नीरज बुनकर
ओटीटी मंच अमेज़न प्राइम वीडियो पर उपलब्ध नई वेब सीरीज ‘दहाड़’ का निर्माण जानीमानी फ़िल्मकार ज़ोया अख्तर और रीमा कागती ने किया है। रुचिका ओबेरॉय द्वारा निर्देशित यह सीरीज, मोहन कुमार विवेकानंद उर्फ़ साइनाइड मैन की असली ज़िन्दगी से प्रेरित है। इसमें हाशियाग्रस्त समुदायों की द्विआयामी सच्चाई को दिखाया गया है – एक तो यह है कि उन्हें आज भी कष्ट और परेशानियों से भरा जीवन जीना पड़ता है। साथ ही दूसरा सच यह भी है कि शासन और प्रशासन में उनकी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। यह शायद पहली बार है कि राजस्थान में बड़ी आबादी वाले मेघवाल (दलित) समुदाय के सदस्य को एक किसी फिल्म में मुख्य किरदार और वह भी महिला बतौर प्रस्तुत किया गया है।
दहाड़, जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था की जटिलताओं को रेखांकित करती है। सीरीज का खलनायक एक सीरियल किलर है, जो सुनार (स्वर्णकार) समुदाय से है। यह जाति केंद्र और लगभग सभी राज्यों की ओबीसी सूचियों में शामिल है। आनंद स्वर्णकार (विजय वर्मा द्वारा अभिनीत), एक बड़े और स्थापित आभूषण निर्माता और विक्रेता का लड़का है। मामले की जांच कर रही दलित दारोगा अंजलि भाटी (सोनाक्षी सिन्हा द्वारा अभिनीत) अपने साथियों को बताती है कि जो 27 लड़कियां गायब हैं, उनमें अधिकांश दलित, पिछड़ी जातियों और आदिवासी समुदाय से है। जो नाम गिनाए जाते हैं उनमें कृष्णा चांडाल (एससी), फातिमा लोहार (ओबीसी), किरण बैरवा (एससी), मीनू बागरी (एससी), रिंकू बिश्नोई (ओबीसी), प्रिया बलाई (एससी), रानी डामोर (एसटी), गीता गरासिया (एसटी), भारती माली (ओबीसी), स्वाति भम्भी (एससी) और नूतन बागरी (एससी) शामिल हैं।
पटकथाकार शायद यथार्थ का चित्रण चाहते थे और इसलिए वे राजस्थान के एक छोटे से शहर मंडावा में पदस्थ मुख्य किरदार निभाने वाली दलित महिला को दारोगा से ऊंचा पद नहीं दे पाए। पुलिस महकमे के पदक्रम में शायद वे इससे ऊपर नहीं जा सकते थे। दारोगा साहिबा जिन इंस्पेक्टर साहब के अधीन काम करतीं हैं, वे एक ऊंची जाति के है। और अगर मंडावा जैसे छोटे शहर में एक दलित महिला दारोगा को सराहना हासिल करनी है तो उसे पेशेवराना उत्कृष्टता का प्रदर्शन तो करना ही होगा। वह मामले की तहकीकात में इतनी खो जाती है कि उसे याद ही नहीं रहता कि वह पिछले 60 घंटे से लगातार काम कर रही है और इंस्पेक्टर देवीलाल सिंह को उसे कुछ देर आराम करने के लिए घर भेजना पड़ता है। इस तरह के दृश्यों को देखकर ऐसा लगता है मानों जाति प्रथा के उन्मूलन की ज़िम्मेदारी केवल दलितों के कंधे पर है।
एक स्वर्णकार को एससी व ओबीसी लड़कियों के खिलाफ अपराध करते हुए दिखाना कुछ प्रश्न खड़े करता है। राजस्थान जैसे सामंती मिजाज़ वाले प्रदेश में ओबीसी समुदाय भी दलितों का दमन करते हैं, इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन सीरियल किलर तो किसी भी जाति के हो सकते हैं और वे किसी भी जाति के लोगों को अपना शिकार बना सकते हैं।
लेकिन शायद सीरीज के निर्माताओं ने सकारण अपराधी को सुनार बताया है। एक बात तो यह है कि सुनारों को साइनाइड आसानी से उपलब्ध रहता है क्योंकि यह ज़हरीला रसायन सोने को साफ़ करने के काम आता है। इसके अलावा शायद सुनार को खलनायक के रूप में इसलिए भी दिखाया गया होगा क्योंकि सुनारों की आबादी कम है और उनका राजनैतिक प्रभाव सीमित है। अगर किसी बड़ी ओबीसी जाति या किसी उच्च जाति के सदस्य को अपराधी दिखाया जाता तो शायद इसका विरोध होता और इससे जनित विवाद, सीरीज की स्वीकार्यता को प्रभावित करता। इसलिए निर्माताओं ने सीरियल किलर को सुनार दिखाना बेहतर समझा। वे उसे आभूषणों का व्यापारी, एक मारवाड़ी सेठ भी दिखा सकते थे, जिसकी दुकान में सुनार काम करते हैं। जिस भव्य और विशाल घर में आनंद सुनार के पिता रहते हैं, वह किसी सुनार से ज्यादा किसी रईस मारवाड़ी परिवार का निवास नज़र आता है।
अंजलि अपने काम के प्रति प्रतिबद्ध, सुप्रशिक्षित और कुशल पुलिस अधिकारी है। उसमें आत्मविश्वास है, वह तरक्कीपसंद है और अंधविश्वासों में यकीन नहीं रखती। वह एनफील्ड बुलेट मोटरसाइकिल पर सवारी करती है, धूप से बचने को चश्मा पहनती है और स्त्री-विरूद्ध टिप्पणियों को सहन नहीं करती। वह दलित है, लेकिन उसका उपनाम भाटी है, जो कि सामान्यतः ऊंची जातियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन उस छोटे से नगर में सब जानते हैं कि वह दलित है। एक ठाकुर मुखिया, जिसकी लड़की घर से भाग गई है, जब अंजलि तहकीकात के लिए उसके घर जाती है तो वह घुसने तक नहीं देता। यहां तक कि आनंद की सीरियल हत्यारे के संदेही के रूप में पहचान हो जाने के बाद भी जब अंजलि आनंद स्वर्णकार के पिता के घर पहुंचती है, तब भी वह इंस्पेक्टर और अंजलि के मातहतों की मौजूदगी में अपने घर में उसके घुसने का विरोध करता है। पुलिस थाने में अलग-अलग जातियों के सिपाही उसे ‘भाटी सा’ कहकर संबोधित करते हैं। यह संबोधन राजपूत समुदाय में आम है। जिन सहकर्मियों के साथ वह इस मामले पर काम करती है, वे दोनों मुसलमान हैं – कासिम नामक आईटी का जानकार और मंसूर नाम का सिपाही। उसका मार्गदर्शक और गुरु एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी ज़ेड. अंसारी है, जो अब अपराध विज्ञान का प्रोफेसर है। शायद यह मुसलमानों, और विशेषकर पसमांदा जातियों, और दलितों के बीच सखाभाव की ओर इशारा है। थाने में पदस्थ एक अन्य सिपाही अंजलि के उसके पास से गुजरने पर हर बार अगरबत्ती हवा में घुमाता है। इस प्रकार, अपने कार्यस्थल, जहां सभी उसकी जाति से परिचित हैं और जहां उसके अलावा सभी पुरुष हैं, उसे सम्मान अर्जित करने के लिए अन्यों से ज्यादा मेहनत और ज्यादा प्रयास करने पड़ते हैं।
अंजलि का एक पुरुष मित्र भी है, जिससे उसके रिश्ते बहुत गहरे नहीं हैं और जिससे वह रात के अंधेरे में मिलती है। लेकिन इंस्पेक्टर देवीलाल को उसके बारे में बताने में उसे कोई परेशानी नहीं होती। इस प्रकार, वह स्त्री होने के नाते किसी प्रकार के संकोच या हीनता के भाव से मुक्त है। वह जानती है कि वह अपने बारे में और अपने शरीर के बारे में खुद निर्णय ले सकती है।
अंजलि उस आधुनिक दलित मध्यम वर्ग की प्रतिनिधि कही जा सकती है, जो भारत के संविधान की आज़ादी, बराबरी और भाईचारे के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता से लाभान्वित हुई है। वह संविधान की ताकत से परिचित है और उस पर जोर देती है। वह मानती है कि हर व्यक्ति को समाज में बराबरी का दर्जा प्राप्त है, भले ही वह किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, नस्ल या लिंग का हो। लेकिन उसकी खुद की मां अत्यंत परंपरावादी है, जो हमेशा पूजा में व्यस्त रहती है तथा अपनी लड़की के लिए वर की तलाश के लिए एक ब्राह्मण पंडित की मदद लेती है। उसके दिवंगत पिता, जो लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) में निरीक्षक थे। वे तरक्कीपसंद और शिक्षित थे और अपनी लड़की को शिक्षा हासिल करने का मौका देने के महत्व को समझते थे। अंजलि बातचीत के दौरान इंस्पेक्टर देवीलाल को बताती है कि उसके पिता ने उसे सिखाया था कि कभी किसी के सामने झुकना नहीं और हमेशा यह सुनिश्चित करना कि आमदनी का अपना स्रोत हो।
शायद दारोगा अंजलि भाटी से प्रेरित होकर इंस्पेक्टर देवीलाल भी अपनी लड़की को भी यही शिक्षा देना चाहते हैं। लेकिन उसकी पत्नी इसकी घोर विरोधी है। उसे डर है कि उसकी लड़की भी अंजलि की तरह बन जाएगी, जो अब तक अपना घर नहीं बसा पाई है।
इस वेब सीरीज का एक महत्वपूर्ण पहलू है उच्च जातियों के उदारवादी और प्रगतिशीलता को उनके ही अहंकार और जातिवाद के बरक्स प्रस्तुत करना। इसे अभिव्यक्त करते हैं इंस्पेक्टर देवीलाल, जिले के पुलिस अधीक्षक (एसपी) और एक अन्य दारोगा पर्घी।
आनंद स्वर्णकार के अपराध इसलिए सामने आ पाते हैं, क्योंकि एक दलित थाने में यह रिपोर्ट दर्ज करवाने का साहस दिखाता है कि उसकी बहन घर से गायब है। जब पुलिस थाने में उसकी रपट नहीं लिखी जाती तो वह एक हिन्दुत्ववादी राजनैतिक संगठन की मदद लेता है, जो ‘लव जिहाद’ को राजनैतिक मुद्दा बनाना चाहता है। और इसलिए वह थाने में यह झूठी रपट लिखवाता है कि उसकी लड़की को एक मुसलमान भगा कर ले गया है। इससे यह पता चलता है कि किस तरह दलित, जाने-अनजाने हिंदुत्व राजनीति के प्यादे बन जाते हैं और अंततः खुद भी उसी राजनीति के शिकार बनते हैं।
कुल मिलकर, निर्देशक ने सामाजिक यथार्थ को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है। लेकिन इसके बाद भी उच्च जातियों के प्रति झुकाव की झलक भी वेब सीरीज में देखी जा सकती है। जैसे, जब आनंद स्वर्णकार अपने घर में अंजलि के घुसने का विरोध करता है, तब तो वह इसका ज़ोरदार प्रतिकार करती है, लेकिन वह तब चुप रहती है जब ठाकुर सरदार यही करता है और इंस्पेक्टर देवीलाल को धीमे स्वर में बताता है कि वह अंजलि की जाति के कारण ऐसा कर रहा है। गौर तलब यह कि अंजलि भी यह समझ जाती है। एक बात और. क्या अंजलि के पिता की कैंसर से मौत ज़रूरी थी? क्या यह एक दलित की मुसीबतों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने का अकारण प्रयास नहीं लगता?