सुधा सिंह
_सेक्स एकमात्र क्रिएटिव पॉवर है। आधारभूत/मूलभूत ऊर्ज़ा यही है। शक्ति के, ऊर्ज़ा के तमाम स्वरूपों का स्रोत यही है।_
पति-पत्नी {प्रेमी-प्रेमिका} के सम्बन्ध में मूलभूत ऊर्ज़ा का रचनात्मक उपयोग कैसे किया जाये?
शायद ही कोई इंसान ऐसा होगा, जिसके लिए इस तरह का प्रश्न उपयोगी न हो, सार्थक न हो।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे लोग हैं, जो सेक्स की,
काम की शक्ति से पीड़ित हैं।
और एक वे लोग हैं, जिन्होंने काम की शक्ति को प्रेम की शक्ति में परिणत कर लिया है।
आप जान कर हैरान होंगे :
प्रेम और सतही सेक्स विरोधी चीजें हैं। जितना प्रेम विकसित होता है, उतना वासनात्मक सेक्स क्षीण हो जाता है। जितना प्रेम कम होता है, उतना ही अपाहिज सेक्स का दुहराव ज्यादा होता है।
जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना ही उसमें से मक्खी-मच्छर वाला सेक्स विलीन हो जाएगा। रहेगा केवल दीर्घगामी ऑर्गस्मिक सेक्स। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जायेंगे, आपके भीतर हवसी सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी। अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब ऐसा ही सेक्स रहने वाला है।
सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है। इसलिए अगर सेक्स से मुक्त होना है, तो सेक्स को दबाने से कुछ भी न होगा। उसे दबा कर कोई पागल भी हो सकता है।
दुनिया में 90% पागलों की संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने या विकृत करने की कोशिश की है।
_यह भी शायद आपको पता होगा कि सभ्यता जितनी विकसित होती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं, क्योंकि सभ्यता सबसे ज्यादा दमन सेक्स का करवाती है। सभ्यता सबसे ज्यादा दमन, सप्रेशन सेक्स का करवाती है! इसलिए हर आदमी अपने सेक्स को दबाता है, सिकोड़ता है। अप्राकृतिक सेक्स, हैंडप्रैक्टिस कर इंसान किसी अर्थ का नहीं रह जाता, इसलिये भी स्वस्थ सेक्स से बचा जाता है।_
वह दबा हुआक्स विक्षिप्तता पैदा करता है, अनेक बीमारियाँ पैदा करता है, अनेक मानसिक रोग पैदा करता है। सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है, वह पागलपन है।
ढेरों साधु पागल होते पाए जाते हैं। उसका कोई कारण नहीं है सिवाय इसके कि वे सेक्स को दबाने में लगे हुए हैं। उनको पता नहीं है, सेक्स को दबाया नहीं जाता। प्रेम के द्वार खोलें, तो जो शक्ति सेक्स के मार्ग से बहती थी, वह प्रेम के प्रकाश में परिणत हो जाएगी।
जो सेक्स की लपटें मालूम होती थीं, वे प्रेम का प्रकाश बन जायेंगी। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है। जीवन को प्रेम से भरें।
_आप कहेंगे, हम सब प्रेम करते हैं। मैं आपसे कहूँ, आप शायद ही प्रेम करते हों; आप प्रेम चाहते होंगे। और इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है।_
प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। हममें से अधिक लोग बच्चे ही रह कर मर जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है।
छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। माँ उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं।
अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। जो भी प्रेम चाहता है, वह दुःख झेलता है।
प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। जिससे चाह रहे हो, वह भी आपसे चाहेगा। बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जायेंगे और भीख माँगेंगे।
दुनिया में जितना पति-पत्नियों का सङ्घर्ष है, उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है। इसे थोड़ा विचार कर के देखना आप अपने मन के भीतर।
आपकी आकांक्षा प्रेम चाहने की है हमेशा।
आप चाहते हैं, कोई प्रेम करे। जब कोई प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है। लेकिन आपको पता नहीं है, वह दूसरा भी प्रेम करना केवल वैसे ही है जैसे कि कोई मछलियों को मारने वाला आटा फेंकता है। आटा वह मछलियों के लिए नहीं फेंक रहा है। आटा वह मछलियों को फाँसने के लिए फेंक रहा है। वह आटा मछलियों को दे नहीं रहा है, वह मछलियों को चाहता है, इसलिए आटा फेंक रहा है।
इस दुनिया में जितने लोग प्रेम करते हुए दिखायी पड़ते हैं, वे केवल प्रेम पाना चाहने के लिए आटा फेंक रहे हैं। थोड़ी देर वे आटा खिलायेंगे, फिर…। और दूसरा व्यक्ति भी जो उनमें उत्सुक होगा, वह इसलिए उत्सुक होगा कि शायद इस आदमी से प्रेम मिलेगा। वह भी थोड़ा प्रेम का पाखण्ड प्रदर्शित करेगा। थोड़ी देर बाद पता चलेगा, वे दोनों भिखमंगे हैं और भूल में थे; एक-दूसरे को बादशाह समझ रहे थे!
.जब उनको पता चलेगा कि कोई किसी को प्रेम नहीं दे रहा है। तब सङ्घर्ष की शुरुआत हो जायेगी। दुनिया में दाम्पत्य जीवन नर्क बना हुआ है, क्योंकि हम सब प्रेम माँगते हैं, देना कोई भी जानता नहीं है। सारे झगड़े के पीछे बुनियादी कारण इतना ही है।
कितना ही परिवर्तन हो, किसी तरह के विवाह हों, किसी तरह की समाज व्यवस्था बने, जब तक समग्र प्रेम और परम तृप्तिदायी सम-भोग परवान नहीं चढ़ेगा; तब तक तो दुनिया में स्त्री और पुरुषों के सम्बन्ध अच्छे नहीं हो सकते।
प्रेम दिया जाता है, प्रेम माँगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया।
अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और माँगना बन्द कर दें, तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। जितना वे प्रेम देंगे और माँगना बन्द कर देंगे, उतना ही—अदभुत व्यवस्था है—उन्हें प्रेम मिलेगा। उतना ही वे अदभुत अनुभव करेंगे— लेकिन इसके लिए दोनों का समान स्तर जरूरी है : भावना-संवेदना-चेतना के तल पर। वर्ना वे एक-दूसरे को समझ ही नहीं सकेंगे, तृप्त करना और जीना तो दूर की बात है।
जब तक मिक्सअप सिर्फ शरीर के तल पर है, जब तक संभोग गहन अनुभूति नही देता तब तक वह साथी का शोषण है। यानी ये सेक्स यौन शोषण है!
सेक्स एक व्यक्ति का, एक जीवित व्यक्ति का अत्यन्त गर्हित उपयोग है। अगर हम किसी से प्रेम करते हैं, तो हम उसके साथ अपाहिज सेक्स का ऐसा उपयोग कैसे कर सकते हैं ?
सेक्स बड़ी अदभुत शक्ति है। इस जमीन पर सेक्स से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। मनुष्य जिस चीज से क्रियमाण होता है, मनुष्य के जीवन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा जिस चक्र पर घूमता है, वह सेक्स है; परमानंद है। लेकिन अपाहिज सेक्स परमात्मा नहीं है, विकृति है, शोषण है, बलात्कार है और रोगों का घर है।
वे लोग तो बहुत ही कम हैं,
जिनका जीवन प्रेमपूर्ण गहन सेक्स यानी गॉड की परिधि पर घूमता है। अधिकतर लोग छिछले सेक्स के केंद्र पर घूमते और कीडे-मकोडो की तरह जीवित रहते हैं।
सेक्स सबसे बड़ी शक्ति है। अगर हम ठीक से समझें, तो मनुष्य के भीतर सेक्स के अतिरिक्त और शक्ति नहीँ है, जो उसे गतिमान करती है, परिचालित करती है। इस सेक्स की शक्ति को ही प्रेम में परिवर्तित किया जा सकता है। यही शक्ति परिवर्तित हो कर परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग बन जाती है। इसलिए यह स्मरणीय है कि धर्म का बहुत गहरा सम्बन्ध सेक्स से है। लेकिन सेक्स के दमन से नहीं —जैसा समझा जाता है—सेक्स के सब्लिमेशन से है।
सेक्स के दमन से धर्म का सम्बन्ध नहीं है। ब्रह्मचर्य सेक्स का विरोध नहीं है, ब्रह्मचर्य सेक्स की शक्ति का उदात्तीकरण है। सेक्स की ही शक्ति ब्रह्म की शक्ति में परिवर्तित हो जाती है।
वही शक्ति, जो शीघ्रपतन से नीचे की तरफ बहती थी, अधोगामी बनाती थी : प्रेमपूर्ण गहन संगम में ऊपर की तरफ गतिमान हो जाती है। सेक्स ऊर्ध्वगामी हो जाए, तो परमात्मा तक पहुँचाने वाला बन जाता है। सेक्स अधोगामी हो, तो सँसार सागर में डुबोने का कारण बनता है। अपवाद को छोड़ दें तो हमारे संबद्ध रहस्यदर्शी सभी ऋषि-मुनि; भगवान स्वीकारे गए लोग भी सेक्स के प्रयोग में उतरे– जबकि उनके लिए ‘ध्यान’ विकल्प था परमानंद का, मोक्ष का।
ध्यान बनाता है प्रेमपात्र। मेडिसिन नहीं, मेडिटेशन से मिलती है सशक्त/गहन संभोग की क्षमता। हमारे किसी शिविर में कपल्स योग्यता- क्षमता विकास की ये टेक्निक, हमारे मुख्य अधिष्ठाता डॉ. मानवश्री से सीख सकते हैं। हम कोई शुल्क नहीं लेते।
{चेतना विकास मिशन}