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नाटकों के माध्यम से सामाजिक बदलाव लाने के हामी थे सफदर हाशमी

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मुनेश त्यागी

किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबें बातें करती हैं
ज्ञान की विज्ञान की
किताबें बातें करती हैं
बदलाव की इंकलाब की

,,,,,,सफदर हाशमी

हमारे देश में अनेक कलाकार और रंगकर्मी पैदा हुए हैं मगर हमारे देश का एक प्रख्यात वामपंथी रंगकर्मी सफदर हाश्मी यानी एक प्रख्यात निर्देशक, सशक्त लेखक, युवा कवि, सशक्त पेंटर, विद्वान युवा सिद्धांतकार, मजदूरों का चहेता, हमदर्द, एक बेहतर इंसान, भारत के रंगमंच में एक विशेष स्थान रखते हैं। सफदर हाशमी 1 जनवरी 1989 को मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन की मांग को लेकर गाजियाबाद के साहिबाबाद, झंडापुर, में नुक्कड़ नाटक “हल्ला बोल” खेल रहे थे, जिन पर कांग्रेस के गुंडे मुकेश शर्मा ने अपने लोगों के साथ लोहे की भारी भारी रोड से हत्या के इरादे से उनके सिर पर जोरदार हमला किया। इस हमले में आई गंभीर चोटों के कारण 2 जनवरी 1989 को सफदर हाशमी की मौत हो गई।
12 अप्रैल 1954 को एक कम्युनिस्ट परिवार में जन्मे सफदर छोटी सी उम्र में ही साम्यवादी विश्व दृष्टि और मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से परिचित और प्रभावित हो चुके थे। सफदर ने वर्ष 1973 में जन नाट्य मंच की स्थापना की, कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया, पश्चिमी बंगाल सरकार में सूचना केंद्र में सूचना अधिकारी रहे। वर्ष 1983 में वहां से इस्तीफा देकर कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए और थोड़ी सी अवधि में ही जनम यानी जन नाट्य मंच को सांस्कृतिक आंदोलन की ऊंचाइयों पर बुलंद कर दिया।
उन्होंने नाटक यानी नुक्कड़ नाटक को सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का माध्यम माना, इसलिए वे नाटक को सभा ग्रहों से निकाल कर सड़क पर ले गए। सफदर के लिए कला लोगों के लिए बेहतर जिंदगी के लिए लड़ने का चाक था। उनका नारा था “बेहतर विचारधारा बेहतर नाटक.” उन्होंने अपनी कला को पैसा या रुतबा कमाने के लिए नहीं बल्कि समाज में वैचारिक और क्रांतिकारी बदलाव के लिए इस्तेमाल किया। सफदर हाशमी ने जनता की रोजमर्रा की जिंदगी में आने वाली समस्याओं पर नाटक लिखे और खेलें। व्यक्तिगत प्रतिभा को विकसित करने के लिए प्रोत्साहन दिया। उन्होंने कहा था “सीखने की प्रक्रिया को हमेशा जारी रखो।” सफदर फूहड और बेढंगे नाटकों के एकदम खिलाफ थे।
शोषक शासक वर्ग पहले भी और आज भी समाज में बुनियादी बदलाव लाने वालों को अपनी बात जनता तक पहुंचाने से रोक रहा है। सफदर ठीक यही काम जन जागृति के लिए नुक्कड़ नाटक के माध्यम से कर रहे थे। उनकी सामाजिक बदलाव की विचारधारा के विरोधी गुंडों द्वारा, उनकी हत्या कर दी गई। उन्होंने बोलने की आजादी पर अंकुश स्वीकार नहीं किया। जनता के दुख, पीड़ा ,उम्मीद और आकांक्षा को उठाने के लिए सीधे जनता से संवाद किया।
सफदर कहा करते थे कि एक कलाकार की रक्षा जागरुक, सचेत और चेतनाबध्द जनता ही कर सकती है, अतः जनता को सचेत जागरूक और चेतनाबध्द बनाया जाए और उसे क्रांतिकारी और बुनियादी बदलाव की चेतना, मानसिकता और सोच से लैस करना चाहिए। उनका मानना था कि जब तक इस लुटेरे समाज और राज्य की जगह किसानों मजदूरों और जनता का समाजवादी समाज और राज्य कायम नहीं हो जाता, जब तक जनता को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की समस्याओं से निजात नहीं मिल सकती। 1 जनवरी 1989 को ठीक यही काम करते हुए यानि नुक्कड़ नाटक खेलते हुए, वे आजादी के दुश्मन गुंडों के हमले का शिकार हुए और मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए नाटक करते हुए, वे हमले का शिकार हुए और 2 जनवरी 1989 को काल के गाल में समा गए और अपनी कार्यशैली से शहीदों की पांतों में शामिल हो गए।
सफदर के सहयोग से जनम के नाटकों,,,,, “मशीन”, “औरत” ,”गांव से शहर तक”, “राजा का बाजा”, “हत्यारे”, “समरथ को नहिं दोष गुसाईं” ,”अपहरण भाईचारे का”, ने पूरी राजधानी तथा देश के कई हिस्सों में धूम मचा दी। मजदूरों के लिए” हल्ला बोल” लिखा और सांप्रदायिक तत्ववादी और फूटपरस्तताकतों के खिलाफ सांप्रदायिक सद्भाव समिति का गठन किया और “अपहरण भाईचारे का” नाटक लिख कर सांप्रदायिक ताकतों के सवालों का माकूल जवाब दिया और इसका जवाब देने के लिए जनता का आह्वान किया।
सफदर हाशमी 1981 में एस एफ आई मेरठ इकाई के बुलावे पर मेरठ कॉलेज आए थे और छात्रों से बात की थी और उनकी मांगों का समर्थन किया था मेरठ कॉलेज में छात्र सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था की पढ़ना और संघर्ष करना ही छात्रों का बुनियादी नारा होना चाहिए तभी एक बेहतर समाज का निर्माण किया जा सकता है। इसके बाद उन्होंने कचहरी पुल स्थित महान क्रांतिकारी शहीद चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति के सामने “अपहरण भाईचारे का” नाटक का मंचन किया था जिसमें सैकड़ों लोगों ने भाग लिया था जिसमें उन्होंने समाज में सांप्रदायिक भाईचारा काम करने का संदेश दिया था।
सफदर ने टेलिफिल्म की स्क्रिप्ट लिखी, गीत गाए, कविता और गीत लिखे, संस्कृति रंगमंच और फिल्मों पर लेख लिखे, क्रांतिकारी कविताओं और नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया। जनता की मुक्ति के कार्यक्रम से प्रतिबद्ध होकर जनता की बेहतरी का ख्वाब देखा और काम किया। जनवादी क्रांति के लिए लिखा, पढा, गाया, संघर्षरत रहे और सदैव आंदोलनरत रहे।
आज भी उनके ख्वाब, काम और आदर्श अधूरे हैं, जनता की बेहतरी मंजिल से दूर है, जनता को अभी भी हजारों साल पुरानी गरीबी, भुखमरी, अन्याय, शोषण, बेरोजगारी, जुल्म, अत्याचार और भेदभाव से मुक्त होना है। आइए हम भी समाज को बेहतर बनाने वाले इस अभियान में शामिल हों और कहें ,,,,,
क्या जुल्मतों के दौर में भी गीत गाए जायेंगे ,
हां जुल्मतों के दौर के ही गीत गाए जायेंगे।

और इसी के साथ हम यहां उनकी एक बेहतरीन कविता को उध्दृत कर रहे हैं,,,,,,

पढ़ना लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों
अ आ इ ई को हथियार बनाकर लडना सीखो

पूछो, मजदूरी की खातिर लोग भटकते क्यों हैं
पढ़ो, तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों है
पूछो, मां बहनों पर यूं बदमाश झपटते क्यों है
पढ़ो,तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों है?

पढ़ो, लिखा है दीवारों पर मेहनतकश का नारा
पढ़ो, पोस्ट क्या कहता है वह भी दोस्त तुम्हारा
पढ़ो, अगर अंधविश्वासों से पाना है छुटकारा
पढ़ो, किताबें कहती है, सारा संसार तुम्हारा।

अ, आ, उ, ऊ को हथियार बनाकर लडना सिखों
ओ मेहनत करने वालों, पढ़ना लिखना सिखो।

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