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संघ की कोशिश तमाम धर्मनिरपेक्ष नेताओं को ‘अपना’ बनाने की

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जगदीश्वर चतुर्वेदी

संघ का नया नारा है ‘क्लिक करो और गप करो.’ यह मूलतः इमेज अपहरण और असभ्यता का नारा है. कैमरा इसकी धुरी है. इसके तहत धर्मनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्ष नेताओं को हड़पने के सघन प्रयास हो रहे हैं. संघवालों की मुश्किल यह है कि वे धर्मनिरपेक्षता पर हमला करते-करते थक गए हैं ! मुसलमानों पर हमले करते-करते थक गए हैं ! अब वे उन क्षेत्रों में प्रवेश कर रहे हैं जहां से उनके खिलाफ वैचारिक प्रतिवाद आता रहा है. वे उन तमाम धर्मनिरपेक्ष नेताओं को ‘अपना’ बनाने में लगे हैं, जिनके नजरिए और आचरण से उनका तीन-तेरह का रिश्ताहै.

संघ की ‘क्लिक करो और गप करो’ मुहिम में सीखने-सिखाने, मूल्यांकन, विचार-विमर्श का कोई काम नहीं हो रहा, सिर्फ मीडिया इवेंट बनाने, मूर्तियां लगाने, शिलान्यास करने और मीडिया बाइट्स देने पर जोर है. उनके अनुसार ‘क्लिक करो और गप करो’ मुहिम का लक्ष्य है कैमरे में धर्मनिरपेक्ष नेताओं के साथ अपनी इमेज को प्रचारित-प्रसारित करना. हेकड़ी के साथ सीना ताने असभ्यों की तरह अपने को धर्मनिरपेक्ष नेताओं की इमेज के साथ पेश करो.

संघ वाले तर्क दे रहे हैं गांधी-पटेल-नेहरु किसी दल के नहीं हैं. वे तो देश के हैं, फलतः वे उनके भी हैं ! विवेकानंद-भगत सिंह किसी एक विचारधारा के नहीं हैं, वे तो सबके हैं. फलतः वे उनके असली बारिस हैं. इस तरह का बेहूदा तर्कशास्त्र कॉमनसेंस के फ्रेमवर्क में रखकर खूब परोसा जा रहा है. मध्यवर्ग का एक अशिक्षित हिस्सा है, जो उनके इस तरह के कॉमनसेंस तर्कों को खूब पसंद कर रहा है. अ-राजनीतिक युवा इन सब हरकतों पर तालियां बजा रहा है, मीडिया भी इन सब चीजों को खूब उछाल रहा है.

‘क्लिक करो और गप करो’ अभियान के जरिए संघ वाले अपनी असभ्यता को सभ्य बनाने, गप्पबाजी को शास्त्र बनाने में मशगूल हैं. उनके भक्त युवागण भी फेसबुक पर विचार-विमर्श नहीं करते. वे तो बस ‘कहते हैं’, मानना है तो मानो वरना वे फिर भारतीय असभ्यता का जोशीले भाव से प्रदर्शन करने लगते हैं. ज्ञान-शून्यता और राजनीति-शून्यता को इससे विस्तार मिला है. जो राजनीति का ककहरा नहीं जानता वह भी अपने को चाणक्य समझता है. मूर्खता का इस तरह का तूफान भारतीय मीडिया से लेकर फेसबुक तक पहले कभी नहीं देखा गया.

‘क्लिक करो और गप करो’ का नारा मूलतः देशी हास्य पैदा कर रहा है. तर्कहीनता को तर्क के रुप में पेश करना, बिना सोचे-समझे बक -बक करना, अपने को सच्चा और अन्य को झूठा कहना, फेसबुक से लेकर मीडिया तक दबाव की राजनीति से लेकर आत्म-सेंसरशिप का इस्तेमाल करना इसकी विशेषताएं हैं. लोकतंत्र के लिए यह स्थिति सुखद नहीं त्रासद है. लोकतंत्र फले-फूले इसके लिए जरुरी है कि हम कम्युनिकेशन में इमेजों की बजाय ठोस सभ्यता विमर्श का विकास करें, इमेजों में जीने की बजाय यथार्थ के सवालों पर बहस करें.

संघ की नयी विशेषता है कि वह युवाओं के ज्वलंत सवालों और समस्याओं पर सीधे बात ही नहीं कर रहा है. वह इमेज युद्ध में युवाओं को व्यस्त किए हुए है. इमेजयुद्ध बोगस होता है. यह सभ्यता के विमर्शों से विमुख बनाता है. पशुवत क्रियाओं में मनुष्य को ठेल देता है और पशुवत क्रियाओं को ही हम संस्कृति-सभ्यता समझने लगते हैं.

वैचारिक घेटो से निकलो

मौजूदा दौर लोकतंत्र के पतन का दौर है, इसे किसी रूप में महान युग समझने की भूल न करें. इस दौर का श्रीगणेश कांग्रेस के शासन में हुआ और मोदी शासन ने इसे चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया. लोकतांत्रिक विचार, आचरण, संवैधानिक मान्यताओं और परंपराओं पर प्रतिदिन हमले हो रहे हैं. लोकतंत्र लहुलुहान पड़ा है. सामाजिक विकास की प्रक्रिया को कैद नहीं कर सकते. मोदीपंथी चुनाव जीत सकते हैं, हत्याएं कर सकते हैं, मीडिया से लेकर मुहल्लों तक दहशत फैला सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया को कैद नहीं कर सकते. यह प्रक्रिया सत्ता के नियंत्रण के बाहर है और अपनी निजी गति से काम कर रही है.

लोकतंत्र में नेता इतिहास नहीं रचते, एप इतिहास नहीं रचते, जनता इतिहास रचती है. यह वह जनता है जो सभी किस्म की कैद में रखने की प्रक्रिया से स्वतंत्र और स्वायत्त है. जिसके भय से सरकारें कांपती हैं. मोदी की भी इसने नींद हराम की हुई है, आरएसएस वालों के होश उडाए हुए हैं. मोदी की त्रासदी है कि उनका जनता पर नहीं वर्चुअल एप में विश्वास है.

लोकतंत्र में राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ लोकतंत्र की सीमाओं का अतिक्रमण भी जरूरी है. लोकतंत्र हमेशा सीमाएं तोड़कर मिलता है. लोकतंत्र में वैचारिक घेटो सबसे बड़ी चुनौती है. इसका दायरा बहुत व्यापक है. इस तरह के घेटो विभिन्न दलों में हैं. लोकतंत्र को बचाना है तो वैचारिक घेटो से निकलने की कोशिश करो.

‘भाईयों’ का लोकतंत्र

दलालों की भाषा एक होती है, उनकी कर्म संस्कृति भी एक जैसी होती है. उसमें थोड़ा भाषिक अंतर होता है. दलाल बनाना और दलाल पालना हुनरमंदों के वश का काम नहीं है ! यह काम तो सिर्फ ‘बड़ा भाई’ (कारपोरेट घराने) ही कर सकता है ! दलाल को तो बस ‘बड़ा भाई’ ही संभाल सकता है ! ‘भाई’ यदि खुद दलाल हो तो फिर तो कहने ही क्या जी ! यह तो सोने में सुहागा हो गया !

कश्मीर के एक पृथकतावादी नेता ने कल बड़ी ही गरमजोशी के साथ भगवारत्न से 7 नम्बर में भेंट की. भेंट के बाद घर से बाहर निकलकर मीडिया से कहा कि वे तो मुझे ‘भाई जैसे लगे’, जाहिर है, ‘भाई’ को तो ‘भाई’ ही पहचानेगा ! कश्मीरी पृथकतावादी यदि किसी भगवा नेता को ‘भाई’ कहे तो यह राजनीतिक तौर पर करेक्ट बयान है ! इस बयान को हमें राजनीति विज्ञान की सही स्प्रिट में ही लेना चाहिए !

मजेदार बात यह है कि ऩए स्वच्छता अभियान के दौर में ‘स्वच्छता के आदर्शनायक’ (साम्प्रदायिक, पृथकतावादी और वैदिकजी) एक-दूसरे देश से ‘भाई’ की तरह मिल रहे हैं. स्वच्छ राजनीति का यह आदर्श है ! इस बार कश्मीर में ‘भगवा वैदिक’ की पाक में ‘भाई’ से हुई मुलाकात के फल मिलने की संभावनाएं हैं ! कश्मीर से सीधे दिल्ली आकर ‘भाई’ से ‘भाई’ मिल रहा है ! पाक में भारत का ‘भाई’ जाकर ‘भाई’ से मिल रहा है ! ‘भाईयों’ यह मिलन विरल है !

यह विरल संयोग लोकतंत्र ने उपलब्ध कराया है. ‘भाई’ से ‘भाई’ मिल रहा है ! ये मिलकर जनता के लोकतंत्र की बजाय ‘भाईयों का लोकतंत्र’ रच रहे हैं. दिलचस्प बात यह है ‘भगवा भाई’, पाक के ‘भाई’ और ‘कश्मीरी पृथकतावादी भाई’ के स्पांसर, आर्थिक मददगार या मालिक एक ही वर्ग के लोग हैं. इन तीनों ‘भाईयों’ के पास देशी कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय निगमों की दलाली करके खाने के अलावा कोई और काम नहीं है. इनकी आंखों का तारा (सामाजिक विभाजन) एक है ! इनकी वैचारिक शैली एक है.

‘भाईयों’ का ऐसा सुखद मिलन इधर बार-बार हो रहा है. ‘भाई’ मिलते हैं तो ‘भाईचारा’ खूब फलता-फूलता है, लोकतंत्र का ये खूब चर्वण करते हैं ! लोकतंत्र को खाने में ‘भाईयों’ को मजा आता है. ‘भाईयों के लोकतंत्र’ का अगला पड़ाव कश्मीर है ! ‘भाईयों’ की समूची फौज इस बार ‘भगवा भाई’ के साथ जाने की जुगत में है ! यह ‘भाईयों’ का विरल प्रयोग है, जो ‘भगवा भाई’ संपन्न करने जा रहा है.

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