~ जूली सचदेवा
सूरज की किरण
से भी पहले
उठकर दौड़ती, भागती
हाँफती स्त्रियाँ
कभी भूले से भी
गलतियाँ नहीं करतीं.
क्या मजाल जो
चाय, दूध का
समय ऊपर,
नीचे हो जाए
क्या मजाल जो
खाने में
नमक, मिर्च की
मात्रा बदले
क्या मजाल जो
कोई कपड़ा
बिन धुले रह जाए
क्या मजाल जो बुजुर्गों की
दवाई का प्रहर निकल जाए.
पर ऐसा नहीं कि इनसे
कभी कोई गलती
नहीं होती
अक्सर गलतियाँ
कर बैठतीं हैं
झाडू खटका सब होगा
पर बाल बनाना भूलेंगी
तुलसी पर दिया जलाएँगीं
पर खुद को जगाना भूलेंगीं
मंदिर को धूनी दे देंगीं
खुद को महकाना भूलेंगीं
धर लेंगी रूप अन्नपूर्णा का
और खुद का निवाला भूलेंगी
आँगन पर माँढन माँढेंगीं
पर मेंहदी रचाना भूलेंगीं
घर की दहलीज सँवारेंगीं
पर खुद को सजाना भूलेंगीं.
विदा होते समय
ऐसी स्त्रियाँ
लातीं हैं इन
संस्कारों को भी
पल्लू में गाँठ बाँधकर
तमाम सीखों और
सलाह के साथ
और तभी से ये खौंस लेतीं हैं
अपनी कमर में उस खजाने को
और अपने जीते जी
सौंप जातीं हैं उस गाँठ को
अपने उत्तराधिकारी
को विरासत में.
खबर नहीं कब इन
दौड़ती, भागती,हाँफती
भूलती स्त्रियों की
जिन्दगी थमेगी
पता नहीं कब इनकी ये
अनवरत दौड पूरी होगी
पर एक बात तो तय है
जिस दिन ये दौड थमी,
उस दिन थमेगी सृष्टि भी
तय है ये.
(चेतना विकास मिशन)