मुनेश त्यागी
जात धरम के झगडे छोडो
समता ममता की बात करो,
बहुत रह लिए अलग थलग
मिलने जुलने की बात करो।
यह भारत के 75वें गणतंत्र दिवस का मौका है। सारा देश इस गणतंत्र के पर्व को मना रहा है। यहां पर अजीब स्थिति है। शोषक और शासक वर्ग अपने अन्याय, मुनाफों और शोषण को अनाप-शनाप ढंग से बढ़ाने की फिराक में है और मजदूर वर्ग, किसान वर्ग और बेरोजगार अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के संघर्ष और मैदान-ए-जंग में हैं।
सरकार और वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था की जनविरोधी नीतियों के कारण, हमारे गणतंत्र को, हमारे संविधान को, हमारे जनतंत्र को और हमारे कानून के शासन को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। बढ़ती आर्थिक असमानता बताती है कि हमारे देश की 90 फ़ीसदी जनता देश की 22 फीसदी सम्पत्ति की मालिक है और पिछले 20 वर्षों से इसमें कोई सुधार नही हो रहा है। सरकार की घोषणाओं के अनुसार इस समय भारत में 83 करोड से भी ज्यादा गरीब हैं जिन्हें पांच किलो अनाज मुफ्त में दिया जा रहा है।
उदारीकरण की नीतियां, संविधान और कानून के शासन को धता बता रही हैं। सरकारी संपत्तियों बैंक, एलआईसी और नौकरियों पर खतरे बढ़ रहे हैं। सरकार सरकारी संपत्तियों को बेचने के ताबड़तोड़ अभियान में लगी हुई है और इसको अमीरों को कोड़ी के दाम पर बेचा जा रहा है। यहीं पर यह भी अविश्वसनीय तथ्य है की सरकार देश की जनसंख्या के हिसाब से हमारे देश में स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज और अदालतों का निर्माण नहीं कर रही है। जैसे ये सब बुनियादी मुद्दें तो सरकार की नीतियों और सोच से बाहर ही हो गये हैं।
किसानों और मजदूरों पर लगातार हमले बढ़ रहे हैं। अभी पिछले दिनों किसानों ने मिलकर सरकार के जनविरोधी कदमों का विरोध किया और 700 से ज्यादा किसानों की बलि देने के बाद, सरकार को तीन किसान विरोधी काले कानूनों को वापस लेना पड़ा। आज भी किसानों को उनकी फसलों का वाजिब दाम नहीं मिल रहा है। इसी तरह के हमले मजदूरों पर बढ़ते जा रहे हैं उनके अधिकार छीने जा रहे हैं, उनकी नौकरियां कम की जा रही हैैं, नौकरियों का निजीकरण और ठेकेदारी बढ़ रही है, उनको समय पर न्यूनतम वेतन देने के अधिकांश कानून निष्प्रभावी हो चुके हैं और सरकार मजदूरों का न्यूनतम वेतन दिलाने पर कोई ध्यान नहीं दे रही है। यह भी गजब की बात है कि हमारे देश के 85% मजदूरों को न्यूनतम वेतन नहीं मिल रहा है और बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि सरकार इस और कोई कार्यवाही नहीं कर रही है।
भ्रष्टाचार और दहेज की विभीषिका ने समाज के ताने-बाने को लगभग तोड़ दिया है। भ्रष्टाचार लगभग सभी सरकारी विभागों में आकंठ व्याप्त है और उसके उपचार का कोई तरीका ना तो सरकार के पास है और ना जनता के पास। सरकारी कर्मचारियों और सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार की लगभग सभी सीमाएं टूट चुकी है। यह भी एक दुखदाई तथ्य है कि उसी विभाग का आदमी अपने विभाग के आदमी से ही रिश्वतखोरी कर रहा है, उससे पैसे की उगाही कर रहा है। जनता की तो बात ही छोड़ दीजिए और यह सब विभागों के अधिकारियों की जानकारी में है। मगर इसे रोकने की कोई कार्रवाई नहीं हो रही है और दोषी लोगों को कोई दंड नहीं दिया जा रहा है।
न्यायपालिका की आजादी पर गंभीर हमला जारी है। सरकार न्यायपालिका को अपना पिछलग्गू बनाने पर तुली हुई है। लगातार बढ़ते सरकारी दबाव के कारण जजों का स्वतंत्रता पूर्ण तरीके से काम करना लगभग असंभव हो गया है। सस्ता और सुलभ न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं है। हमारे देश में 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमें लंबित हैं। हाईकोर्ट में 40 परसेंट पद खाली है तो निचली अदालतों में 25% पोस्ट खाली हैं, स्टेनों और बाबूओं का भयंकर अभाव है। एक अनुमान के मुताबिक 80 परसेंट स्टेनों और बाबूओं के पद खाली पड़े हैं जिन्हें सरकार वर्षों से नहीं भर रही है। न्यायपालिका पर घटता बजट जो .08 परसेंट है, वह भी लगातार घटता जा रहा है। मुकदमों के अनुपात में न्यायाधीश नहीं हैं, अदालतें नहीं हैं, बाबू और स्टेनो नहीं हैं जिस कारण मुकदमों का अंबार लग गया है और जुडिशरी लगभग निष्प्रभावी हो गई है और इसी कारण न्यायपालिका में आम जनता का विश्वास कम होता जा रहा है जो हमारे गणतंत्र के लिए एक बहुत बड़े खतरे की ओर इशारा कर रहा है। सस्ता और सुलभ न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं है, उसकी नीतियां जनता को सस्ता और सुलभ न्याय दिलाने की नहीं है। उपरोक्त वर्णन इसी ओर इशारा करता है।
वर्तमान सरकार ने संविधान के लगभग सभी उद्देश्यों और सिद्धांतों को भुला दिया है। अब नीति निर्देशक तत्वों को लागू करना और उनके हिसाब से देश और समाज का निर्माण करना, उसके बिल्कुल एजेंडे में नहीं रहा है। धन की असमानता बढ़ रही है, अन्याय का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है, लोग बेरोजगार होते जा रहे हैं, उनका जीना मुहाल हो गया है और अजीब बात यह है कि सरकार को इस सबसे जैसे कुछ लेना देना नहीं है। उसकी नजरों में जैसे अब संविधान के कोई मायने नहीं रह गए हैं और अब संविधान सिर्फ चुनाव जीत कर अपने चंद पूंजीपति मित्रों के धन दौलत के साम्राज्य को बढ़ाने का, एक जरिया मात्र बन गया है।
केंद्र सरकार एक सोची समझी रणनीति और साजिश के तहत संवैधानिक मर्यादाओं, नैतिकता और सिद्धांतों के खिलाफ काम कर रही है। वह किसी भी कीमत पर अपने चंद पूंजीपति दोस्तों के साम्राज्य को बढ़ाना चाहती है, जनकल्याण की नीतियां उसने लगभग छोड़ दी हैं। किसान और मजदूरों के रोटी कपड़ा मकान शिक्षा स्वास्थ्य और रोजगार के मुद्दे उसके एजेंडे में नहीं रह गये हैं और अब तो सरकार केंद्रीय जांच एजेंसियों,,, ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स,,,,का मनमाना दुरुपयोग करके विपक्षी पार्टियों को डराने धमकाने पर उतर आई है और उनका मनमानी तरीके से गैर कानूनी प्रयोग कर रही है। अब वह पैसे की बल पर सांसदों और विधायकों को लुभा कर अपने रंग ढंग की सरकार कायम करने पर आमादा हो गई है।
75 वर्षों के बाद भी जातिवाद का कैंसर बढ़ता जा रहा है। जातिवाद ने मनुष्य की सोच को बिगाड़ दिया है। अब अधिकांश लोग देश, समाज, कानून के बारे में नहीं सोचते, बल्कि जातिवाद के इस कैंसर को बढ़ा रहे हैं, वे उससे लड़ने को तैयार नहीं है। सांप्रदायिकता का फैलता जहर और बढ़ती नफरत का साम्राज्य, लगातार मनुष्यविरोधी होता जा रहा है इसने समाज की सोच को बिगाड़ दिया है। अधिकांश लोग अंधविश्वास, धर्मांधता और सांप्रदायिकता के जहर से प्रभावित हैं। समाज और देश विरोधी, समाज विरोधी सांप्रदायिक ताकतों ने समाज को बांट दिया है और उन्होंने समाज के अंदर हिंदू मुसलमान की नफ़रत का जहर घोल दिया है। समाज के अधिकांश लोग हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई के दायरों में बंट गए हैं और आश्चर्य यह है कि सरकार की नीतियां इस सांप्रदायिकता के जहर और साम्राज्यवाद को लगातार बढ़ा रही हैं और यह भी बेहद अफसोस की बात है कि सरकार नफरत का जहर घोलने वाली इन संप्रदायिक ताकतों के खिलाफ कोई प्रभावी कानूनी कार्यवाही नहीं कर रही है।
यहां पर यह बात गौर करने वाली है कि हमारा संविधान, वैज्ञानिक संस्कृति को बढ़ाने और प्रचार-प्रसार करने की बात करता है। मगर सरकार ने इस ओर से आंखें मूंद ली हैं और वह वैज्ञानिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार से लगातार बचती रही है। अब तो सरकार ही पत्थरों में प्राण प्रतिष्ठा की बात कर रही है और वह भारत के संविधान में उल्लेखित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को तोड़कर राजनीति में धर्म का प्रवेश कर रही है और मंदिर बना रही है। यह सब भारत की गणतांत्रिक व्यवस्था पर सबसे बड़ा हमला है।
भारत में चुनाव पैसों का और पैसे वालों का खेल बनकर रह गए हैं। आज आलम यह है कोई भी गरीब या ईमानदार व्यक्ति चुनाव लड़ने की नहीं सोच सकता। अगर सोचता भी है तो वह चुनाव तो लड सकता है मगर जीत नहीं सकता, क्योंकि पैसों के लेनदेन और जातिवाद के जहर और साम्प्रदायिक बंटवारे ने चुनाव की मंशा पर ही प्रश्न खड़े कर दिए हैं और चुनाव, पैसे वालों और जातिवादियों का खेल बनकर रह गया है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे भारत की जनतांत्रिक और गणतांत्रिक व्यवस्था खत्म हो गई है और अब भारत में सिर्फ और सिर्फ धनतंत्र ही सबसे ज्यादा हावी हो गया है।
महंगाई ने, लगातार बढ़ती महंगाई ने जनता की कमर तोड़ दी है। महंगाई को कम करने वाले कानूनों को लागू नहीं किया जा रहा है। महंगाई को बढ़ाने वाले लोग और व्यवसाई स्वच्छंद होकर आए दिन महंगाई बढाते रहते हैं। सरकार महंगाई रोकने के लिए कोई कारगर और प्रभावी काम नहीं कर रही है, ठोस कदम नहीं उठा रही है। आज भारत के लोग महंगाई से सबसे ज्यादा त्रस्त और परेशान हैं और सरकार आंख मूंदकर तमाशबीन बनी हुई है। वह कोई कारगर कदम, महंगाई बढ़ाने वालों के खिलाफ नहीं उठा रही है।
लगातार बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी ने गणतंत्र को सबसे ज्यादा खतरा पैदा किया है। आज हमारे देश में दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबी है, सबसे ज्यादा गरीब लोग हमारे देश में रहते हैं। उनकी गरीबी के निदान का कोई प्रयास सरकार द्वारा नहीं हो रहा है। आज हमारे देश में दुनिया में सबसे ज्यादा बेरोजगार हैं, पढ़े लिखे होकर भी नौकरी पाने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि सरकार की उदारीकरण की नीतियों के कारण रोजगार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं, उद्योग धंधे बंद होते जा रहे हैं, लाखों लाखों फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं। सरकार की नीतियां नए रोजगार पैदा करने में अक्षम साबित हो रही हैं और सरकार और उसकी नीतियां देसी विदेशी पूंजीपतियों की तिजोरियां भरने में लगी हुई है, उनके मुनाफों को लगातार बढ़ा रही हैं और इसी के लिए अपनी सारी नीतियों को अंजाम दे रही हैं।
सरकार की जनविरोधी नीतियों के कारण, धनवानों द्वारा शिक्षा व्यवस्था को हड़प लिया गया है। शिक्षा का व्यवसायीकरण कर दिया गया है, उसका बाजारीकरण कर दिया गया है और शिक्षा के अधिकार से पूरे के पूरे गरीब तबके को वंचित कर दिया गया है। आज शिक्षा इतनी महंगी कर दी गई है कि गरीब जनता अपने बच्चों को सही शिक्षा नहीं दिलवा सकती। सरकार की जनविरोधी स्वास्थ्य नीतियों के कारण स्वास्थ्य की सेवाएं आम जनता की पहुंच से बाहर हो गई हैं, सरकारी नीतियों के कारण स्वास्थ्य सेवाओं का बाजारीकरण कर दिया गया है स्वास्थ्य सेवाएं बिकने लगी हैं। गरीब आदमी इन निजी अस्पतालों में अपने रोग का निदान करवाने की स्थिति में नहीं है क्योंकि वहां पर स्वास्थ्य सेवाएं बहुत महंगी हैं। सरकार का बजट स्वास्थ्य सेवाओं पर लगातार घटता जा रहा है। वहां पर डॉक्टरों की, दवाइयों की, नर्स की और स्टाफ की भारी कमी है जैसे स्वास्थ्य विभाग को जानबूझकर सरकार द्वारा मारा जा रहा है, उसकी हत्या की जा रही है। अब तो जैसे भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था मूनाफों की हवस की भेंट चढ़ गई है।
सरकारों द्वारा सामाजिक सुरक्षा पर हमले लगातार बढ़ रहे हैं, उसका बजट लगातार घटाया जा रहा है। हमारे देश के लगभग 20 करोड़ वृद्ध लोगों की आय का कोई साधन नहीं है। उनके पास बुढ़ापा बिताने का कोई सहारा नहीं है और सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है वह लगातार बेखबर बनी हुई है और इसमें बजट को भी लगातार कम किया जा रहा है। द्वारा लगातार अभियान के बावजूद भी बुजुर्गों को 60 साल से ऊपर वालों को पैंशन की सुविधा नही दी जा रही है।
इसी के साथ-साथ हमारे समाज में देश में नैतिकता का अभाव और मनुष्यता का अकाल लगातार बढ़ता जा रहा है। इस व्यवस्था ने अधिकांश मनुष्यों को जातिवादी, धर्मांध, अंधविश्वासी, सांप्रदायिक, स्वार्थी, खुदगर्ज बना दिया है। वह अपने स्वार्थ के अलावा देश के, समाज के या दूसरे मनुष्यों के बारे में सोचता ही नहीं है। उसकी सोच को सिर्फ परिवार तक ही सीमित कर दिया गया है। यह सब सरकारी नीतियों और सोच का परिणाम है।
उपरोक्त समस्त कारणों ने भारत के संविधान को, कानून के शासन को, जनतंत्र और भारत की गणतांत्रिक व्यवस्था को, संविधान की उद्देशिका को, सबसे ज्यादा नुक्सान और खतरा पैदा कर दिया है। आज हमारे गणतंत्र पर सबसे ज्यादा खतरे मंडरा रहे हैं। यही कारण है कि कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने कहा था कि हमारा जनतंत्र, हमारा संविधान, कानून का शासन और गणतंत्र खतरे में है। वर्तमान की पूरी की पूरी सरकारी व्यवस्था एकदम जनविरोधी, किसान विरोधी, मजदूर विरोधी, नौजवान विरोधी, संविधान विरोधी, कानून के शासन विरोधी, जनतंत्र विरोधी और गणतंत्र विरोधी हो गई है। इस संविधान और गणतंत्र को बचाने के लिए भारत की जनता को एकजुट होकर अनथक प्रयास करना होगा इसके अलावा और कोई रास्ता नही बचा है। हम तो यहां पर यही कहेंगे कि,,,,
ना हिंदू खतरे में ना, मुसलमान खतरे में
मैं देख सुन रहा हूं, हमारा जनतंत्र खतरे में,
सुप्रीम कोर्ट के जज कहें जरा गौर से देखो
संविधान खतरे में, हमारा गणतंत्र खतरे में।
और
सारे मनमुटाव छोड़कर आओ
भारत के संविधान की रक्षा करो,
जनतंत्र समाजवाद सब खतरे में हैं
भारत के गणतंत्र की सुरक्षा करो।