नई दिल्ली। आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दूसरा पत्र भी यरवदा जेल से ही लिखा। यह पत्र 10 नवंबर, 1975 को लिखा गया। पहला पत्र लिखे जाने के करीब ढाई महीने बाद। इस पत्र का भी पहला वाक्य सत्ता की चरण वंदना से शुरू होता है। उन्होंने लिखा कि “उच्चतम न्यायालय के पाँचों न्यायाधीशों ने आपका चुनाव वैध ठहराया, इसके लिये आपका हार्दिक अभिनन्दन”।
देवरस ने इस पत्र में 22.08.1975 को लिखे गए अपने पहले पत्र का हवाला दिया। लेकिन इस बीच इंदिरा गांधी द्वारा संसद में दिए गए अपने भाषण में आरएसएस के खिलाफ कई संगीन आरोप लगाए थे। जिसमें सांप्रदायिकता फैलाने से लेकर दंगा-फसाद कराने तक की बातें शामिल थीं। इस मामले में उन्होंने संघ के पूर्व सरसंघचालक गुरु गोलवलकर का हवाला दिया था। और वह भी उनकी किताबों ‘अवर नेशनहुड डिफाइंड’ और ‘बंच ऑफ थाट्स’ को कोट किया था। इस पर उन्होंने कहा कि “आपके भाषण में और इन पुस्तिकाओं में संघ के सम्बन्ध में गलतफहमियों पर आधारित अनेक विधान किये हैं। वे निश्चय ही गलत हैं”।
दिलचस्प बात यह है कि इन किताबों में गोलवलकर ने सीधे तौर पर मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया है। और इनके खिलाफ सतत लड़ाई की बात की है। लेकिन इस मसले को देवरस जी एक दूसरा ही मोड़ दे देते हैं। वह न केवल गोलवलकर को महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के बराबर खड़े कर देते हैं बल्कि यह बताने की कोशिश करते हैं कि उनके उद्धरणों को संदर्भ से अलग करके पेश किया जाता है।
उन्होंने पत्र में लिखा कि “उनमें (इंदिरा गांधी के भाषण में) संघ के भूतपूर्व सरसंघचालक के० प० पू० गोलवलकरजी के ‘अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ और ‘वञ्च आफ याट्स’ इन पुस्तकों में से कुछ वाक्य उद्धृत किये हैं। महात्मा गांधी एवं पंडित जवाहरलाल नेहरू जी के समान ही कै० पू० गोलवलकरजी एक श्रेष्ठ विचारक ये। संघ के प्रत्यक्ष विचारों के अलावा अन्य विषयों के सम्बन्ध में भी उनका बोलना एवं लिखना स्वाभाविक ही था। उनके वे विचार बिना संदर्भ के समझे नहीं जा सकते”।
इस दुश्मन होने के सैद्धांतिक सूत्रीकरण को भी वह किसी मौके पर महात्मा गांधी द्वारा हिंदुओं-मुसलमानों के रिश्ते को लेकर कुछ कहे जाने या फिर उसे नेहरू द्वारा की गयी मुस्लिम लीग की आलोचना के बराबर रखने का प्रयास करते हैं।
पत्र के अगले भाग में वह कहते हैं कि “महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि ‘मुस्लिम इज ए बुली एण्ड हिन्दू इज ए कावर्ड’। पंडित जवाहरलाल नेहरूजी ने अधिकांश मुसलमान भाइयों का समर्थन पाने वाली मुस्लिम लीग की आलोचना की थी। इस प्रकार कहना या इस प्रकार की आलोचना यह किसी एक वृत्ति की आलोचना करने जैसा है”।
उससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि महात्मा गांधी की हत्या के मामले में आरएसएस से जुड़े सरदार पटेल के बयान को इंदिरा गांधी ने अपने भाषण में कोट कर दिया था। फिर क्या था जैसे देवरस को किसी ने आईना दिखा दिया हो। लेकिन उन्होंने पत्र में पटेल को इस तरह से पेश किया जैसे व्यक्तिगत तौर पर वह सहमत नहीं थे लेकिन सरकारी मजबूरियों के चलते उन्होंने ऐसा करना पड़ा। पटेल जैसी शख्सियत को इस तरह से पेश करना न केवल उनके कद को छोटा करता है बल्कि ऐसा कहने वाले शख्स को भी सवालों के घेरे में खड़ा कर देता है। लेकिन संघ और उसके नेताओं को भला इससे क्या फर्क पड़ने वाला।
वो तो दोहरे जीवन के आदी हो गए हैं। और फिर वह पटेल के एक ऐसे पत्र का हवाला देते हैं जिसको आज तक किसी ने नहीं देखा और न ही कभी वह सार्वजनिक तौर पर सामने आया। और उस कपोल कल्पित पत्र के जरिये संघ को महात्मा गांधी की हत्या के मामले से बरी कर लेते हैं। पत्र में उन्होंने लिखा कि “म० गांधी की हत्या के संदर्भ में आपने सरदार पटेलजी के एक पत्र का उल्लेख किया है। श्री पटेल गृहमंत्री थे और सरकारी नीति का समर्थन करने के लिये उनका वैसा पत्र लिखना स्वाभाविक था। किन्तु उनके पत्रों की प्रकाशित पुस्तक में प्रधानमंत्री को लिखा एक पत्र भी है। जिसमें म० गांधीजी की हत्या से संघ का कुछ भी सम्बन्ध न होने का विश्वास उन्होंने प्रकट किया है। वह पत्र आपकी जानकारी में शायद नहीं आया है”।
यह बात किसी से छुपी नहीं है बल्कि इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है कि किस तरह से मुसोलिनी और हिटलर के काम का अध्ययन करने के लिए हेडगेवार ने अपने मित्र बीएस मुंजे को इटली भेजा था। और मुंजे ने न केवल मुसोलिनी से मुलाकात की थी बल्कि उनके संगठन के निर्माण और कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण का जानकारी लेने के लिए तमाम स्थानों का दौरा तक किया था। अनायास नहीं गोलवलकर हिटलर और मुसोलिनी को अपने आदर्श के तौर पर पेश करते हैं।
लेकिन देवरस अपने पत्र में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए फासिज्म के आरोप से संगठन को बरी करते हैं। उन्होंने पत्र में लिखा है कि “संघ को आपने फासिस्ट कहा है और फासिज्म माने झूठ का प्रचार ऐसा भी कहा है। अफवाह फैलाने इत्यादि बातें करने का जो आरोप आपने संघ पर लगाया है, वह पूर्णतः निराधार है। अखबारों पर सेन्सरशिप लागू करने के बाद समाज में अनेक अफवाहें फैलती हैं, इस बात की दुनिया भर में मिसालें हैं। अतः अफवाह फैलाने का आरोप संघ पर लगाना अनुचित है”।
संघ और अफवाह का चोली-दामन का साथ है। और यह बात कितनी बार देखी जा चुकी है। संघ अफवाह फैलाने के मामले में पारंगत है। लेकिन ऊपर देवरस खंडन करते हुए दिखते हैं।
अगली कड़ी में वह संघ को फासिज्म और उसकी विचारधारा से अलग करते हुए दिखते हैं। लेकिन आगे फासिज्म का वह जो लक्षण बताते हैं वह संघ पर बिल्कुल फिट बैठता है। जिसमें किसी भी तरीके से सत्ता हासिल करना और विरोधियों का दमन उसके बुनियादी कार्यभार में शामिल होते हैं। वह लिखते हैं, “फासिज्म का सम्बन्ध विचारधारा के साथ-साथ कार्यपद्धति से भी होता है। इन दोनों दृष्टियों से संघ का फासिज्म से सम्बन्ध नहीं आता।
इटली के फासिस्ट एवं जर्मनी के नाज़ी, दोनों अपने को “नेशनल सोशलिस्ट” कहते थे। संघ की विचारधारा प्रधानतः हिन्दुओं की आध्यात्मिक परम्परा पर आधारित है। कार्यप्रणाली की दृष्टि से फासिस्ट वे ही होते हैं जो अपने को एकदाय न होने वालों पर जुल्म करते हैं। जो सत्ता प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं। जो सत्ता प्राप्ति के बाद विरोधियों का बलपूर्वक दमन करते हैं। संघ तो सत्ता की राजनीति से मूलभूतरूप से दूर रहा है। संघ में लोग केवल ध्येय से अनुप्राणित होकर और स्वेच्छा से ही आकृष्ट होते हैं। ऐसी स्थिति में संघ को फासिस्ट कहना सर्वथा अनुचित है”।
हद तो तब हो गयी जब उन्होंने जेपी के आंदोलन से ही खुद को अलग कर लिया। और कहा कि इस आंदोलन से संघ का कोई रिश्ता नहीं है, “श्री जयप्रकाश नारायणजी के आन्दोलन के संदर्भ में संघ का नाम लिया गया है। गुजरात आन्दोलन, विहार आन्दोलन, जिनके सम्बन्ध में सरकार की ओर से संघ का नाम बार-बार और बिना कारण जोड़ा गया, अतः मेरा उसके बारे में कुछ कहना क्रम प्राप्त था। इन आन्दोलनों से संघ का कुछ भी सम्बन्ध नहीं।”
और आखिर में संघ के कार्यकर्ताओं को वह रिहा करने की अपील करते हैं। साथ ही यह भी कहना नहीं भूलते कि बाहर निकल कर वो सरकारी और गैर सरकारी सभी कामों में सरकार की मदद करेंगे। उन्होंने लिखा कि “अतएव मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप प्रत्यक्ष वस्तुस्थिति को जानें, दूषित पूर्वाग्रह छोड़ें, संघ के सम्बन्ध में उचित धारणा बनायें, स्थानबद्ध किए हुए संघ के हजारों लोगों को मुक्त करें और संघ पर लगे निबंधों को दूर करें। ऐसा करने से संघ के लाखों स्वयंसेवकों की निस्वार्थभाव से कार्य करने की शक्ति सरकारी एवं गैर-सरकारी राष्ट्रोद्धारक कामों में लगेगी और हम सबकी इच्छा के अनुसार अपना देश समृद्ध होगा”।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)