{ध्यानतंत्र-प्रशिक्षक मनस्विद डॉ. विकास मानवश्री से हुए सहज-संवाद पर आधारित प्रेरक-प्रतिसंवेदन)
*अनामिका, प्रयागराज*
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पूर्व-कथन:
वैदिक दर्शन में कथित तमाम भगवान नहीं हैं. वैदिक दर्शन में हिन्दू, यहूदी, ईसाई, मुसलमान नहीं हैं. वहाँ प्रकृति-पूजा है, क्योंकि प्रकृति ही सुपर सत्ता की जीवंत व साकार अभिव्यक्ति है.
कथित ईश्वरावतार भी प्रकृति के उपाषक रहे हैं. वे इसके नियमों में दखल नहीं दिए. मनुष्य भी प्राकृतिक संसाधन है. इसलिए मानवधर्मरूपी वैदिकधर्म में मनुष्यमात्र की पूर्णता को केंद्र बनाया गया. सूत्र दिया गया : मनुर्भव.
मनुष्य के लिए 04 पुरुषार्थ बताये गए : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष. अर्थात आजीविका के लिए “धर्म”-पथ (मानवीयता) से “अर्थ”अर्जन कर्रे. “काम”-साधना (संभोगयज्ञ) से “मोक्ष”-प्राप्त करें.
यौनऊर्जा समस्त ऊर्जा-रूपों का स्रोत है, इसलिए इसको पूर्णत्व का आधार दर्शित किया गया है. ध्यान-तंत्र (तपस्या) और परार्थ-कर्म (परोपकार) से सर्वस्व अर्जित कर लेने वाले ऋषि-महर्षि भी संभोग से समाधि का सुख लिए. खुद भगवान कहे गए लोग भी संभोग साधना किए.
पौराणिक युग में शिव को सर्वोच्च सत्ता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया. कोई दोष नहीं, सर्वस्वीकार. देव दानव, कीड़े मकोड़े, अमृत विष आदि सब स्वीकार. शिव यानी कल्याण. शिव-शिवा यानी संभोग के रूप, अर्धनारीश्वर. ध्यान, तंत्र, संगीत आदि सभी विद्याओं के केंद्र.
काम को 04 पुरुषार्थोँ में सम्मलित किया गया. इसे मोक्ष का प्रवेश-द्वार बताया गया लेकिन आगे इसे नर्क का प्रथम-द्वार भी कहा गया :
काम, क्रोध, लोभ, मोह नर्क के द्वार हैं.
आख़िर ऐसा क्यों? काम मोक्ष का भी द्वार और महानर्क का भी द्वार कैसे?
वस्तुतः जब काम ‘विशुद्ध प्रेम’ के आधार पर, ‘योग्यत्म पात्र’ के साथ साधा जाता है, तब वह पूर्णत्व देता है. अर्थात जब संभोग-साधना एक योग्य व्यक्ति से की जाती है, तभी वह परमआनंद, मोक्ष का मुकाम देती है. लेकिन जब यही संभोग अयोग्य से, कई से या यंत्रवत किया जाता है, तब यह करने वालों का ही काम तमाम कर देता है. यानी महानर्क का द्वार सावित हो जाता है.
कई बार स्पस्ट किया जा चुका है : प्रेम-संभोग के लिए पात्र की पात्रता का आधार प्रेम है, भावना – संवेदना – चेतना का स्तर है, पौरुष है. योग्यता-पात्रता का आधार उम्र, कद,पद,रूप, रंग, जाति, धर्म, दौलत कभी नहीं हो सकता है.
ध्यान-पथ-गामिनी विद्यार्थिनी अनामिकाश्री की जिज्ञासावश यहां हमारा विषय काशी-वाराणसी, शिव, रुद्राभिषेक सरीखे शब्दों के वास्तविक निहितार्थ के अलोक में काम का विवेचन है. फुरसत के पल निकालकर, एक-एक शब्द का अर्थ ग्रहण करते हुए और समझते हुए पढ़ने पर बातें समझ में आएंगी. यह आम पाठकों का विषय नहीं है.
~ डॉ. विकास मानव
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काशी काश् दीप्तौ दिवादि ध्वादि काश्यते, काशते से बना है। अर्थात जो चमकता है, प्रकाशित होता है, प्रकट होता है, दिखायी देता है, जिस के कारण जिस से प्रकाट्य होता है, ख्याति यश, कीर्ति, चमक मिलती है, उसका नाम काशी है।
काश + अच् गौरादित्वात् ङीष् = काशी. गौरवदायक।
काश् + णिच् + अच् काशयति प्रकाशयति इदं सर्व या सा काशी। ङीप् प्रत्ययात्।
काश्+इन् = काशिन→काशी, प्रथमा एक वचन विख्यात चमकीला यशस्वी सुगंधित।
काश् + णिच् + अच् काशयति प्रकाशयति इदं सर्व या सा काशी। ङीप् प्रत्ययात्।
कै शब्दे + ड = क। जो शब्द करता है, वह कः अर्थात् जल है। नदी का जल प्रपात का जल समुद्र का जल शब्द करने से कः है। आकाश का जल अर्थात् मेघ भी शब्द गर्जन करता है। इसलिये यह भी कः है।
अतः क = जल। अमर-कोष में ‘कं शिरोम्बुनोः है। अर्थात् कं = शिर, जल। अश् (क्रयादि परस्मै अश्नाति खाना उपभोग करना) + अण् = आश (खानेवाला, भोक्ता)। आश + डीप् काश् + इन् = काशिन काशी, प्रथमा एक वचन विख्यात चमकीला यशस्वी सुगन्धित। स्त्रीलिंग यानी खाने वाली, रस लेने वाली।
क + आशी= काशी.जल सोखने, खाने, लेने, ग्रहण करने वाली। पुनः; क + अश् + णिच् आशयति + अ + ङीप्= काशी. जल पिलाने वाले पिलवाने वाला सोखाने वाला देने वाला। क + अश्. स्वादि आत्मने अश्नुते व्याप्त होना, पूरी तरह से भरना, प्रविष्ट होना पहुँचना जाना उपस्थित होना प्राप्त करना ग्रहण करना आनन्द लेना. + इण् + अण् + सु = काशी. व्याप्त होने वाला, पूरी तरह से भरने वाला, भीतर पहुँचने वाला, प्रविष्ट होने वाला, प्राप्त करने वाला, आनन्द लेने वाला।
इतना सब लिखने के बाद काशी शब्द का अर्थ स्पष्टतर हो गया है। जिस भग का स्पर्श पाकर पुरुष का शेप प्रकाशित होता है, प्रकट होता है, दिखायी देता है, वह काशी है। काश्यते काशते अनायासः काशी।
पुरुष का लिंग जिस भग में प्रवेश कर उसे प्रकाशित करता दिखाता प्रकट करता, वह काशी है। काशयति अनेन सा काशी अर्थात् भग/शेप = काशी।
क = जल =सोम = वीर्य।
क(वीर्य) जिस का ग्रास है, वह स्त्री की योनि काशी है।
कमश्नाति सा काशी। जो वीर्य को देता पिलाता सोखाता है, स्त्री की योनि में, वह पुरुष का लिंग काशी है।
कमाशयति सः काशी। संभोग से पूर्व पुरुष शेफ वीर्य से भरा होता है, व्याप्त होता है। अतः वह काशी है।
कमश्नुते सः काशी। स्खलनोपरान्त इस वीर्य से स्त्री की योनि भर जाती है, वीर्य को ग्रहण कर उससे व्याप्त हो जाती है। इसलिये वह काशी है.
कमश्नुते सा काशी। इस प्रकार काशी = उपस्थ.
सूर्य अपनी किरणों में निहित उष्मा द्वारा जल का भक्षण करता है, सोखता है। इसलिये सूर्य काशी है। यह सूर्य अग्नि है। अग्नि ही काशी है।
स्त्री की योनि में निहित कामाग्नि पुरुष के वीर्य का शोषण करती, खाती है। अतः यह योनि काशी है।
जो पुरुष स्त्री की योनि में संभोग समय भी वीर्य का स्खलन नहीं करता प्रत्युत् स्त्री के क्षरित रजरस (आनन्द) को ग्रहण करता है, स्वशेफ के माध्यम से उसका वह शेफकाशी है।
काशी के सेवन से वा काशी में रहने से मुक्ति (आनन्द) की प्राप्ति होती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। पुरुष का लिंग स्त्री की योनि का सेवन करता है, उसमें घुसकर निवास करता रहता है तो उसे मोक्ष (अमित आनन्द) मिलता है।
स्त्री की योनि जब पुरुष के लिंग का सेवन करती है, उसे अपना पास बनाकर अपने भीतर रख लेती है तो उसे भी अनवद्य आनन्द मिलता है।
काशी वास किसे सुख नहीं देता ? काशी में रहता हुआ ऐसा कौन है जो मोक्ष न पाये ? प्रत्यक्ष कि प्रमाणम् ?
काशी में शिव रहता है। शिव= कल्याण. इसलिये है कि वह आनन्द देता है, वीर्य बल उत्साह का दान करता है और काशी में रहता, वास करता, सुख से लेटा रहता पड़ा रहता, शयन करता है।
शी (अदादि आत्मने शेते लेटना विश्राम करना सुखपूर्वक सोना) + वन्= शिवः। शेतेऽसौ शिवः। अथवा शिवः शौ + णिच् + वन्। शाययति तेऽसौ शिवः।
जो स्त्री की योनि में प्रवेश कर रह कर विश्राम करता है सुख से पड़ा रहता है, वह शिव है।
जो स्त्री को लिटाकर उसकी योनि में प्रवेश करता है तथा स्खलनोपरान्त उसे सुला देता है ( पुरुष को भी निद्रा देता है) वह शिव है।
अतः शिव = शिश्न यह शिव ही भद्र है। इससे दोनों का कल्याण होता है-पुरुष का और स्त्री का भी।
“शी + बाहुलकत्वात् पः शेषः शेफः वा इति शब्दरत्नावल्याम्। शेते रेतः पावनान्तरमिति।”
शी + “वृङशीभ्याम् स्वरूपपाङग्योः पुट् च”।
~उणादि (४। २०२)
शेप रूप से शिव प्रत्येक पुरुष में होता है और इसकी कामना हर एक नारी करती है। यह उसे सन्तान देकर गौरवान्वित करता है। अतः यह कल्याणस्वरूप एवं पूज्य है।
शिव जटाजूटधारी हैं. लिंग बालों से ढका रहता है और योनिप्रदेश भी। अप्राकृतिक होकर उसे ढका नहीं रहने दिया जाए, अलग बात है.
शिव के शिर से गंगा की धारा निकलती है। यह धारा पृथ्वी को सींचती हुई, समुद्र में जा गिरती है।
शिश्न से वीर्य की श्वेतधार निकलकर स्त्री योनि जो कि पृथ्वी रूप है, को सींचती हुई गर्भरूपी समुद्र में लीन हो जाती है।
शिव के ललाट पर बालचन्द्र, निष्कलंक ज्योति विद्यमान है।
चन्दति हर्षयति दीपयति वा स चन्द्रः। चन्दि + रक् = चन्द्र.
लिंग का अग्रभाग चमकीला देदीप्यमान होता है और योनि का क्लिटोरियस भी।
शिव भुजंगधारी, सर्पधारी है। अनुतेजित लिंग वर्ष की तरह टेढ़ामेढ़ा पड़ा रहता है. उल्लेखित होने पर फणधारी सर्प की तरह खड़ा होकर फुफकारता आन्दोलित होता है और योनि भी उभर कर गरम हो जाती है।
शिव शूलधारी है। मैथुन समय शूलच कठोर होकर योनि में प्रवेश करता है, चुभता है, सुखद पीड़ा देता है। लिगाम शेल की भाँति नुकीला होता है।
शल भक्तों के तीनों तापों का हरण कर्ता तथा पापियों को तीनों तापों से युक्त/पीड़ित करता है, इसलिये त्रिशुल है. यह शिश्न दम्पत्ति के शितापों का नाश कर अमित सुख प्रकाशित करता है। इस शूल को धारण करने वाला पुरुष स्त्री को विशेष प्रिय है।
शिव व्याघाम्बर (सर्वोत्तम वत्र) धारण करता है। शिश्न पर प्राकृतिक चर्म चढ़ा होता है। यह चमड़ा ही शिश्न का आवरण रक्षक है।
म्लेच्छजन इसे कटा देते है। उनका लिंग नंगा होता है। अम्लेच्छ जन इस प्राकृतिक आवरण को धारण किये रहते हैं।
शिव महादेव है. सबसे अधिक प्रचुर मात्रा में सतत देने वाला है। जिंग भी तो निरन्तर स्त्री को वीर्य देता रहता है। यह प्रक्रिया जीवनपर्यन्त चलती है। यह महादाता है। यह दम्पत्ति को विषय सुख देता है.
शिव की पूजा उसकी मूर्ति बनाकर नहीं, लिंगाकृति पर की जाती है। जिस शिव लिंग की पूजा लोक में प्रचलित है, वह पत्थर का बना हुआ ऊर्ध्वाधर कठोर एवं चिकना होता है। इसके चारों ओर जलहरी योन्याकार निर्मित होती है।
शिवलिंग की पूजा उस पर जल डालकर की जाती है। यह जल शिवा योनि को सिंचित करता हुआ बाहर निकल जाता है। जो सुख देता है, आनन्द प्रदान करता है, उसकी सभी पूजा करते हैं।
जो लिंग दम्पत्ति को सुख दे, उसको भला क्यों न पूजें ? शिवमंदिर में लिंग योनि में स्थापित होता है. दोनों की पूजा होती है. वहाँ की तरह घर में जीवंत योनि लिंग को नहीं पूजना पतन का कारण बनता है.
जिस विराट शिव को पत्थर का लिंग बनाकर पूजा जाता है, वह इस देह में वर्तमान शिव है।
पुरुषः =शिवः = विष्णुः।
~विष्णुसहस्रनाम में.
अतः शिवलिंग= पुरुषलिंग= पुरुषशिश्न = नरशेप। पत्थर के लिंग पर जल डालने से उस लिंग का कुछ बनता बिगड़ता नहीं, किन्तु आपके प्राकृतिक लिंग पर नित्य जल की धारा उड़ेलने, योनिरस डालने से यौनरोग नहीं होता, शरीर स्वस्थ रहता है, चित्त प्रसन्न रहता है, सिर में पीड़ा नहीं होती, विचार (मस्तिष्क) दूषित नहीं होता।
जब हम पत्थर के शिवलिंग पर जल सेचन करते हैं तो इसका अर्थ है हमारा लिंग स्त्री के रजरस से सींचे जाने पर भी अपनी कठोरता का त्याग न करे। सतत कठोर रहते हुए सम्भोग सुख की अभिवृद्धि करे। इसके अतिरिक्त दूसरा अर्थ यह है कि वह विभिन्न सुन्दरियों का सम्पर्क पाने पर भी अपनी मर्यादा में स्थित रहे, विचलित न हो, लोलुप न बने। जो पुरुष लिंग लोलुप नहीं है, वह शिव है।
लिंग गतौ भ्वादि परस्मै + अच् = लिंग। जो स्त्री की योनि में जाता है, उसके भीतर गति करता है, उसका नाम लिंग है।
शिवलिंग = शान्तलिंग = मैथुन से विरतलिंग = शुद्धलिंग। शिवलिंग कठोर लिंग = वीर्य से भरालिंग अस्खलित लिंग। जो शिव (भद्र शात स्थाणु कठोर निश्चल) है, उसका लिंग भी शिव है।
स्त्री-पुरुष दोनों पुष्ट उम रुद्र लिंग की कामना करते हैं। युग्मीकरण होने पर रतियुद्ध में लुजलुज लिंग व्यर्थ होता है। इस शय्या युद्ध में लिंग का रूद्र रूप ही वरेण्य है। स्त्री इससे तुष्ट होती है, पुरुष इससे सुख पाता है। दोनों तृप्त होते हैं।
रुद्र मंत्रों से इसका जलाभिषेक करने से यह पुष्ट होता है। पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। औषधि द्वारा इसे पष्ट किया जाना वेद सम्मत है।
यां त्वा गन्धर्वो अखनद् वरुणाय मृतभ्रजे।
तां त्वा वयं खनामस्योषधिं शेपहर्षणीम्॥
~अथर्ववेद (४ । ४ । १)
इस मंत्र में अखनत तथा खनामसि ये दो क्रियाएँ एक ही धातु ‘खन्’ से बनी हैं, किन्तु खनामसि, खन का सीधा अर्थ न देकर ‘खादृ’ का अर्थ देता है। अखनत् = खन् (भ्वादि खनति ते अवदारणार्थक खेदना) + परस्मैपद लड् प्रथम पुरुष एक वचन।
खनामसि = खादामसि खाद लेट् उपु. बहु वचन। गन्धर्वः=गम् + धृ + वन् + सु गम् गतौ चलनार्थक। धृ (तुदादि ध्रियते, भ्वादि धरति-ते, चुरादि धारयति-ते) धारणर्थक।
गन्धर्व का अर्थ हुआ- चलता फिरता यति साधु जो हर प्रकार की जानकारी रखता है, जिसका ज्ञान पर अधिकार है अर्थात् ज्ञानी / वैद्य / विद्वान्।
वरुणाय=वृणोति वियतेवाऽसौवरुणः। (उणादि ३ । ५३) वृ + उनन् + ङे। पति ही वरुण है। जिस को स्त्री वरती है।
त्वा =युष्मद् + ङे।
मृतप्रजे = मृ + क्त + भ्रस्ज् (भ्रज्) + क्विप् + ङे। यह मृतभ्रज् शब्द का चतुर्थी एक वचन रूप है। मृत= मरा हुआ। भ्रज् = भ्रष्ट, भुना हुआ, पका हुआ, परिपक्व अर्थात् वीर्य अन्न खाने के बाद उदराग्नि में पकता है। इसके पक जाने से जो रस निकलता है उससे क्रमश रक्त मांस मेद अस्थि मज्जा बनता हुआ अन्त में वीर्य बनता है। अपक्व अन्न मलरूप से उत्सर्जित हो जाता है।
मृत का अर्थ हुआ जिसका वीर्य क्षीण हो चुका है वा निर्बल लिंगवाला, निवीर्य, नपुंसक, हतवीर्य।
ओषधिम् = उष् (ध्वादि परस्मै ओषति, जलाना, मारना + घञ् + धा. जुहो. उभय दधाति धत्ते, रखना, घरना. + कि। जिसमें रोग को जलाने मारने दूर करने की शक्ति हो, वह ओषधि है। रोग को जलाने का गुण रखने से वनस्पतियाँ ओषधि हैं।
शेपहर्षणीम् = लिंग को हर्षित/ प्रसन्न करने वाली, खड़ा करने वाली, उठाने वाली, कठोर करने योनि में प्रवेश करने योग्य बनाने वाली, वीर्य युक्त करने वाली शेप के हर्षित होने का अर्थ है, उसका पूर्णोत्थान। यह वीर्य की अधिकता एवं संयम से संभव है। बिना शेप हर्षण के मैथुन क्रिया असम्भव है। इसके लिये वैद्य के निर्देशन में ओषधि सेवन आवश्यक है।
मन्त्रान्वय= याम् (ओषधिम्) त्वा मृतप्रजे वरुणाय गन्धर्व अखनत्, ताम् शेपहर्षणीम् ओधिम् वयं खनामसि / (खादयामसि।
मन्त्रार्थ : जिस औषधि को तुझ हतवीर्य पति के लिये साधुवैद्य ने खोदा, उस लिंगोल्यानक औषधि को हम खाते हैं।
जो सर्वज्ञ है, वही गन्धर्व है। अखनत् = खोदा= खोजा= शोधा = आविष्कार किया। वयम् = अहम्। खनामसि = खोदते हैं = खादयामसि= खादामि = खाता हूँ = सेवन करता हूँ। यह वाजीकरण औषधि खाने का मन्त्र है। इस मन्त्र को कहते हुए तदौषधि खाना चाहिये।
*लिंगपुष्टि संभोग में हुए योनिस्राव से :*
पौरुषयुक्त पुरुष को औषधि की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। ऐसे लोगों के लिये स्त्री ही औषधि है। अगर पुरुष पौरुषयुक्त है तो युवती के स्मरण-दर्शन मात्र से शेप-हर्षण होता है। पुरुष की उम्र महत्व नहीं रखती. इसलिए की 17 वाला बेकाम का और 70 वाला काम का सावित हो सकता है.
स्त्रीत्व से पुष्टांग यौवना पुरुष के लिये महावाजीकारक औषधि है। आसन व्यायाम प्राणायाम से पुरुष का स्वयमेव वाजीकरण होता है। अधिक और व्यर्थ का चिंतन और व्यभिचार पुरुष को नपुंसक कर देता है। धारणा ध्यान से मन एकाग्र होता है। स्वस्थ मन वाजीकारक है-शेप हर्षक है।
हिन्दुस्तान टाइम्स अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र के भाद्र पद कृष्ण ६ संस्करण में एक लेख था, जिसमें कहा गया था कि इस समय योरोप में २ करोड़ ६० लाख लोग १८ वर्ष की अधिक आयु के नपुंसक हैं। भारत में स्थिति और भी भयावह है. इसका कारण क्या है ?
उत्तर स्पष्ट है : मद्यपान, उत्तेजक या नशीली औषधियों का सेवन, हस्तमैथुन, कृत्रिम भोज्य पदार्थों का दैनिक उपयोग, कामुक साहित्य का पठन एवं दर्शन, नास्तिकता, असंयम एवं अनैतिकता।
*संभोग में रुद्राभिषेक :*
कामाग्नि मैथुन से बुझती है। यह मैथुन स्त्री-पुरुष के मध्य वा जीव और ईश्वर के मध्य होता है। आग बुझती है, जल से रूप तन्मात्र से रस तन्मात्र की उत्पत्ति होती है। रूप से अग्नि तथा रस से जल भूत होता है। अग्नि का पुत्र जल है। पुत्र से पिता हार जाता है। अतः जल से अग्नि बुझ जाती है। कामारिन न दहके, न जलाये, इसके लिये उपस्थ पर शीतल जल, स्त्रीरज डाला जाता है। स्त्री डिस्चार्ज होगी तब यह संभव है. स्त्री डिस्चार्ज तब होगी जब पुरुष मे पौरुष होगा.
शिश्न को पुष्ट और शान्त करने के लिये योनि के भीतर उसका स्त्री के स्खलन-अमृत से स्नान होना चाहिए. यह एक सरल साधन है जो अतएव रुद्राभिषेक सावित होता है। इससे मस्तिष्क की गर्मी शान्त होती है, चित्त का विक्षेप दूर होता है, काम ज्वाला जलाती नहीं, मन मस्तिष्क स्वस्थ रहता है।
संभोग में रुद्राभिषेक ही तो होता है। स्त्री अपने रजरस से शिश्न को नहलाती है। इससे वह शान्त हो जाता है। स्त्री का लिंग (योनि) खोखला होता है। उसमें पुरुष अपना शुक्र गिरा कर उसे साँचता है। उससे उसकी काम ज्वाला बुझ जाती है और वह शान्त चित होती है। इस प्रकार दोनों का लिंगस्नान होता है।
*वाराणसी और योनिलिंग :*
वरणा च असी च तयोः नद्योः अदूरे भवा इत्यर्थे.
वरणा और असी इन दो प्रवाहों को निकटता, संलग्नता का नाम वाराणसी है।
वरणा =स्त्रीलिंग।असी = पुरुषलिंग।
वृ + भावे ल्युट् वरण।
वरण + टाप्= वरणा वृणोति वृणाति वरति वा अनेन सा वरणा स्त्रीलिंग।
अस्(गतो असति-ते) + इन् =असि।→ असी । असति प्रविशति गृहणाति वा असी पुरुषलिंग।
जो योनि के अन्दर जाता है, उसे अपने अधिकार में लेता है तथा चमकता वा प्रकट होता है, वह है असि बर्डी सीधी नुकीली दुधारी तलवार अर्थात् पुरुष का लिंग।
असि→दीर्घ असी. यह लिंग योनि में प्रवेश होते समय दीर्घ (लम्बा) हो जाता है। अतः असी = लिंग।
इसलिंग के लिये स्त्री के जिस विशेष अंग को पुरुष चुनता है, वह है, वरणा अर्थात् योनि।
वनणा + असी→वाराणसी।
स्त्रीयोनि + पुरुषलिंग→वाराणसी।
अतः वाराणसी= संगम, मिलन, मिथुनीकरण, एकीकरण, सम्मिलन, संभोग, सहवास, संश्लेष, परिरम्भ, आधान, निषेक, संसेचन, संस्नान यह गुह्यतम क्षेत्र है। कैसे इसे समझाऊं ?
परं गुह्यतमं क्षेत्र मम वाराणसीपुरी।
सर्वेषामेव भूतानां संसारार्णवतारिणी॥
~कूर्मपुराण अध्याय (२८)
शिव जी पार्वती से कहते हैं- हे पार्वती, मेरी वाराणसी पुरी अत्यंत गोप्य है। यह सभी प्राणियों को संसारसागर से पार करने वाली मुक्तिदात्री है।
वाराणसी पुरी एक नियत स्थान है जो सभी जातकों के शरीर में समान रूप से विद्यमान है। नाक के दोनों छिद्र जिस स्थान पर नाक के भीतर मिलते हैं, वह स्थान स्वरशास्त्र में वाराणसी नाम से ख्यात है।
वाम और दक्षिण नासा मार्ग का मिलन स्थान वाराणसी पुरी संभोग काल में वरणा और असी के प्रवाह को रोकना वा उन्हें एक में मिलाकर रोके रखना वाराणसी है। केवली कुम्भक में स्थित जातक वाराणसीस्थ / मुक्त माना जाता है।
दूसरी ओर योनि एवं शिश्न का संश्लेषण भी वाराणसी में होना वा मुक्ति है। ये दोनों बातें अनुभवगम्य हैं।
वाराणसी पुरपति भज विश्वनाथम्।
वाराणसीपुरी का स्वामी है प्राण. यही प्राण विश्व सबका स्वामी है। इसका अभिवदर्धन ही श्रेयसकर है।
नाक स्वर्ग है। नाक में आर्दता रहती है, जल विद्यमान रहता है। नाक जल ग्रहण करती है, जल खाती/पीती है। अतः नाक ही काशी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो काशी है, वही वाराणसी है तथा जो वाराणसी है, वही काशी है। दोनों में हर प्रकार से अभेद है। वाराणसी वा काशी पुरी है। यह अनिर्वाच्य है।
इस पुरी का स्वामी प्राण है। यह कल्याण कारक है। इसलिये शिव है। यह शिवरूप प्राण नासिका से देह में प्रवेश करता है और शरीर की समस्त क्रियाओं का संचालन करता है। यही प्राण उपस्थ में उतरकर उसे संप्रसारित/ संकुचित करता है।