अग्नि आलोक
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दौड़ो , और अंतिम साँस तक दौड़ते रहो

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रमाशंकर सिंह 

ये भद्र महिला इतने सोने का क्या करेगी ? 

सोना यानी सच्चा सोना नहीं बल्कि अव्वल नंबर आने पर कथित सोने के मैडल जिसे आजकल भरम के लिये ही सही पर सोने की पालिश नही चढ़ायी जाती ! 

मान लिया जाता है कि सोने का मैडल दे दिया गया। 

हर सरकारी अनुदानित संस्था के अफ़सरों को पचास सौ रुपया सोने की पॉलिश का बचाने का नहीं बल्कि उस रक़म का खाना ज़रूरी हो गया है। इस सनातन बीमारी को छोड़ा जाये फिलवक्त !

अचानक ५५ साल की होने पर यह ख़्याल आ जाये कि मुझे दौड़ना है  और प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना है और वह भी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं  में तो इसे जिजीविषा और संघर्ष की नयी कहानी ही मानना पड़ेगा। 

कुछ  हफ़्तों पहले निमंत्रण मिलते ही  फ़िलीपींस में आयोजित एशियाई धावक प्रतियोगिता में पहुँच गई और छठवें स्थान पर आकर अगले एशियाई खेलों के साथ साथ राष्ट्रीय खेलों में अपना स्थान पक्का कर लिया। 

न कोई विशेष ट्रेनिंग न कोई विशेष आहार !

अपने पड़ोस के पार्क में तीन दिन की साधारण वर्जिश व दौड़ और तीन दिन नेहरू स्टेडियम के बाहर एक सवा घंटे का रियाज़। 

बस , सब चकित हैं 

और सुप्रिया जी को अपना नया ध्येय मिलने पर प्रसन्नता है ! 

दौड़ो , दौड़ते रहो और अंतिम साँस तक दौड़ते रहो। यह सर्वकालिक श्रेष्ठता की निशानी है।

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