाप्त होता जा रहा है, जिससे नदियों को मिलने वाला जल वर्षा का पानी नहीं मिल पा रहा है। दूसरी तरफ नदियों को हड़पा जा रहा है और खेत बनाया जा रहा है। जिससे भी नदियों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। पहले जहां नदियों का जल सतह 8 फीसद जमीन पर हुआ करता था, अब वह सिकुड़ कर मात्र 0.523 फीसद रह गया है। वहीं नदियों के लगभग 4 से 5 प्रतिशत भू-भाग पर लोगों ने कब्जा जमा रखा है। यह साफ है कि जब नदियां ही नहीं रहेंगी तो जल संकट स्वाभाविक है।”

वे आगे कहते हैं कि “जंगल के लिए तो सभी बात करते हैं कि 33 प्रतिशत भूभाग जंगल के लिए होना चाहिए। सरकारी स्तर पर भी जंगल के लिए पॉलिसी है कि जंगल के लिए जमीन चाहिए। लेकिन नदियों के लिए जमीन चाहिए ऐसी अभी तक कोई पॉलिसी नहीं बनी है। जबकि यह जल संचयन के लिए नितांत जरूरी है। हमें नदियों के लिए 8 प्रतिशत भू-भाग देना ही पड़े‌गा, तभी हम जल संकट से उबर सकते हैं। हम 100 स्क्वायर मीटर क्षेत्र पर स्टडी करते हैं तो पाते है कि जल संकट से उबरने के लिए नदियों, तालाबों या जल संरक्षण के अन्य उपाय के लिए हमें 8 स्क्वायर मीटर जमीन चाहिए ही चाहिए।” 

प्रो. अंशुमाली ने बताया कि “आईआईटी (आईएसएम) धनबाद की ओर से एडमिनिस्ट्रेटिव बाउंड्रीज मार्फोमेट्रिक डिलाइनेशन और ट्रांसबाउंडी – नदियों में वाटरशेड की खतरनाक श्रेणियों के वर्गीकरण को लेकर प्रायोजित 18 महीने के शोध के दौरान मैं और मेरी टीम के सामने कई चौकाने वाले तथ्य आए।” 

उन्होंने बताया कि “गंगा की सहायक नदी गढ़वा की बांकी नदी पर 53.08 किमी तक अध्ययन करने के बाद हमने पाया कि 1991 से 2001 तक नदी के आसपास के क्षेत्रों में नदी की भूमि 13.9 प्रतिशत, फिर 3.6 प्रतिशत और अब 1.6 प्रतिशत सिकुड़कर रह गई है। यानी इन वर्षों में नदी भूमि 12.3 फीसद तक सिकुड़ गई है। जलधाराओं की संख्या, धारा की लंबाई और जल निकासी घनत्व में अपरिवर्तनीय हानि के परिणामस्वरूप बांकी नदी घनत्व के मामले में छठे से चौथे क्रम में पहुंच गई है।”

प्रोफेसर ने बताया कि “बांकी नदी जो धुड़की रोड स्थित संगमा से निकलती है और नगर उंटारी और विष्णुपुरा से गुजरती हुई 53.08 किमी के बाद बूढ़ी खार गांव के पास उत्तर कोयल में मिल जाती है। इस 53.08 किमी के बीच करीब 7 लाख लोगों का जीवन स्तर उसपर आश्रित है। पहले जहां बांकी नदी में 1500 छोटी छोटी नदियां, जोरिया, नाला मिलते थे अब उनकी संख्या मात्र 175 रह गई हैं। इससे समझा जा सकता है कि छोटी छोटी नदियां, जोरिया व नाला हमारे लिए कितनी जीवनदायिनी हैं यह एक उदाहरण है।”

प्रो. अंशुमाली ने बताया कि ” बांकी वाटरशेड में 1977 से 2021 के बीच जल निकासी घनत्व में काफी कमी आई है। यह समस्या किसी विशेष महाद्वीप या देश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लगभग हर क्षेत्र को प्रभावित करती है। दुनिया में लगभग 40 प्रतिशत लोग ट्रांसबाउंड्री झील और दो या दो से अधिक देशों के बीच साझा नदी घाटियों में रहते हैं। ये वैश्विक भूमि की सतह का लगभग 50 प्रतिशत और 60 प्रतिशत वैश्विक जल प्रवाह को कवर करते हैं।”

कुछ उदाहरणों का हवाला देते हुए बताया कि “अमेजन, नील, मिसिसिपी, येलो, यांग्त्जी, येनिसी, ब्रह्मपुत्र, गंगा, सिंधु आदि जैसी ट्रांसबाउंड्री नदियों के किनारे स्थित देश अपने जलग्रहण क्षेत्रों में अभूतपूर्व जलवायु, शहरी और ग्रामीण इलाकों में अचानक बाढ़, सूखा, भूजल की कमी में परिवर्तन का सामना कर रहे हैं।”

उन्होंने बताया कि “राज्य में जल श्रोत का 90 प्रतिशत भू-भाग खत्म हो चुका है। जाहिर है अगर हमें ‘जल ही जीवन है’ की गंभीरता को समझते हुए जल संकट से उबरना है तो नदियों को जमीन देना ही होगा।”

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