कुमार चैतन्य
हमारा सम्पूर्ण एक-दैहिक जीवन जन्म व मृत्यु के बीच का सफर मात्र है. इस बीच के सफर की कंट्रोलिंग भी पूरी तरह हमारे हाथ नही है. अधिकतर प्रकृति का ही कंट्रोल रहता है.
जन्म- मृत्यु पर तो हमारा वश नही है परंतु बीच के सफर को कुछ तो हम सुगम बना सकते है, वो भी इसके प्रति जागरूक रहकर.
जीवन सफर के प्रति जीवनबोध कितना आवश्यक है, कह पाना मुश्किल है क्योंकि जीवनबोध भौतिकवाद पे निर्भर होता है.
जीवन के प्रति कितना भी जागरूक हो जाएं फिर भी खुद के भीतर के जीवन को हम समझ नही पाते. एक तो भीतरी दूसरा बाहरी होता है.
भीतरी जीवन खुद के लिए महत्वपूर्ण है जबकि बाहरी जीवन आस पास के लोगो के लिए.
आप सोचते हैं की भीतरी जीवन से बाहरी जीवन कैसे कटेगा और बिना बाहरी जीवन की सुगमता के दूसरों से कैसे जुड़ेंगे. इसलिए आप बाहर ही भटक जाते हैं, खुद से कटकर.
मृत्युबोध का मतलब है मृत्यु के प्रति जागरूकता, स्वीकार्यता जो बेहद महत्वपूर्ण है.
यदि हमे पता चल जाए की आज से 5 वें दिन हमारी मृत्यु होने वाली है तो हम सोचेंगे खुद को स्पीडली जी लें, तृप्त कर लें. अब 5 ही दिन तो बचे है चैन से रह लें, शांति से बिता लें.
किसी से बैर करना ,घृणा करना,नाराज होना इत्यादि विचार खुद ब खुद छूट जायेंगे. इन 5 में कड़वे लोग भी मीठे लगेंगे. दुश्मन भी अपने लगेंगे. बस यही है वह मृत्युबोध जिससे हम भीतरी जीवन को सुगम बना सकते है.
सच तो यही है की हमारे पास 5 दिन भी गारंटी के नहीं हैं. हम इस सच को स्वीकार लें तो संपूर्ण जीवन को इसी जागरूकता/मृत्युबोध से जिएगें.
मृत्युबोध जीवनबोध करा देगा. जीवन का हर क्षण सुगम, शांतियुक्त ,सकारात्मक विचारयुक्त बन जायेगा. खुद के लिए भी ,दूसरों के लिए भी.