सैयद जै़ग़म मुर्तजा
उत्तर प्रदेश में हाल ही में विधानसभा की दो और लोकसभा की एक सीट के लिए उपचुनाव हुए। मैनपुरी लोकसभा सीट और खतौली विधानसभा सीट जहां समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय लोकदल (एसपी-आरएलडी) गठबंधन के खाते में गईं, वहीं रामपुर में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उम्मीदवार को विजयी घोषित किया गया। हालांकि यह नतीजे ऊपरी तौर पर सामान्य नज़र आते हैं, लेकिन इनमें आने वाले समय की राजनीति की दिशा का एक अंदाज़ा तो होता ही है।
मसलन, मैनपुरी में समाजवादी की जीत को तक़रीबन सभी जानकार सुनिश्चित मान कर चल रहे थे। इसकी कई वजहें हैं। एक तो इस सीट पर 1996 के बाद से लगातार मुलायम परिवार का क़ब्ज़ा रहा है। दूसरे, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव इसी क्षेत्र की करहल विधानसभा सीट और नाराज़गी ख़त्म कर घर वापसी करने वाले चाचा शिवपाल सिंह यादव जसवंतनगर सीट से विधायक हैं। कुल मिलाकर मैनपुरी यादव परिवार का गढ़ है। शिवपाल यादव को अगर न मनाया जाता तब शायद डिंपल यादव की जीत थोड़ी मुश्किल हो जाती। ख़ैर, परिवार की पतोहू डिंपल यादव को 6 लाख 18 हजार 120 वोट मिले, जो कुल मतदान का लगभग 64 प्रतिशत है।
वर्ष 2019 के मुक़ाबले समाजवादी पार्टी को मैनपुरी से 10.33 फीसद वोट ज़्यादा मिले हैं। मौजूदा हालात में यह बड़ी बात है। सत्ताधारी भाजपा किसी भी क़ीमत पर मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद ख़ाली हुई इस सीट को जीतना चाहती थी। इसकी दो वजहें थीं। एक तो मुलायम सिंह यादव की विरासत पर क़ब्ज़ा करने का जो प्रयास भाजपा उनके निधन के बाद से कर रही है, उसके मज़बूती मिलती। दूसरे, मैनपुरी से भाजपा जीत जाती तो चाचा शिवपाल सिंह और भतीजे अखिलेश की पारिवारिक एकता क्षणिक साबित होती। अगर डिंपल यादव चुनाव हार जातीं, तब उसका इलज़ाम शिवपाल सिंह यादव के सिर आना तय था।
बहरहाल, ऐसा नहीं हुआ।
वहीं खतौली विधानसभा सीट पर आरएलडी के मदन भैया की जीत भाजपा के लिए बड़ा झटका है। 2007 के बाद आरएलडी की इस सीट पर वापसी हुई है। 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद से ही खतौली भाजपा का गढ़ मानी जाने लगी थी। इस बार आरएलडी ने बाहुबली नेता और ग़ाज़ियाबाद की लोनी सीट से विधायक रहे मदन भैया को चुनाव में उतारा था। आरएलडी की जीत के कई कारण हैं। 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में इस सीट पर बसपा से करतार सिंह भड़ाना उम्मीदवार थे। उनको 31 हज़ार से ज़्यादा वोट मिले थे और वो आरएलडी की हार का मुख्य कारण थे। उपचुनाव में बसपा का उम्मीदवार न होने से मुसलमान, दलित, गुर्ज़र, और जाट वोटों का ध्रुवीकरण मदन भैया की तरफ हुआ।
आज़ाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर रावण के समर्थन और सैनी छोड़कर बाक़ी पिछड़ी जातियों की गोलबंदी भाजपा उम्मीदवार राजकुमारी सैनी को भारी पड़ी। कुल मिलाकर खतौली में भाजपा विरोधी वोटों में उस तरह बंटवारा नहीं हुआ, जिस तरह इस सीट पर 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में हुआ था। मदन भैया की बाहुबली छवि और गुर्जरों के समर्थन का फायदा भी आरएलडी के मिला। उम्मीदवार अगर कमज़ोर होता तो शायद जीत आसान न होती।
वजह यह कि प्रशासन जिस तरह सत्ता पक्ष के दबाव में था, उसको देखते हुए तो जीतना बेहद ही मुश्किल था। मगर रामपुर में आज़म ख़ान के होते हुए भी समाजवादी पार्टी की हार लोगों को हज़म नहीं हो रही। इसे लेकर लोग तरह तरह की बातें बना रहे हैं। समाजवादी पार्टी उम्मीदवार आसिम राजा के मुताबिक़ प्रशासन ने वही सब किया जो लोकसभा उपचुनाव में उनको हराने के लिए किया था। आज़म खां का आरोप है कि प्रशासन ने समाजवादी पार्टी के वोटरों और कार्यकर्ताओं को बूथ तक जाने ही नहीं दिया।
रामपुर में समाजवादी पार्टी की हार की इसके अलावा और भी कई वजहें हैं। भाजपा को नवाब परिवार के काज़िम अली ख़ां का समर्थन मिला। उनके समर्थन वाले जो भी थोड़े बहुत वोट शहर में बचे हैं, वही भाजपा को चले गए। हालांकि कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया, लेकिन उन्होंने काम भर का नुक़सान तो कर ही दिया। आज़म ख़ां के ज़्यादातर समर्थकों ने मुक़दमों के डर से या तो उनसे दूरी बना ली या फिर भाजपा में शामिल हो गए। इनमें उनके मीडिया प्रभारी रहे और तब तक तड़ीपार चल रहे फसाहत अली ख़ां उर्फ शानू शामिल हैं। हालांकि समाजवादी पार्टी के कई समर्थकों का आरोप यह भी है कि ख़ुद आज़म खां ने कमज़ोर उम्मीदवार उतारा और भाजपा के उत्पीड़न से बचने के लिए उसे हार जाने दिया।
रामपुर जीतकर भाजपा अपने समर्थकों को संदेश देना चाहती थी कि वह मुसलमानों में जितने प्रभावशाली नेता हैं, सबको ठिकाने लगा देगी और वह इसमें कामयाब रही। इससे भाजपा के कोर वोटर का आगे भी ध्रुवीकरण होगा और उत्तर प्रदेश के मुसलमान मतदाताओं को मनोबल तोड़ने में भी मदद मिलेगी।
संदेश साफ है कि मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व या फिर कोई मज़बूत नेता स्वीकार्य नहीं है। हालांकि इस हार का असर सिर्फ मुसलमान मतदाताओं पर नहीं, बल्कि प्रदेश में उनकी पहली पसंद रही समाजवादी पार्टी पर भी पड़ेगा। आम मुसलमानों का मानना है कि समाजवादी पार्टी-आरएलडी गठबंधन ने जिस तरह खतौली और मैनपुरी में प्रशासन की सख़्ती का मुक़ाबला किया, उस तरह रामपुर में नहीं किया।
आम मुसलमान की राय यही है कि रामपुर में जिस तरह आज़म खां को मुक़दमें झेलने और प्रशासनिक उत्पीड़न झेलने के लिए अकेला छोड़ दिया गया था, उसी तरह पार्टी ने इस चुनाव में भी किया। रामपुर में समाजवादी पार्टी ने बिना लड़े ही हार मान ली। अगर पार्टी अपने मतदाताओं के साथ खड़ी होती और मज़बूत उम्मीदवार उतारा होता, जिसकी छवि दरबारी से थोड़ा बेहतर होती, तब शायद रामपुर के नतीजे और ही होते।
यह उपचुनाव भाजपा और समाजवादी पार्टी दोनों में से शायद किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं हैं। भाजपा को उपचुनाव में अपने ओबीसी वोटर खिसकने की चिंता होनी ही चाहिए। इधर रामपुर की हार के बाद आने वाले समय में मुसलमान वोटरों को संभाले रखना समाजवादी पार्टी के लिए भी अब आसान नहीं होगा।