अग्नि आलोक
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*पट कथा फिल्मी*

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शशिकांत गुप्ते इंदौर

देशी फिल्में किसी भी भाषा में बने,सिर्फ भाषा अलहदा होती है,लेकिन कहानी तकरीबन एक सी ही होती है।

आश्चर्य होता है,गांधीजी के देश में बगैर हिंसा की इंतहा दर्शाए फिल्म का The End होता ही नहीं है।

इक्कीसवीं सदी में भी शोषण,अन्याय,मादक पदार्थों का बेखौफ होकर व्यापार करना,तमाम अवैध धंधे, झुग्गी झोपड़ियों मतलब गरीब बस्ती पर बुलडोजर चलवाना आदि कृत्य करने का अभिनय खलनायक द्वारा किया जाता है।

खलनायक वही अभिनय करता है,जो फिल्म की पटकथा में लिखा होता है।

खलनायक का कानून के आला दर्जे के अधिकारियों के साथ सांठ गांठ,रसूखदार सियासतदान का अप्रत्यक्ष प्रश्रय। स्वयं खलनायक या उसके सपूत के द्वारा स्त्री का देह शोषण करना,यदि वह गर्भवती हो जाए तो उसकी इहलील बैखौफ होकर समाप्त करना या किसी पर इल्जाम थोपना।

फिल्मी कहानी में यह सब, फिल्म की शुरुआत से लेकर फिल्म के अंत तक दर्शाया जाता है।

शुरुआत से अभिनेता और अभिनेत्री की love Story भी लिखी होती है। 

खलनायक का आतंक फिल्म के प्रारंभ से फिल्म का The End होने के मात्र पांच मिनिट पूर्व तक दर्शाया जाता है।

दर्शकों के मानस पर लगभग दो घंटे पचपन मिनिट तक खलनायक ही हावी होता है।

खलनायक का विलासती पूर्ण जीवन यापन करना,आलीशान महल में निवास,कीमती परिधान,खलनायक की सेवा में कुछ असामाजिक तत्व की वेश भूषा में सेवक होते हैं। खास कर 

यह सेवक प्रायः बंधुआ मजदूर की तरह ही दिखाई देते हैं।

फिल्म अंतः काल्पनिक कहानियों  पर ही निर्मित होती है।

खलनायक की सेवा सुश्रुषा के किए अल्प वस्त्र धारण की हुई नव यौवनाओं के दृश्य दर्शाना भी फिल्मी फैशन है।

लेकिन भाऊक लोग फिल्मों में दर्शाए जाने वाले कल्पनातीत दृश्यों को सही मानते हुए अपने व्यवहारिक जीवन में उसका अंधानुकरण करते हैं।

आज कृत्रिम जिंदगी जीने को दुर्भाग्य से प्रगतिशीलता कहा जाता है।

यह स्वयं के द्वारा स्वयं को धोखा देने जैसा ही है।

एक बात बहुत महत्व पूर्ण है, अंतः खलनायक का अंत होना?

फिल्मी कहानियां की वास्तविकता  शायर *सुखबीर सिंह शाद*  रचित निम्न अशआर में प्रकट होती है।

*ये सच है चंद लम्हों के लिए बिस्मिल तड़पता है* 

*फिर इस के बअ’द सारी ज़िंदगी क़ातिल तड़पता है*

( बिस्मिल=जख्मी)

*हमारे शहर की आँखों ने मंज़र और देखा था*

*मगर अख़बार की ये सुर्ख़ियाँ कुछ और कहती हैं*

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