विधानसभा को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। विधायक चुने जाने वाले नेता ही विधानसभा में जनता के मुद्दों को उठाकर उस पर चर्चा करते हैं, जिसके आधार पर सरकारें नियम व कानून बनाती है। इसकी वजह है यहां पर होने वाले सवाल-जवाबों के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचना ही आदर्श संसदीय व्यवस्था होती है, लेकिन अब प्रदेश में स्थितियां अलहदा होती जा रही हैं। इसकी वजह है विधानसभा सत्रों में चर्चा के नाम पर हंगामा, विरोध और फिर कार्यवाही का स्थगन हो जाना। प्रदेश की विधानसभा में इसी तरह का कुछ चिंताजनक ट्रेंड बना हुआ है। यही वजह है कि अगर बीते तीन दशकों पर नजर डालें तो प्रदेश विधानसभा में चर्चा के लिए जितना समय माननीय लेते थे, उसमें अब 75 फीसदी तक की कमी आ चुकी है। हद तो यह है कि 15वीं विधानसभा का अंतिम सत्र बुलाया तो पांच दिन के लिए गया था, लेकिन वह भी दो दिन में ही समाप्त हो गया। इस दौरान सदन की कार्रवाई महज 2 घंटे 34 मिनट ही चली। इस दौरान विपक्ष ने सीधी पेशाब कांड, आदिवासी अत्याचार, महाकाल लोक घोटाला और सतपुड़ा भवन अग्निकांड के मुद्दों को उठाते हुए चर्चा की मांग की , जिसके चलते सत्ता पक्ष व विपक्ष के सदस्य आमने -सामने आ गए थे।
अगर प्रदेश की विधानसभा के इतिहास पर नजर डालें तो कई बार ऐसे भी मौके आए जब, मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तय समय की सीमा में भी वृद्धि की गई है या फिर देर रात तक कार्रवाई चलती रही है, लेकिन, अब ऐसे मौके आने की नौबत ही नहीं आती है। इसकी वजह है अब माननीय सदन में अपनी बात रखने के लिए तर्कों के बजाय हंगामा करने को अधिक महत्व देते नजर आते हैं। इस तरह के हालात 12 वीं विधानसभा से बनने शुरु हुए तो वह अब जारी है। यही नहीं इसके बाद से तो चर्चा के समय में लगातार गिरावट के हालत बने हुए हैं। इसके पूर्व की कार्रवाई पर नजर डालें तो पहले औसतन हर विधानसभा के कार्यकाल में करीब साढ़े पांच सौ घंटे चर्चा होती थी , जो अब कम होकर औसतन सवा सौ घंटे के आसपास ही रह गई है। अगर पंद्रहवीं विधानसभा में तीन सत्रों को छोडक़र चार साल में अन्य कोई भी सत्र (बजट, मानसून और शीतकालीन) अपनी निर्धारित अवधि पूरी नहीं कर सका। यहां तक की बजट सत्र की बैठकें भी समय से पहले ही समाप्त हो गईं। जबकि यह सबसे लंबा होने की परंपरा रही है। दरअसल, पक्ष हो या विपक्ष किसी की भी रुचि अब अधिक अवधि तक सत्र चलाने में नहीं रह गई है। सरकार का जोर इस बात पर रहता है कि विधायी कार्य पूरे हो जाएं। वहीं, विपक्ष शुरुआत से ही हंगामा करना प्रारंभ कर देता है। स्थिति अब तो यह बनने लगी है कि प्रश्नकाल तक पूरा नहीं हो पाता और अध्यक्ष को सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ती है। इससे अध्यक्ष व्यथित भी नजर आए । सदन के सुचारू संचालन में पक्ष और विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जाहिर है दोनों पक्ष इसके लिए एक-दूसरे को ही जिम्मेदार बताते हैं।
सत्र बढ़े, लेकिन समय कम हुआ
दिग्विजय सरकार के बाद अगर 15 माह की कांग्रेस सरकार को छोड़ दिया जाए तो पूरे समय भाजपा की ही सरकारें बनती रही हैं। इस दौरान सत्र की संख्या में तो वृद्वि की गई , लेकिन चर्चा के लिए निर्धारित दिनों के पहले सत्र समाप्त होने व चर्चा के लिए समय में भी तेजी से गिरावट आती रही। 12वीं विधानसभा में भाजपा के तीन मुख्यमंत्री बने जिनमें उमा भारती, बाबूलाल गौर और मौजूदा सीएम शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं। 12वीं विधानसभा में विधानसभा के 15 सत्र हुए, लेकिन इनमें केवल 159 दिन बैठकें हुईं। इन बैठकों में 275 घंटे विधायकों ने विभिन्न मुद्दों व विषयों पर चर्चा की। इसके बाद 13वीं और 14वीं विधानसभा में 17-17 सत्र बुलाए गए, लेकिन 13वीं विधानसभा में 167 दिन बैठकें हुईं ,जिनमें चर्चा के लिए 265 घंटे का समय विधायकों को मिल सका। 14वीं विधानसभा में 135 दिन के लिए बैठकें बुलाई गईं और चर्चा के लिए समय घटकर मात्र 182 घंटे रह गया।
मौजूदा विधानसभा में 128 घंटे ही हुई चर्चा
बीते रोज यानि की 12 जुलाई को 15वीं विधानसभा का 15वां और आखिरी सत्र समाप्त हो गया है। इस विधानसभा के दौरान कोविड महामारी की वजह से कुछ सत्र औपचारिक रूप से हो सके। विधानसभा में 79 दिन की बैठकें बुलाई गईं ,जिनमें छह विधानसभा की तुलना में सबसे कम 128 घंटे ही चर्चा हुई है। इस विधानसभा में शुरुआत के पांच सत्र कांग्रेस की कमलनाथ सरकार के रहे तो, 10 सत्र शिवराज सरकार के कार्यकाल के हैं। कमलनाथ सरकार ने पांच सत्रों में 28 बैठकें बुलाकर 49 घंटे सदन में विभिन्न विषयों व जनता के मुद्दों पर चर्चा की, लेकिन इसके बाद विधानसभा के आखिरी सत्र तक शिवराज सरकार ने 51 दिन की बैठकों में 79 घंटे ही चर्चा कराई।
दिग्विजय कार्यकाल में नौ माह चली थी विधानसभा
अगर प्रदेश में उमा भारती के नेतृत्व में बनी भाजपा की सरकार के पहले की बात की जाए तो, उसके पहले दस सालों तक प्रदेश में कांग्रेस की दिग्विजय सरकार रही है। इस दौरान विधानसभा में चर्चा के लिए लंबा समय मिलता था , जिसकी वजह से कार्यवाही के दिन भी पांच साल में नौ महीने के लगभग हो जाते थे। दिग्विजय सरकार के पहले कार्यकाल 1993-98 के पांच सालों में 13 सत्र हुए थे , जिसमें सदन की कार्रवाई के लिए 283 दिन का समय मिला था। इस दौरान सदन में चर्चा को लेकर माननीयों की भी विशेष रुचि होती थी जिसकी वजह से तब पूरे कार्यकाल में 534 घंटे चर्चा हुई। इसी तरह से उनके दूसरे कार्यकाल 1998-2003 में भी 13 सत्र हुए , जिसकी अवधि 288 दिन की रही। इस दौरान सदस्यों द्वारा जनहित से जुड़े मामलों पर 517 घंटे चर्चा की गई।