[मेरे साधनाकालीन जीवन की एक घटना]
~ डॉ. विकास मानव
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*पूर्वकथन :*
_आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी. अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है. मेरा सीधा उद्घोष है : बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें._
लोग रहस्यमय दुनिया के चित्र-विचित्र पहलुओं की चर्चा करते हैं. पचास प्रतिशत लोग तो और जिज्ञासु भी हो जाते हैं। शेष ऐसे विषय को अविश्वसनीय मान लेते हैं
वजह तंत्र के नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों की लूट और भोगवृत्ति रही है।
इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः तंत्र विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान-विज्ञान की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा.
जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है।
सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है— निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में. जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे हमसे संपर्क कर सकते हैं.
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_यह घटना मेरे स्कूली जीवनकाल सन् 1989 की है जब मैं अक्सर साधनारत रहा करता था। मेरे जीवन में विकट से विकट घटनाएं घटीं, अद्भुत अनुभव भी हुए जिनका वर्णन मैं अपनी रचनाओं में समय-समय पर करता रहा हूँ।_
मैं अपनी साधना एवम् अन्य कार्यों से निवृत होकर जब सोता था और गहन निद्रा की अवस्था में रहता था. कुछ दिनों से एक ही प्रकार का स्वप्न देखता था–खजुराहो जैसा एक भव्य मन्दिर और उसके पास एक शिव मन्दिर और उससे सटा किसी साधक का स्थान, युवा साधक की जटा-जूट, दाढ़ी, गौरवर्ण, काषाय वस्त्र, गले में रुद्राक्ष और अन्य प्रकार की अनेक मालाएँ।
ऐसा लगता था कि वह मुझे बुला रहा है और कुछ कहना चाह रहा है। तभी मेरी नींद अचानक से खुल जाती और मैं सोचने लगता था कि यह साधक कौन है और क्यों बार-बार मेरे स्वप्नों में मुझे दिखाई देता है ? क्यों मुझसे संपर्क करना चाह रहा है ? इस साधक का या स्वप्न की इस घटना का क्या रहस्य है ?–मेरी समझ से परे था।
चूँकि मैंने खजुराहो का स्थान देखा था फिर भी मैंने वह स्वप्न में दिखने वाला स्थान कभी नहीं देखा था।
मेरे एक परिचित शिक्षक थे–रमाकान्त जोशी। वे प्रायः मेरे पास आते रहते थे और योग-तंत्र-ध्यान पर उनकी जो जिज्ञासा होती थी, उसको मेरे सामने रख देते थे।
एक दिन अचानक वे आ गए। चर्चावश मैंने उनसे ऐसे ही अपने उस स्वप्न के बारे में बात की तो वे बोले–अरे ! यह स्थान तो मेरा देखा हुआ है। बोलिये आपको क्या जानना है ? यदि आपको वहां जाना हो तो मैं व्यवस्था करा दूंगा। वहां मेरे काफी परिचित लोग हैं।
बस फिर क्या था–जाने की व्यवस्था हो गयी। मैंने उन्हें स्वप्न के बारे में कुछ नहीं बताया। बस यही बताया कि वहां कोई साधक है, बस उसी से मिलने जा रहा हूँ।
सोच रहा था कि वह साधक सशरीर मिल जाये। मेरी एक कमज़ोरी है कि जहाँ और जब भी मुझे किसी साधु, साधक, सन्यासी का पता चलता तो मैं उससे मिलने चल देता हूँ। लेकिन यहाँ मामला दूसरा था। पहली बार कोई साधक स्वप्न के माध्यम से मुझसे संपर्क कर् रहा है और मैं उससे मिलने चल पड़ा था।
रमाकान्त जोशी के एक परिचित थे, नाम् था उनका–श्रीराम शर्मा, जिला कवर्धा, छत्तीसगढ़। बस अगले ही सप्ताह रमाकान्त जोशी से पता लेकर वहां के लिए चल पड़ा। काफी कष्टप्रद यात्रा रही लेकिन मेरी जिद थी कि वहां कैसे भी पहुंचना है।
स्टेशन पर उतरा, वहां से बस द्वारा आगे का रास्ता तय कर नियत स्थान पर पहुँचा। श्रीराम शर्मा के पता को खोजने में कोई परेशानी नहीं हुई। वे सेवानिवृत्त शिक्षक थे।
घर पर पहुंचा तो देखा–आधा कच्चा और आधा पक्का मकान था। दरवाजा खटखटाया तो एक अधेड़ व्यक्ति ने दरवाजा खोला। लुंगी और बनयान पहने, आँखों में काले फ्रेम का मोटा चश्मा, पकी दाढ़ी, सिर पर छोटे-छोटे बाल। देखने से ही वे विद्वान् प्रतीत होते थे।
प्रश्नभरी नज़र से उन्होंने मुझे नीचे से ऊपर तक देखा। कुछ बोलना चाह रहे थे, तब तक मैं बोल पड़ा। अपना नाम व पता बतलाया। अपने साथ लाये हुए रमाकान्त जोशी का पत्र उनके हाथ में थमा दिया।
पत्र पढ़कर वे काफी खुश हुए। तुरन्त कमरे में भीतर ले गए। मैं बहुत थका हुआ था। पहले उन्होंने स्नान और चाय-पान की व्यवस्था की। रमाकान्त जोशी के बारे में हालचाल पूछा और जब उन्हें पता चला कि मैं एक लेखक हूँ और खोजी प्रवृत्ति का हूँ तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए।
बोले–क्या जानना चाहते हैं आप ? मैंने स्वप्न वाली बात छिपाकर उन्हें बताया कि यहाँ कहीं पर कोई प्राचीन मन्दिर और महल है। बस उसी को देखने की इच्छा है। उसी की उत्सुकता मुझे यहाँ खींच लाई है।
श्रीराम शर्मा बोले–मेरा तो यहाँ पूरा जीवन बीता। यह स्थान तो यहीं पास में ही है। उसे छोटा खजुराहो भी कहते हैं। चलिये सायंकाल हो रही है, थोड़ा आराम कर लें। रात्रि के खाने की व्यवस्था करता हूँ। घर में बस मैं और मेरी पत्नी है। एक बेटा है जो बम्बई चला गया। वहीँ नौकरी करता है। रिटायर्ड हो गया हूँ, पेंशन मिलती है और थोड़ी बहुत मेरा बेटा मदद कर् देता है। ऐसे ही जीवन चल रहा है। जीवन का अंतिम समय हम दोनों यहीं बिताना चाहते हैं। बेटा बम्बई बुलाता है लेकिन इच्छा नहीं करती जाने की।
मैंने एक चीज अनुभव की–कमरे में साफ-सफाई कम थी। पत्नी शायद भीतर थीं, क्योंकि उनकी आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। कमरे में सामने मेज पर दो-चार किताबें और लालटेन रखी हुई थी। चारों तरफ सांय-सांय हो रही थी।
श्रीराम शर्मा खाने की व्यवस्था के लिए भीतर चले गए। बस मैं यूँ ही उत्सुकतावश पुस्तकें पलटने लगा। ऐसा लगा–पुस्तकों में काफी समय से किसी ने हाथ भी नहीं लगाया है। धूल से भरी हुई थीं। मैंने सोचा–शायद गांव की वजह से खुला स्थान होने के कारण धूल-आँधी चलती रहती होगी। मुझे नींद नहीं आ रही थी।
आधे घण्टे बाद शर्माजी के दर्शन हुए। हाथों में दो थालियां लिए हुए थे जिनमें स्वादिष्ट खाना था। खाना खाने के बाद हाथ धोने के लिए जब मैं बाहर आँगन में निकला तो अँधेरा हो रहा था लेकिन आश्चर्य की बात तो यह थी कि भीतर से खाना बनाने की खुश्बू या किसी प्रकार की आवाज़ बिलकुल नहीं आ रही थी।
मैंने ज्यादा ध्यान इस ओर नहीं दिया, बस हाथ धोकर चुपचाप सामने वाली चौकी पर बैठ गया। पंडितजी भी आराम से बैठ गए और उन्होंने कहना शुरू किया–शर्माजी आप जिस स्थान को देखना चाहते हैं, वह स्थान तो काफी मनोरम है लेकिन गांव वालों का कहना है कि अमावस की रात में या पूर्णिमा की रात में वहां से अजीब-अजीब-सी आवाजें आती हैं। कम ही लोग वहां जाते हैं।
लेकिन वहां एक शिव मन्दिर है। वर्ष में दो बार वहां मेला भी लगता है लेकिन शाम होते-होते वहां से सभी लोग वापस आ जाते हैं। कोई रात को वहां रुकता नहीं है।
हाँ, कभी-कदा कोई भक्त पूजा करने चला जाता है। लेकिन एक हादसा मेरे साथ ऐसा हुआ तो फिर कभी दोबारा वहां जाना न हो सका।
मैंने पूछा–कौन-सा हादसा ? तो वे टाल गए। उन्होंने मुझे अपने एक संपर्की राजा गोपालदेव का पता और उनके नाम एक पत्र लिखकर दिया. अगले दिन मैं उनके पास था.
राजा गोपालदेव काफी धार्मिक प्रवृत्ति के थे और उन्हें तंत्र में भी गहरी रुचि थी। जब मैं उनके साथ एक महल के निकट पहुंचा तो वहाँ की कारीगरी और नक्कासी का बेजोड़ नमूना देखने को मिला। थोड़ी देर में ही अँधेरा होने लगा। चारों तरफ से अजीब-अजीब सी आवाजें आने लगीं।
इस घने और वीरान जंगल में दूर-दूर तक कोई भी इंसान नहीं दिख रहा था, सिवाय उस सन्यासी के, लेकिन वह सन्यासी निर्भीक और शान्त दिख रहा था लेकिन मेरा मन अंदर ही अंदर उद्विग्न हो रहा था।
सोचा–कहाँ आकर फंस गया ? पता नहीं. माँ की क्या इच्छा है ? उस सन्यासी में एक अद्भुत आकर्षण था। तभी मेरी ओर मुस्कराते हुए सन्यासी बोला–शर्माजी, आइए, अब यहाँ ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं है। चारों तरफ अतृप्त आत्माओं और जंगली जानवरों का भय है। पास ही मेरी कुटिया है, आइये वहीँ चलते हैं।
इतना कहकर वह आगे बढ़ चला। मैं क्या करता, सन्यासी के पीछे-पीछे मैं भी चल पड़ा। थोड़ी दूर चलने पर वह कुटिया नज़र आने लगी। हल्की हल्की चांदनी बिखरी हुई थी पर चारों तरफ पसरा हुया था एक अबूझ सा सन्नाटा।
जब झोपडीनुमा कुटिया में प्रवेश किया तो देखा–कुटिया के बीचों बीच अग्निकुण्ड था जो जल रहा था। पूजा-पाठ की सामग्री चारों ओर बिखरी पड़ी थी। बगल में उस सन्यासी का आसन ज़मीन पर लगा हुआ था। धूप की सुगन्ध और दीपक की रौशनी ने चारों तरफ का वातावरण सम्मोहित सा कर दिया था।
एक कोने में लाल कपडे के ऊपर कच्ची मिट्टी का पात्र रखा था। उसमें रक्त सूख चुका था। मेरी नज़र जब उस पर पड़ी तो ऐसा लगा कि सन्यासी ने मेरे मनोभाव को पढ़ लिया है।
सन्यासी हँसते हुए बोला–यही पात्र तो सारे रहस्य की जड़ है। छायासिद्धि के लिए मैं अपने रक्त से बलि करता था। रात काफी हो गयी है, इसकी चर्चा हम बाद में करेंगे। चलिये, आप कुछ खा लीजिये।
मैंने कहा–इस बियाबान जंगल में मेरे और आप के अलावा और कोई है ही नहीं तो भोजन की व्यवस्था कैसे होगी ?
सन्यासी बोला– विकासजी, बाहर जाइये, ज़रा हाथ-मुंह धो लीजिये।
मैं कुटिया के बाहर गया और हाथ-पैर धोकर अंदर आया तो देखा–एक पत्तल में तरह-तरह के पकवान भरे पड़े हैं और एक बड़े से कुल्हड़ में पानी। केवल एक पत्तल लगी थी। मैंने पूछा–आप नहीं खाएंगे ?
सन्यासी बोला–नहीं, मेरी इच्छा नहीं है। मैंने उस समय उसका आशय नहीं समझा, चुपचाप खाना खाया और हाथ-मुंह धोने बाहर गया और जब अंदर लौटा तो देखा–पत्तल और कुल्हड़ गायब थे। फिर भी मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
कुटिया का वातावरण काफी बोझिल लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि कुटिया के चारों और कोई काली छाया घूम रही हो। मैंने सन्यासी से पूछा–ऐसा लग रहा है जैसे कोई बाहर है।
सन्यासी ज़रा गम्भीर होकर बोला- मानवजी, वहां कोई नहीं है, मेरा छाया शरीर है। मैंने बहुत पहले छाया शरीर की सिद्धि की थी, उसी का फल आजतक भोग रहा हूँ।
मैं थोड़ा सकपका गया। क्या आपने छायासिद्धि की थी ? यह तो बड़ी विकट साधना है और काफी त्याग से सिद्धि होती है। यह साधना तंत्र में बहुत अच्छी नहीं मानी जाती।
_हाँ पूज्यवरजी, इस एक ग़लती ने मेरे जीवन को बदल दिया। बस इसी समस्या के समाधान के लिए मैंने स्वनाकर्षिणी विद्या द्वारा आपसे संपर्क साधा था। उसका समाधान आप ही कर सकते हैं और इस सिद्धि से मुक्ति भी दिला सकते हैं।_
मैंने कहा–आपतो उच्चकोटि के साधक हैं। अपार सिद्धि है आपके पास। मेरे जैसे प्राणी की क्या आवश्यकता पड़ी ?
बस यही तो रहस्य है। मेरी मुक्ति का मार्ग केवल आप ही प्रशस्त कर सकते हैं और यह सब काशी के महाश्मशान के पास होगा जहाँ आप अक्सर आते-जाते रहते हैं।
मैं समझा नहीं।
सन्यासी ने कहा–मेरी मुक्ति काशी में ही हो सकती है। नहीं तो मैं भटकता रहूंगा।
सन्यासी बात घुमाते हुए बोला–मेरा मतलब है कि इस सिद्धि से मुक्ति।
मैं कुछ नहीं बोला। लेकिन थोड़ी देर बाद वहां अजीब सा वातावरण बनने लगा और उस अद्भुत वातावरण में मैं अपने आपको तरोताजा महसूस कर रहा था। नींद तो कोसों दूर थी। थकान का नामोनिशान भी न था। परन्तु पता नहीं अंदर कहीं न कहीं भय व्याप्त था पर इसका आभास मैं जरा सा भी नहीं होने दे रहा था।
सन्यासी ने कहना शुरू किया– विकासजी कथा काफी रहस्यमय है। चलिये मैं अपनी कथा संक्षेप में ही सुनाता हूँ, उसी से आप अर्थ लगा लेंगे।
मेरे पिता ब्रह्मदत्त एक प्रकाण्ड विद्वान् और साधक थे। मेरी माता का बचपन में ही देहान्त हो गया था। पिताजी ने माता और पिता दोनों का प्यार दिया और धीरे धीरे वे मुझे साधना की ओर अग्रसर करने लगे।
मेरे पिता राजवंश के कुलगुरु थे। जब यहाँ महल बना, तो शिव का मन्दिर भी बनवाया गया जिसे आपने अभी थोड़ी देर पहले देखा था। राजा की कोई सन्तान नहीं थी और पिताजी काफी वृद्ध हो चुके थे। उस समय मेरी उम्र 25 वर्ष के लगभग थी।
पिताजी ने सारा कार्य मेरे ऊपर डाल दिया और वे स्वयम् अपनी पूजा-साधना में लगे रहते थे। मेरा राजमहल आना-जाना लगा ही रहता था। नागवंशी राजकुमारी से राजा ने विवाह किया था लेकिन सन्तान न होने के कारण वे लोग काफी दुःखी रहते थे।
पिताजी के कहने पर सन्तान प्राप्ति के लिए मैंने एक अनुष्ठान किया। मेरे उस अनुष्ठान के बाद दो बच्चों का जन्म हुआ। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि राजा ने प्रसन्न होकर दक्षिणा मांगने के लिए कहा तो मैंने दक्षिणा स्वरूप माँ काली का मंदिर तंत्रोक्त पद्धति से बनवाने के लिए आग्रह किया।
आपने देखा ही है माँ जगत् जननी की प्रतिमा को। मेरा सारा समय वहीँ व्यतीत होता है। धीरे-धीरे मेरी प्रसिद्धि चारों तरफ फैलने लगी। कभी-कभी महाराज और महारानी भी वहां आने लगे। वे दोनों भी काफी प्रभावित थे।
कुछ दिन बाद महाराज अपने राजकार्य में व्यस्त रहने लगे और महारानी अक्सर आ जाया करती थीं। उन्हें तंत्र में काफी रूचि रहती थी। तन्त्र पर काफी चर्चा भी होती। एक दिन ‘कामकलातन्त्र’ पर चर्चा चली। रानी काफी प्रभावित हो गईं और उन्हीं के आदेश पर और मेरे निर्देशन में मंदिर के चारों ओर यक्ष-यक्षिणियों की काममुद्रा की मूर्तियां बनवायीं गयीं जिन्हें आपने भी देखा।
चौरासी आसनों की काम मुद्राओं पर मूर्तियां गढ़ी गयीं जो अपने आपमें अद्भुत हैं। जब मूर्ति गढ़ी जाती तो अक्सर महारानी भी आ जातीं थीं। मैं तो रहता ही था। धीरे-धीरे महारानी इतनी प्रभावित हुईं कि मेरी ओर आकर्षित होने लगीं। मझे पता ही नहीं चला कि कब मैं भी आकर्षित हो गया उनकी ओर।
उस समय पिता काफी अस्वस्थ थे। वे मन्दिर में रहते थे। मैं अपनी कुटिया में रहता था जहाँ आप इस समय बैठे हुए हैं। एक दिन महारानी अचानक कुटिया में आ गयीं और मझसे आलिंगन बद्ध हो गईं।
मेरा भी संयम खो गया। जो नहीं होना चाहिए था, वह सब हो गया। जब होश आया तो आत्मग्लानि से भर चुकी थी मेरी आत्मा। शायद महारानी को भी पश्चाताप हुआ।
उसके बाद काफी समय तक मैंने महारानी को देखा नहीं। माँ, जगत् जननी से अपनी गलती के लिए क्षमा याचना कर साधना में जुट गया।
कुछ दिनों तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन रानी ने जो मेरे मन और आत्मा में आग लगा दी थी, उस आग में मैं अनवरत जलता रहा। एक दो बार महारानी से मुलाक़ात भी हुई, पर वे नज़र झुकाकर चली जातीं।
ऐसा क्यों हो रहा था–यह तो वे ही जानती थी। मैं अक्सर साधू वेश में रहता। गेरुआ वस्त्र मेरा प्रिय वस्त्र था। मेरी इष्ट माँ काली थी लेकिन दीक्षा गुरु कोई नही था। मैंने यही ग़लती की।
यदि अपने पिता को ही गुरु बना लेता और उन्हें ही अपना दीक्षागृरु मान लेता और उनकी आज्ञा से सन्यास लेता तो आज मेरी स्थिति ऐसी नहीं होती।
सन्यास का क्या तात्पर्य है ?–मैं बीच ही में बोल पड़ा।
सन्यास का रहस्य अति कठिन है–सन्यासी ने जवाब दिया–सन्यास लेने के पहले माता-पिता, पत्नी, पुत्र–इनमें से कोई एक है तो उनसे पहले आज्ञा लेनी पड़ती है, फिर गुरु से आज्ञा लेनी पड़ती है। जब गुरु से स्वीकृति मिल जाती है तब सन्यासी बनने के लिए पहले अपना श्राध्द और पिण्डदान उसे स्वयम् करना होता है, इसलिए कि वह संसार के लिए मृत हो जाता है।
वह संसार और समाज को एक प्रकार से छोड़ देता है और पिण्डदान और श्राद्ध करने से वह सीधे सूक्ष्मशरीर को प्राप्त करता है। जैसी साधना वह करता है, उसी अवस्था को वह प्राप्त भी करता है शरीर से या सूक्ष्मशरीर से। सन्यास के नियम का पालन करना कठोर तप करने के समान है। कर्म आदि पूरा करने के बाद गुरु द्वारा सन्यास वस्त्र, गुरुमन्त्र दिया जाता है। बस वहीं से उसका सन्यास धर्म शुरू हो जाता है।
इसीलिए सन्यासियों को जल में प्रवाहित किया जाता है या समाधि दी जाती है। इसीलिए इष्ट और गुरु का काफी महत्व है। जो लोग गैरिक वस्त्र तो पहन लेते हैं और सन्यासी धर्म का पालन नहीं करते हैं, उसके नियमों का पालन नहीं करते हैं, वे मेरी तरह भटकते रहते हैं।
आपकी तरह भटकते रहते हैं ?–समझा नहीं, लेकिन मेरी बातों को जानबूझकर अनदेखा कर सन्यासी ने आगे कहना शुरू किया–पिताजी द्वारा सारा ज्ञान मिला, गुप्त रहस्यों का पता चला, सारी सिद्धियां भी मिलीं, लेकिन वे मेरे पिता थे, इसलिए मैं ज्यादा ध्यान नहीं देता था। एक-दो बार पिताजी ने कहा–जो करना हो, नियमपूर्वक करो। मेरा क्या है, मैं तो कभी भी संसार छोड़ सकता हूँ–तुम तो देख ही रहे हो, मैं बीमार ही रहता हूँ।
उस समय मैं उनका आशय समझा नहीं और एक दिन वे गुजर गए। पास ही उनकी समाधि है। पिताजी के देहान्त के बाद राजमहल में पूजा-पाठ के लिए मुझे नियुक्त कर दिया गया।
राजमहल में मेरा आना-जाना बेरोक-टोक लगा रहा लेकिन रानी का सान्निध्य न मिल पाने के कारण मेरा मन काफी दुःखी रहता था।
एक दिन पिताजी का सारा सामान मैं अपनी कुटिया में ले गया। कुछ पांडुलिपियां भी थीं, कुछ हस्तलिखित पुस्तकें भी थीं। ऐसे ही एक दिन पुस्तकें देख रहा था, तभी एक दिन मुझे एक अद्भुत ग्रन्थ मिल गया।
उसमें विभिन्न प्रकार की तामसिक सिद्धियों के बारे में वर्णन था। उन्हीं में से एक थी–छाया सिद्धि। छायासिद्धि के रहस्य के बारे में पढ़ा तो बहुत प्रभावित हुआ। उसमें लिखा था कि भौतिक शरीर के साथ एक उपशरीर हमेशा जुड़ा रहता है जिसे छाया शरीर कहते हैं। उस छायाशरीर में अपने अच्छे-बुरे संस्कार समाहित होते रहते हैं। एक प्रकार का वह संस्कारों का संग्रह होता है। उसे आप आकाशीय शरीर भी कह सकते हैं। मृत्यु के बाद उसी को प्रेतशरीर कहते हैं।
मैं बड़े मनोयोग से सुन रहा था क्योंकि मेरी खोज का वह विषय था। लेकिन उस सन्यासी ने जो रहस्य खोला, वह काफी महत्वपूर्ण था।
सन्यासी ने आगे कहा- मानवजी, आत्मा स्वतंत्र है, वह किसी शरीर का निर्माण नहीं करती। सात शरीर सात परत की तरह जुड़े रहते हैं। आत्मा अपनी अवस्थानुसार शरीर में प्रवेश करती है।
छाया शरीर एक प्रकार से प्रेत शरीर है। वह निष्क्रिय रहता है। बस आपके संस्कार उसमें समाते रहते हैं। शरीर छूटते ही प्राणशक्ति तुरंत ही छाया शरीर को कर् देती है सक्रिय।
प्राणऊर्जा प्राप्त होते ही वही छाया शरीर प्रेतशरीर को हो जाता है उपलब्ध् और फिर आत्मा उसमें हो जाती है प्रविष्ट। उसे ही प्रेत शरीर कहते हैं।
वासनाक्षय का मतलब है जब आत्मा भौतिक शरीर के प्रति निराश हो जाती है यानि संस्कार क्षय हो जाने के बाद आत्मा का दूसरा वाहक जो सूक्ष्म शरीर होता है, वह उसमें प्रवेश कर जाती है और जब चाहे तब वह पुनः संस्कारवश जन्म ले सकती है। या उच्चावस्था प्राप्त कर कारण शरीर, मनोमय शरीर को हो सकती है उपलब्ध्।
मैं तो बस सुनता रहा क्योंकि आत्मा का एक नया रहस्य मेरे सामने हो रहा था उजागर। कुछ देर तक वह सन्यासी शान्त रहा, ऐसा लग रहा था मानो वह कहीं विचारों में खो गया हो।
उसके चेहरे पर असीम वेदना और पश्चाताप के भाव लहरा रहे थे। रात्रि का अंधकार अपने चरम पर था। दीपक की हलकी रौशनी चारों तरफ फैलने की नाकाम कोशिश कर् रही थी।
कुछ देर तक शान्ति बनी रही। तभी सन्यासी की आवाज़ ने उस निःशब्द वातावरण को फिर से कर् दिया भँग। सन्यासी ने आगे कहना शुरू किया–छाया शरीर की साधना अत्यन्त दुरूह और श्रमसाध्य थी, विकासजी ! लेकिन मैंने अपने हठ के कारण उसे साधा।
पहले दीपछाया सिद्ध की, फिर चंद्रछाया, उसके बाद जल छाया, सूर्यछाया सिद्धकर अन्त में अपनी कुटिया में दीपक जलाकर, अपनी छाया को देखकर अपनी प्राणऊर्जा उसमें प्रवाहित करने लग गया। फिर मुझे धीरे धीरे आभास होने लगा कि कोई छाया मेरे पीछे खड़ी है।
यह थी पहली शुरुआत। मानसिक रूप से उसे आदेश देता। जैसे किसी को बुलाना होता तो मैं मानसिक रूप से आदेश दे देता तो वह व्यक्ति अपने आप मेरी ओर मुड़कर चला आता।
हाँ मानवजी, एक बात तो मैं बतलाना भूल ही गया। रक्त में सबसे ज्यादा प्राणशक्ति होती है। जब मैं छाया शरीर के द्वारा कार्य करने लगता तो छाया शरीर को प्राणऊर्जा की आवश्यकता पड़ती जिसे मैं अपना ही रक्त चढ़ाकर उसे प्राणऊर्जा प्रदान करता जिससे वह सक्रिय बना रहता।
आपने प्रायः सुना होगा कि तामसिक दुर्धर्ष आत्मायें रक्त की प्यासी होती हैं, इसके लिए वे भारी रक्तपात, नरसंहार का कारण बनती हैं, सामूहिक दुर्घटनाओं का कारण बनती हैं। जहाँ पशुबलि, नरबलि होती है, वहां वे रक्त की लालसा में झुण्ड की झुण्ड पहुँच जाती हैं। रक्त पीकर उन्हें उनके प्राणऊर्जा बढ़ाने में मदद मिलती है। क्योंकि प्रेतशरीर एक प्रकार से प्राण शरीर से ही निर्मित होता है।
मैंने कहा–छाया शरीर आपने सिद्ध कर लिया। कहने का तात्पर्य यह है कि जीते जी आपने अपने प्रतिरूप को सिद्ध कर लिया यानि अपने प्रेतशरीर को सिद्ध कर लिया।
सन्यासी बोला–प्रेतशरीर तो नहीं कहेंगे, वह तो स्थूल शरीर की मृत्यु के बाद मिलता है। हाँ, आप उसे मेरा प्रतिरूप कह सकते हैं।
छायासिद्धि के बाद मैं बहुत ताक़तवर हो गया। चारों तरफ मेरी ख्याति फैलने लगी। कोई भी कार्य तत्काल कर देता। एक से एक अविश्वसनीय चमत्कार दिखला देता। अब मैंने छाया शरीर का अपने स्वार्थ में दुरूपयोग करना शुरू कर दिया।
छाया शरीर के माध्यम से मैंने सर्व प्रथम राजमहल में राजा सहित सभी को वश में कर् लिया था। रानी भी मेरे वश में हो गयी थी। जो भी मैं चाहता, मेरा मनोरथ पूर्ण होने लगा। मैं वासना के खेल में ऐसा डूबा कि माँ की आराधना तक को भूल गया। अपने शिष्यों को सौंप दिया पूजा आराधना का सारा उत्तरदायित्व।
लेकिन विकासजी, होनी तो होनी ही थी। कर्म का फल तो मिलना ही था। जिस पापकर्म में मैं लिप्त था, उसका दण्ड तो मिलना ही था। मैं यह भी भूल गया कि जो मैंने सिद्धि की थी, वही मेरे लिए एक दिन काल बन जायेगी।
रक्त बलि के माध्यम से मेरे पांचों शरीरों को प्राणऊर्जा प्राप्त होने लगी और उसका परिणाम यह हुआ कि मैं धीरे धीरे अस्वस्थ रहने लगा। मेरा सारा स्थूल शरीर रक्तहीन और ऊर्जाहीन रहने लगा।
चूँकि छाया सिद्धि की सारी विधि पढ़ी थी, लेकिन उनमें कुछ बातों पर मैंने ध्यान नहीं दिया था। नारी सुख, धन, दौलत, सारी सुख-सुविधाएँ जो प्राप्त हो गईं थीं मुझे। लेकिन धीरे धीरे अब नशा उतरने लगा।
पिताजी नहीं थे, किससे पूछता. पूज्यवरजी, आपको ज्ञात होना चाहिए आप चाहे जितना खाएं, पियें, लेकिन यदि आपके शरीर की प्राणऊर्जा ख़त्म होने लगे तो शरीर भी आपका साथ छोड़ देता है।
आप तो जानते ही हैं कि मृत्यु के पहले शरीर के पांचों प्राण (प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान) धीरे धीरे बाहर निकल जाते हैं और आकाशीय शरीर या प्रेत शरीर में समाने लगते हैं।
अन्त में धनन्जय प्राण की ऊर्जा के साथ, उसे अपना वाहक बनाकर आत्मा प्रेत शरीर में प्रवेश कर जाती है। श्राध्द आदि सभी कर्म पूर्ण होने के बाद ही आत्मा प्रेत शरीर से सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर सकती है जिसे ही प्रेतमुक्ति कहते हैं।
हमारे धर्मशास्त्रों में श्राद्ध के जो नियम हैं, वे काफी महत्वपूर्ण हैं। उनका मूल्य मुझे आज समझ में आ रहा है। पर मैं तो ग़लती पर ग़लती करता चला गया।
बस, मानवजी ! अब आपका ही अन्तिम सहारा बचा है। बिना आपके मैं अपने इस भौगोलिक दायरे का अतिक्रमण नहीं कर सकता. इसीलिए मुझे आपके स्वप्न में विविध प्रकार के दृश्य सृजित करने पड़े.
मेरे साथ स्वप्न में घटित हुआ सारा कुछ अब समझ में आ चुका था. मना करने का तो कोई कारण ही नहीं था. उनको साथ लेकर मुझे वापस काशी आना पड़ा और उनकी इच्छा पूरी करनी पड़ी.