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जीवन का विज्ञान : प्रभा-मंडल का संज्ञान

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~ डॉ विकास मानव

प्रभा-मंडल को देखकर किसी व्यक्ति विशेष के चारित्रिक गुण-अवगुण, स्वभाव, विचारधारा, संस्कार आदि का ज्ञान तो होता ही है, इसके अलावा उसकी मानसिक स्थिति, दैहिक दुर्बलताओं और व्याधियों का भी पता चला चल जाता है, लेकिन इसके लिए दीर्घ साधना और सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है जिनकी सहायता से प्रभा-मंडल से विकीर्ण होने वाली अदृश्य तरंगों को देखा जा सके।

           भारत की पारम्परिक योगविद्या के अनुसार केवल मानव मन में ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीवनधारी और पेड़-पौधों में भी पराऊर्जा की ऐसी किरणों को देखा जा सकता है। व्यक्ति अथवा किसी जीवन विशेष की स्थितियों के अनुसार ही प्रभा-मंडल की आकृति और रंगों में भी परिवर्तन आता है।

उसी के अनुसार  प्रत्येक जीवधारी का अपना एक अलग प्रभा-मंडल होता है और वास्तविक रूप में वही उसका सही पहचान-पत्र है जिसके द्वारा उसकी समग्र परिस्थिति का समुचित सत्यापन किया जा सकता है।

       फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन के अलावा रूस ने भी वैज्ञानिक अनुसन्धान के इस क्षेत्र में काफी रुचि ली है। जर्मनी के भौतिक वैज्ञानिकों के अलावा रूस के ‘किलोरियम बन्धुओं’ को प्रारम्भिक सफलता मिली। अपने प्रयोगों के दौरान उन्होंने सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों और तीव्र गति वाले कैमरों से पौधों और हरी पत्तियों के अनेक चित्रों का तुलनात्मक अध्ययन किया। उन्होनें पाया कि पौधों में लगे हरे पत्तों की आभा उस पौधे को काट देने पर बदलने लगती है।

     विविध चित्रों के विश्लेषण से यह बात पता चली कि  पत्तों के मुरझाने के साथ ही चार-पांच घंटे बाद उसका प्रभा-मंडल मन्द होकर समाप्त हो जाता है।

     इससे यह प्रमाणित है कि प्रभा-मंडल का जीवनीशक्ति से विशेष सम्बन्ध है। मनुष्य में भी मृत्यु के समय धूमिल होकर बाद में मृत शरीर का प्रभा-मंडल क्षीण होता हुआ धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि मृत्यु के साथ ही प्रभा-मंडल तुरन्त समाप्त नहीं होता। कुछ देर तक उसका अस्तित्व बना रहता है।

      भारत के समर्थ वैज्ञानिक इस क्षेत्र में काफी समय से प्रयत्नशील रहे हैं। इस दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान तामिलनाडु के सरकारी अस्पताल में कार्यरत डॉक्टर नरेंद्रन का है। उन्होंने स्वयम् ऐसा कैमरा तैयार किया है जिसके द्वारा शरीर के किसी भी अंग का चित्रात्मक स्वरूप आभा सहित प्रदर्शित किया जा सकता है।

               प्रभा-मंडल द्वारा न केवल वर्तमान और अतीत के रोगों का पता चलता है बल्कि कई मामलों में समय से पहले ही होने वाले भयंकर रोगों का आभास भी मिल जाता है।

मनुष्य तथा दैवीय  आत्माओं का प्रभामंडल :

      भारत में प्राचीन काल से ही देवी- देवताओं, सिद्धों और महापुरुषों की छवि के साथ-साथ चक्राकार प्रभा-मंडल प्रदर्शित किया जाता रहा है। इनके चित्रों और उनमें प्रभा-मंडल को देखकर साधारणतया लोग यही समझते हैं कि यह उनकी शोभा के लिए हैं,  काल्पनिक रूप से महत्ता बताने के लिए दिया गया है। यह भी कहा जाता है कि सन्त-महात्माओं और सिद्ध योगियोँ के पास जाते ही वे एक ही नज़र में लोगों को पहचान लेते हैं तथा व्याधि और बाधाओं के बारे में सही-सही जानकारी देते हैं। सिद्ध पुरुषों के ऐसे चमत्कारी प्रभाव से विद्वान् और वैज्ञानिक अछूते नहीं रहे हैं।

       साधु-सन्तों के द्वारा प्रदर्शित ऐसी चमत्कारी घटनाओं को कुछ लोग धार्मिक पाखण्ड और अंधविश्वास कहकर टाल दिया करते हैं लेकिन विभिन्न संस्थाओं द्वारा किये जा रहे अनुसंधानों के परिणामस्वरूप अब ऐसे तथ्य सामने आने लगे हैं जिनके द्वारा योगविद्या और योगियों द्वारा प्रभा-मंडल दर्शन के विवरण वैज्ञानिक रूप में सही माने जा सकते हैं।

       मनोचिकित्सक डॉक्टर नरेंद्रन की आस्था भारतीय योगविद्या में रही है। उन्होंने अपने विषय की पुष्टि के लिए हिमालय स्थित कई योगियों के प्रभा-मंडल के चित्र उतारे, जिनके प्रभा-मंडल अत्यन्त स्पष्ट, तेजोमय, लाल, पीताभ किरणों से युक्त पाए गए।

  आप का प्रभामंडल

      जिस बायो इलेक्ट्रिक मैगेनिक एनर्जी की चर्चा पूर्व में की गयी है, उसी से प्रभा-मंडल का निर्माण होता है। उसमें विद्युत चुम्बकीय तत्व होने के कारण लोग प्रभा-मंडल की ओर स्वतः आकर्षित होने लग जाते हैं।

       मनुष्य के शरीर से दो प्रकार की आभा निकलती है– पहली भौतिक आभा और दूसरी मानसिक आभा। शरीर से चिपकी हुई रंगों की पट्टी भौतिक आभा है जो शरीर की बाह्य दशा, भौतिक स्थिति, उर्जा और स्वास्थ्य आदि को प्रदर्शित करती है। इसका बाहरी रंग, आवरण और मानसिक आभा को दर्शाता है जो मस्तिष्क की दशा तथा आंतरिक मनोभावनाओं को दर्शाता है।

        हमारी आभा में भी अनेक रंग होते हैं। इनमें इंद्रधनुषी सात रंग मुख्य हैं। ये रंग शरीर के विभिन्न मनोभावों को प्रतिबिम्बित करते हैं।

वैज्ञानिक – योगतांत्रिक  विश्लेषण :

      प्रयोग के द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि प्रत्येक जीवित प्राणी के मस्तिष्क के न्यूरॉन विभिन्न आवृत्ति और कला की विद्युत चुम्बकीय तरंगें उत्पन्न करते हैं। ये न्यूरॉन वातावरण में व्याप्त और ब्रह्मांड से प्राप्त विद्युत चुम्बकीय और अन्य प्रकार की ऊर्जा को ग्रहण कर उसका आभा-वर्धन करने की क्षमता भी रखते हैं।

         इन दोनों प्रकार की शक्तियों के कारण मनुष्य के चारों ओर एक आभा-मण्डल का निर्माण होता है जो विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न तीव्रता का होता है। उचित अभ्यास से स्वयम् की तथा दूसरों की आभा देखी जा सकती है।

      आभा के विकास से हम व्यक्तित्व के विकास के उच्चतम स्तर को स्पर्श कर सकते हैं जिससे हमारे जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता है।

      यह तो हुआ वैज्ञानिक दृष्टिकोण। अब हम योग और तन्त्र की दृष्टि से संक्षेप में विचार करेंगे आभा-मंडल पर।

      ध्यान-योग एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा आभा-मंडल का विकास संभव है। ध्यान की अवस्था में जब मनः-शक्ति और प्राण-शक्ति का संयोग होता है तो उस अवस्था में शरीर के मस्तिष्क केन्द्र, हृदय केन्द्र और नाभि केन्द्र–इन तीनों महत्वपूर्ण केन्द्रों में ‘बायो इलेक्ट्रिक मैग्नेटिक एनर्जी’ उत्पन्न होने लग जाती है जिसे हम विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा कह सकते हैं। स्पष्ट है–यह महत्वपूर्ण ऊर्जा उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की तरंगों के संघात से उत्पन्न होती है।

     कहने की आवश्यकता नहीं–तीनों केन्द्रों की ऊर्जाएं मिलकर प्रभा-मंडल या आभा-मंडल को जन्म देती हैं, लेकिन तभी जब हम पश्चिम मुख बैठकर ध्यान का अभ्यास करेंगे और उसकी गहराई में प्रवेश करेंगे। इसका रहस्य यह है कि जब हम पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके बैठते हैं तो हमारे बायीं ओर दक्षिण दिशा और दाहिनी ओर उत्तर दिशा होगी।

          फलस्वरूप दक्षिणी ध्रुव की विद्युत चुम्बकीय तरंगें हमारे बायीं ओर से टकराकर शरीर के भीतर प्रवेश करेंगी और इसी प्रकार प्रवेश करेंगी उत्तरी ध्रुव की विद्युत चुम्बकीय तरंगें हमारे दाहिनी ओर से टकराकर शरीर के भीतर।

      किसी भी प्रकार की विद्युत तरंगें क्यों न हों, उनका एक स्वाभाविक गुण है–पृथ्वी की ओर आकर्षित होकर उसमें विलीन हो जाना। इससे बचने के लिए ध्यान के समय लकड़ी के तख्त या चौकी पर कम्बल का आसन बिछाकर बैठना चाहिए।

      इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि विद्युत-तरंगें पृथ्वी में प्रवेश न कर सकेंगी और मन शीघ्र स्थिर होने लगेगा।

     आपका मन और प्राण :

      ये दोनों ऐसे तत्व हैं जो स्वयम् अपनी ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। दोनों की अपनी तरंगें हैं जो स्वयम् एक विशेष प्रकार की विद्युत उत्पन्न करती हैं। पुरुष का मन धनात्मक ऊर्जा और प्राण ऋणात्मक ऊर्जा उत्पन्न करता है। इसी प्रकार स्त्री का मन ऋणात्मक ऊर्जा और प्राण धनात्मक ऊर्जा करता है उत्पन्न।

     योग-तंत्र में इसका भारी महत्व है। कुंवारे स्त्री और पुरुष में दोनों प्रकार की ऊर्जाओं की मात्रा अधिक-से- अधिक होती है। विवाह के उपरांत मात्रा धीरे-धीरे कम होने लगती है। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो योगतांत्रिक साधना-भूमि में इन ऊर्जाओं के सहयोग से साधक अपने गंतव्य पर अग्रसर हो जाता है।

      पुरुष के बायीं ओर यदि स्त्री बैठती है तो दोनों के मन और प्राण की धनात्मक-ऋणात्मक ऊर्जाएं आपस में मिलकर एक विशेष् प्रकार का विद्युत चुम्बकीय वृत्त की रचना करतीं हैं। यह वृत्त इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसकी सहायता से दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव से विकीर्ण होने वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगें ब्रह्मांड में विचरण करने वाली दिव्य शक्तियों को साधक की ओर आकर्षित करती हैं जो साधक में दिव्य सिद्धियों के रूप में प्रकाशित होती हैं। योगतांत्रिक साधना- भूमि में इस कार्य में प्रयुक्त होने वाली स्त्री को ‘भैरवी’ कहते हैं। भैरवी को क्वांरी होना आवश्यक होता है।

    12 वर्ष से 16 वर्ष तक की कन्या इस प्रयोजन के लिए सर्वोत्तम मानी गयी है।

सूर्य रश्मियों की महिमा :

            योग दो प्रकार का होता है–बहिरचेतना योग और अंतर्चेतना योग। पहले योग का सम्बन्ध चेतन मन से और दूसरे योग का संबंध अचेतन मन से है। योगजन्य जितनी  दुर्लभ सिद्धियां हैं, वे सब अंतर्चेतना योग की संपत्ति हैं।

   अंतर्चेतना योग की एक विशिष्ट उपलब्धि है–विचार सम्प्रेषण। इसके द्वारा शरीरी और अशरीरी दोनों प्रकार के व्यक्तित्व से वैचारिक संपर्क स्थापित करना सम्भव है। अंतर्चेतना योग की इस आश्चर्यजनक क्रिया को अब वैज्ञानिक मान्यता भी मिल चुकी है जिसे वह ‘परामनोविज्ञान’ कहता है।

      योग के अनुसार तीन चीजें होतीं हैं–मनः-शक्ति, इच्छा-शक्ति और विचार-शक्ति। ये तीनों बाहर से अलग-अलग प्रतीत होती हैं लेकिन तीनों का मूल स्रोत एक ही है और वह मूल स्रोत हैं–मस्तिष्क की करोड़ों कोशिकाओं से उत्पन्न विद्युत चुम्बकीय तरंगें। वे तरंगें मस्तिष्क में कहां से आती हैं ?

    भले ही विज्ञान इसका उत्तर देने में आज समर्थ न हो, लेकिन योग-विज्ञान ने हजारों वर्ष पूर्व ही उसका उत्तर प्राप्त कर् लिया था। सूर्य की विभिन्न प्रकार की रश्मियां ही उन तरंगोँ की जहनी हैं।

लम्बी जटा की वैज्ञानिकता :

       हम-आप यही जानते हैं कि सूर्य रश्मियों में सात रंग होते हैं। लेकिन लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि सूर्य रश्मियों में 24 रंग होते हैं जो अपने आप में मौलिक (Original) हैं, मिश्रित नहीं। हमारी नेत्र-इन्द्रियों की अपनी कुछ सीमा है अन्य इन्द्रियों की तरह। वे अपनी सीमा में आने वाले रंगों को पहचान सकती हैं और समझ भी सकती हैं।

       सूर्य रश्मियों के रंग आपस में इतने घुले-मिले रहते हैं कि उनके मौलिक रंगों को पहचानना अत्यन्त कठिन ही नहीं, असंभव कार्य है। लेकिन एक उच्च अवस्था प्राप्त योगी के लिए यह असम्भव नहीं है। योगियों की लम्बी-लम्बी जटाएं उन सूर्य रश्मियों को पकड़ती हैं और उनके मस्तिष्क की कोशिकाएं उनके भिन्न-भिन्न रंगों को पहचानती हैं और उसी के अनुसार उन्हें आत्मसात् भी करती हैं अपने आप में।

       महाभारत काल के पहले तक मनुष्य के नेत्र तीन ही रंगों को जानते-पहचानते थे। बाद में धीरे-धीरे नेत्र-कर्णिकाओं की क्षमता बढ़ती गयी और उसी के अनुसार अन्य मौलिक रंगों को देखने-समझने की शक्ति भी बढ़ती गयी। वर्तमान में केवल सात रंग जो अपने आप में मौलिक हैं, नेत्र देख सकने में समर्थ हैं।

सूर्य श्मियों के रंगों का रहस्य :

          सूर्य रश्मियों के कुछ रंग ‘विचार-शक्ति के रंग’ होते हैं, कुछ ‘मनः-शक्ति के रंग’ होते हैं तो कुछ होते हैं ‘इच्छा-शक्ति के रंग’। महापुरुषों, दिव्य पुरुषों अथवा परम योगियोँ के प्रभा-मंडल उन्हीं रंगों से निर्मित होते हैं। साधारण लोगों के भी प्रभा-मंडल होते हैं।

       लेकिन प्रभा-मंडलों को समझ पाना सबके वश की बात नहीं है। कोई- कोई व्यक्ति ही उनको पहचान सकता है, उनके बारे में बतला सकता है। जिसका प्रभा-मंडल है, उसका व्यक्तित्व, संस्कार, विचार कैसा है और कैसा है उसका चरित्र। मनुष्य का प्रभा-मंडल ही एक ऐसी चीज़ है जो उसके आंतरिक स्वरूप को पूर्णरूप से अभिव्यक्त करने में समर्थ है।

(लेखक चेतना मिशन के निदेशक है)

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