डॉ. विकास मानव
“पद्मा और गुर्रब्रह्मा का पोस्टमार्टम” : गत दिवस मेरी यह सत्यकथा आपने पढ़ी. अपना गृह त्याग कर जिसके पास पद्मा गई, उसको ईश्वर मानकर समर्पित हो गई. सेवा-मेवा सब इससे वो लेता रहा. ये खुद को “ईश्वर की होना” समझकर धन्य मानती रही.
मेरे ऋषिकेश भ्रमण के दौरान मुझ से टकराई. संवाद हुआ. बंद आँख खुली. वहां वापस नहीं लौटने, मेरी होने की ज़िद की.
मैंने क्या शर्त रखी? क्यों इसे इसके घर भेजा? यह सब आप पढ़ चुके हो.
“कैसे की जा सकती गुरूत्व-युक्त गुरू की स्तुति? कई दिनों वाद पद्मा ने पूछा. मैं उसे जो लिखा हूँ, अब वो पढ़िए :
गुरु और ईश्वर की स्तुति के लिए हृदय में वो गहराई पैदा करनी होती है पद्मा, जहां से हृदय स्रावित होता है।
हृदय की उस गहराई से वो आवाज पैदा करनी होती है जो आसमान तक जाती है। हृदय तो सबके पास है बस उसमें वो गहराई नहीं है।
केला, बर्फी चढ़ाने से ईश्वर नहीं सुनने वाला है। खूब खड़े रहो एक टांग पर, कोई ध्यान, योग काम नहीं आता है। सारी उम्र निकल गई मंत्र करते कुछ मिला तुम्हे।
अब जिसे गुरू योग्य पाई हो अपने शब्दों से उसका का अर्चन करो। अपने श्रम से जो पैदा हुआ है उससे श्रृंगार होता है, वही फलीभूत होता है। पता तो चले तुम्हारी और तुम्हारे गुरु की औकात कितनी है. बस ढपली बजाती रहती हो तुमलोग, तोतारटंट बनकर.
गुरुर्व्रह्मा…. तुम्हारे शब्द नहीं. आदि शंकर के जाने के बाद एक भी शब्द किसी ने पैदा किया है ? इसे मैं पाखंड न कहूँ तो क्या कहूँ?
गुरु के प्रति श्रद्धा रखो. पर कहाँ कहां से? हृदय का तो पहले ही होम कर दिया है। पहले हृदय पैदा करो, फिर उसमें वो गहराई पैदा करो जहां से भक्ति, स्तुति होती है |
आदि शंकर के आठ सौ साल के बाद एक नया शब्द नहीं आया। आदि शंकर अकेले थे। अब चार-चार मठाधीश हैं। आदि शंकर ने ये मठ इसलिए बनाए थे कि अब पुनः धर्म को किसी प्रकार की क्षति न हो।
आदि शंकर के बाद क्या मंदिर नहीं टूटे?कहां थे ये लोग ? और आज भी कहां है ये लोग?बस कथित गुरू बनकर शिष्यों को पेल रहे हैं. देवदासियों को ग्राहकों के नीचे तक ठेल रहे हैं.
एक राम मंदिर को बनने में पांच सौ साल लगे। क्या तुम्हे आज भी समाज के अंदर अराजकता नहीं दिख रही है। हत्या, डकैती बलात्कार सड़कों पर नहीं हो रहे हैं ? क्या कर रहे हैं राम भक्त? वो लोग कहां हैं जिन्होंने समाज की सुरक्षा का ठेका ले रखा है? यहाँ तो रक्षक के चोले मे भी भक्षक हैं.
धार्मिक कर्म सरकार का काम नहीं है | सामाजिक व्यवस्था सरकार का काम नहीं।
पद्मा मैं तुमसे पूछता हूँ :
इतने दिन संन्यासिन रहने के बावजूद तुमने इस जगत को क्या दिया है ? तुम्हारे गुरु या फिर तुम्हारे गुरु भाई बहनों ने इस जगत को एक तक भी शब्द दिया है ? तुम उसकी मालिश की, उसके आगे अपनी टांगे खोलकर फैलाई. पाई क्या? मैं पूछता हूँ, सेक्सुअल शिखर भी पाई क्या? नहीं, वर्ना मेरे पास नहीं आती.
पद्मा मेरी पीड़ा तुमको लेकर, तुम जैसियों को लेकर ही सबसे ज्यादा है।क्योंकि मैं आदि-‘शंकर’ के ही अद्वैत दर्शन को आगे बढ़ा रहा हूँ।
मैं पच्चीस साल के अपने साधनापरक अनुभव से इस बात को कहता हूँ कि धर्म को खतरा तुम्हारे उस तरह के गोरू रूपी इन अंदर के लोगों से है। तुम सब जगत के लिए खतरा हो। जिनका खाती हो उन्हीं को पापी कहती हो. वे पापी, तो तुम क्या हुईं?
आम आदमी कि बात ही नहीं करता हूँ, क्योंकि उसके पास तुम्हीं लोगों की दी हुई सोच है। ये तुम्हारा ही सबका बगराया हुआ पाखंड है। संयासिनी होकर इस तरह की बात, क्रिया करती हो.
संन्यासी के लिए क्या मुहूर्त का अर्थ है ? मेरे लिए हर रोज नवरात्रि है, मेरे लिए तीन सौ पैंसठ दिन शिवरात्री है। जो नियम लोग नौ दिन पालन करते हैं मैं उसे तीन सौ पैंसठ दिन पालन करता हूँ। मैं मुहूर्त देखकर गंगा तट पर नहीं जाता हूँ। तुम जब बोली 144 साल बाद मुहूर्त है कुंभ का तो इसका सीधा अर्थ हुआ गंगा का अपना कोई अस्तित्व नहीं है, सिर्फ़ मुहूर्त का महत्व है। फिर काहे ले जाते हो बाप की हड्डियाँ गंगा में। धरे रहो जब 144 साल बाद मुहूर्त पड़े तब ले जाना। इसे पाखंड न कहे तो क्या कहें?
तुम और तुम्हारे गुरु जैसे तथाकथित लोग ही पूरे समाज को पाखंडी बनाने में लगे हुए हैं। हम ये सब इसलिए डंके की चोट पर कह रहे हैं कि तुम्हारे गुरु की तरह हम दान रूपी चंदे के धंधे पर नहीं जी रहे हैं. ना ही मठ खोलकर धंधे के लिए पहलवान, सन्यासी और संन्यासिन को पाल रहे है। धंधे का अर्थ तुम अच्छी तरह समझ गई होगी। लेकिन दिन भर चिल्लाओगी की ये जगत मिथ्या है. अगर ये जगत मिथ्या है तो जगत का चंदा, धंधा और मुहूर्त क्या सच है?
तुम और तुम्हारे गुरु जैसे तथाकथित लोगों ने इस जगत के लोगों को इस मिथ्या जगत का इतना नशा करवाया है कि ये नशा अब आसानी से नहीं टूटने वाला है। अब गृहस्थों से कहती हो कि नींद से जागो, मूर्छा से बाहर आओ। मैं तुमसे पूछता हूँ इन्हें इस अवस्था में पहुंचाया किसने है ? क्या तुम जागी? तुम मूर्छा से बाहर आई क्या?
यहाँ तो ऐसी स्थिति है जो जागा हुआ है उसे भी लग रहा है मैं मूर्छा में ही हूँ। जगत मिथ्या कहना ही महापाप है। ये तो जगत को कर्महीन बनाने का महा मंत्र दिया है तुम लोगों ने. इसका खूब जगत में प्रचार किया है। अरी पागल कृष्ण भी कहते है कर्म करो. इसका अर्थ है ये जगत है।
“ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर:.”
ये वाक्य विवेक चूणामणि से हैं। एक आदि शंकर हैं जिन्होंने जगत में उतर कर जगत के लिए काम किया। जब काम पूरा हो गया तो उन्होंने इस व्यवस्था को दो हिस्सों में बांटा : एक गृहस्थ दूसरा संन्यास। ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या : ये उन्होंने संन्यासी और संयासिनी के लिए कहा है।
तुम्हारे गुरु जैसे संन्यासी ऐसे ढोंगी हैं जो इसे जगत के ऊपर थोप रहे हैं। तुम सभी ने पिछले आठ सौ साल में यही झूठ जगत के ऊपर थोपा है।
आदि शंकर ने संन्यासियों से कहा आपका इस जगत से कोई संबंध नहीं होना चाहिए आपके लिए ये जगत मिथ्या है। संन्यासी के लिए ये जगत स्वप्नवत है। संन्यासी के लिए ये जगत रात्री के समान है। सीधे शब्दों में आदि शंकर ने कहा है संन्यासी के लिए जगत मृत के समान ही है। ये आधा श्लोक है। लेकिन ये आधी बात संन्यासी के लिए कठोर अनुशासन है। संन्यासी इसे थोप रहे हैं गृहस्थों पर उनका माल ऐंठने के लिए.
पापी तो ये लोग खुद है जो चंदे के धंधे से पेलकर खायेंगे और गांजे सुल्फा के धुएं पर मस्त होकर चिल्लाएंगे की ब्रम्ह सत्यं जगत मिथ्या. तुम्हारे जैसे लोग मदारियों और नटो की तरह डमरू बजाते हुए जय हो जय हो का नारा लगाएंगे.
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