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आरक्षण पर शाहूजी महाराज का संघर्ष

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अस्पृश्यता मानव समाज के लिए कलंक है। किसी को भी बिना अपराध किए ही समाज से बहिष्कृत कर देना, अपराधी और बेईमान समाज का द्योतक है। आप लोग उनसे अधिक बुद्धिमान, अधिक ताकतवर, अधिक त्यागी और देश सेवी हैं जो आपसे अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं। आप देश के एक महत्वपूर्ण घटक हैं। मैं आपको बुद्धि-पराक्रम में किसी प्रकार ब्राह्मण समाज से कम नहीं समझता। हम सब आपस में भाई हैं। हमारे हक, अधिकार और कर्तव्य बराबरी के हैं। इसी को आधार मानकर हमें काम करना है। मेरे घर-परिवार के लोगों को अपना निर्णय स्वयं लेने की स्वतंत्रता है। जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है उन्हें मेरा पूरा समर्थन रहता है। जिन्हें अच्छी नहीं लगती उनका विरोध या दंड नहीं दिया जाता। हम सब भारतीय है। भारतीय प्रजाजन किसी भी वर्ण जाति के हों, उनसे राज्य कोई भेदभाव नहीं करेगा। व्यक्ति की दृष्टि में धर्म एक महत्वपूर्ण बात है परंतु उससे राष्ट्र को कोई लेना-देना नहीं हैं।

आचार्य मिंदर चौधरी

सदियों से अपने हाथ में लेखनी न रहने के कारण हमारा अपना इतिहास वर्ण व्यवस्था में शीर्ष पर कुंडली मारकर बैठे समाज के लगातार झूठ, फरेब और कुटिल मक्कारी का शिकार हो गया। हमें ऐसा लगने लगा कि किसी दैवीय शक्ति के चलते हमें आरक्षण और सत्ता में भागीदारी मिली है। ऐसा नहीं है सत्ता और देश की सम्पत्ति में भागीदारी जिसे हम आरक्षण के नाम से भी जान और समझ सकते हैं। वह हमारे पुरखों के दशकों लम्बे संघर्ष के चलते प्राप्त हुई है और उसके पीछे एक विदेशी और न्यायप्रिय सत्ता का हाथ रहा है। जिसने मानवता के आधार पर हमारे देश में वर्ण व्यवस्था जैसी घृणित और अमानवीय व्यवस्था को समाप्त करने में समाज के कमजोर वर्गों को सुना, समझा और सहारा दिया। उदाहरण के लिए आज के किसान आन्दोलन में 700 किसानों की मौत के बाद उसका वापस लेना और इसमें हुई मौतों को लावारिस मान कर छोड़ देना, उसकी कोई बात नहीं करना, 69000 भर्ती में धांधली के विरोध में 6 माह से धरने का कोई असर न होना यह सिद्ध करता है कि वर्ण व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे लोग कितने धूर्त, कुटिल और बर्बर हैं। यह हमेशा से ऐसे ही रहे हैं। यह तो विदेशी सत्ता का दबाव था कि सत्ता में कुछ भागीदारी मिल सकी। इसके पीछे शाहूजी महाराज, माता सावित्रीबाई फुले, बाबा साहब का लम्बा संघर्ष रहा है। मानवता के इस संघर्ष में शाहूजी महाराज के द्वारा जो सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए वे आज भी मील के पत्थर हैं। शाहूजी महाराज के द्वारा इस दिशा में कार्य करते हुए तीन बड़े सम्मेलन कराए गए। इनका विवरण निम्नवत है।

1. खामगाँव परिषद

आरक्षण के इतिहास में यह पहली सभा आयोजित की गई थी या यों कहें समाज के पिछड़ों और दलितों के हितार्थ देश का यह पहला आयोजन था। 27 दिसम्बर, 1917 को खामगाँव में आयोजित 11वीं अखिल भारतीय मराठी शिक्षा परिषद में बोलते हुए शाहूजी महाराज ने मराठों के लिए स्वतंत्र मतदार संघ अर्थात पृथक निर्वाचन मंडल की जोरदार वकालत की। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि मराठों की स्थिति मुसलमानों से भी कमजोर है। मुसलमानों की संख्या कम है परंतु वे बहुत लम्बे अरसे तक सत्ता में रहे हैं। इसके विपरीत मराठों की संख्या कुल आबादी के 60 प्रतिशत से अधिक है। परंतु वर्ण व्यवस्था के कुटिल, धूर्ततापूर्ण और अमानवीयता की सीमाएँ पार कर जाने वाले प्रतिबंधों के चलते इनकी स्थिति दो पैरो पर चलने और बोलने वाले जानवर से ऊपर की नहीं बची है। सदियों तक कानून बनाकर जबरन शिक्षा से दूर रखे जाने के कारण यह वर्ग मानसिक गुुलामी की उस पराकाष्ठा पर पहुँच गया है, जहाँ अत्याचार को प्रभु का प्रसाद मान कर सहर्ष ग्रहण करता है और बदले में शुक्रिया ज्ञापित करते हुए शुल्क भी देता है। ऐसी दशा में इस वर्ग को पृथक मतदार संघ या पृथक निर्वाचन मंडल दिए बिना इसका कल्याण होने वाला नहीं है। हमें स्वराज चाहिए लेकिन एक ऐसा स्वराज जिसमें सभी जातियों या अंतर्विवाही समाजों को मानवीय अधिकार प्राप्त हो, सबको शिक्षा, नौकरी और देश के संसाधनों में बराबर का हिस्सा मिले। हमें ऐसा स्वराज नहीं चाहिए जिसमें देश के सारे संसाधनों पर केवल एक ही संवर्ग अर्थात ब्राह्मणों का कब्जा हो। हमें ऐसा स्वराज चाहिए जिसमें सभी समाजों को बराबर मानवीय अधिकार मिलें। अब चूँकि देश में सभी की बराबर हिस्सेदारी और भागीदारी तो दूर, पढ़ने-लिखने के अधिकार भी नहीं हैं और समाज का एक बड़ा हिस्सा पशुवत जीवन जीने के लिए मजबूर है। इसलिए इस समाज के साथ न्याय तभी हो सकता है जब इनके प्रतिनिधियों को इनके समाज से ही चुना जाए और इन्हें विधानसभाओं में भेजने की व्यवस्था की जाए। यदि इन्हें पृथक प्रतिनिधि चुनने का अधिकार नहीं दिया जाएगा तो ये मात्र पुरोहितों के पिट्ठ और दलाल ही बन कर रह जाएँगे और इनका कभी विकास नहीं हो पाएगा।’ (वर्तमान व्यवस्था में यही हो रहा है)

महाराजा शाहूजी ने लार्ड विलिंगडन को एक पत्र लिख कर बताया कि ‘देश में बहुसंख्यक आबादी को बराबरी पर लाने के लिए केवल बराबरी का कानून कदापि पर्याप्त नहीं है। एक विशेष संवर्ग अर्थात ब्राह्मण जो कि देश के समस्त संसाधनों, शिक्षा, सम्पत्ति पर काबिज है और मात्र काबिज ही नहीं है, वरन अनियंत्रित रूप से काबिज है, से बराबरी के स्तर पर आने के लिए खेती और उससे जुड़े व्यवसायों से जुड़े लोगों और अछूतों के लिए विशेष प्रावधान करने होंगे। और उन्हें देश की सम्पत्ति में हिस्सेदारी दिलाने के लिए विशेष कानून बनाने होंगे। इस कार्य के लिए विधायिका में यह व्यवस्था करनी होगी, जिससे उनके समाज के ऐसे प्रतिनिधि, जिनका चयन उन्हीं के समाज के लोगों से किया जाना ही एकमात्र रास्ता है। ऐसा न होना इन वर्गों के साथ नाइंसाफी होगी और यह कभी प्रगति नहीं कर पाएंगे। ऐसा न करना उन्हें शेरों नहीं गिद्धों और भेड़ियों की दया पर छोड़ देना होगा। निश्चित रूप से यह मानवता के साथ एक बहुत बड़ा अन्याय होगा।

स्वदेशी आंदोलन : एक मजाक

यह स्वदेशी, राष्ट्रीय आंदोलन और स्वराज का सबसे बड़ा मजाक है कि इन वर्गों के साथ सबसे बड़ा अन्याय इनके देशवासियों ने ही किया है। उनके अपने देशवासियों ने इन्हें सदियों से आदमी नहीं समझा और पशुओं जैसा व्यवहार किया। यह लोग हिज मेजेस्टी के शासन को आशापूर्ण निगाहों से देख रहे हैं। यदि ऐसा न हुआ और मराठों को विशेष संरक्षण न दिया गया तो पहले से ही सत्ता पर काबिज ब्राह्मणों के हाथ में सम्पूर्ण सत्ता दोबारा आ जायगी और यह उनके काले कानून मनुस्मृति और वर्ण व्यवस्था के चलते मानवता और देश के कमजोर वर्गों की अतिशय हानि होगी। जैसा कि बिहार राज्य के एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। दरभंगा के महाराजा ने ब्राह्मणों और पुरोहितों के दबाव में आ कर नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा तो लागू कर ली परंतु अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा नहीं लागू की। वह इस तर्क को मान गए कि जिसे पढ़ने की इच्छा न हो उसे जबरदस्ती पढ़ाई करने को मजबूर नहीं किया जाएगा। अर्थात उन्होंने प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। नतीजा हम समझ सकते हैं कि शिक्षा पर ब्राह्मणों का एकाधिकार बना रहा। अन्य सभी वर्गों कों यह कह कर स्कूल से खदेड़ दिया गया कि ये पढ़ना ही नहीं चाहते।’

इस पत्र के प्रत्युत्तर में 16 अक्टूबर, 1918 को लार्ड मोंटेग्यू ने पत्र के माध्यम से अपनी बात रखने और समाज की वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए शुक्रिया अदा किया और कहा कि समय आने पर निश्चित रूप से इन पर विचार कर कार्यवाही की जाएगी।

10 नवम्बर, 1918 को मुम्बई के परेल विभाग में आयोजित पिछड़े लोगों की एक सभा में बोलते हुए शाहूजी महाराज ने बताया कि पाश्चात्य देशों में हमारी तरह जाति व्यवस्था नहीं है वहाँ केवल दो वर्ग होते हैं भूमिधर और धनी वर्ग तथा मजदूर वर्ग। धन सम्पदा अर्जित कर कोई भी व्यक्ति कोई भी काम कर सकता है। वहाँ कहीं भी किसी व्यक्ति को कोई काम को करने पर रोक नहीं है। प्रभु वर्ग का बहुत वर्चस्व वहाँ भी है परंतु मजदूरों के अपने संगठन हैं जो एक हो कर अपनी माँग मनवा लेते हैं। इसी तरह के संगठन हमारे देश में भी होने चाहिए। कारखाने में काम करने वाले मजदूर और किसान एक ही संवर्ग के हैं। इनका आपस में एक संगठन होना चाहिए। संगठित होकर ही हम अपनी लड़ाई लड़ सकते हैं। अपने देश में प्रचलित वर्ण व्यवस्था, जिसमें सभी लोगों के रोजगार पहले से ही तय है। वहाँ ऐसा नहीं है। वहाँ का मजदूर भी पढ़ा-लिखा होता है। अपने यहाँ जैसे पढ़ाई-लिखाई पर प्रतिबंध नहीं है, सभी को पढ़ने-लिखने का अधिकार हैै। इसी तरह से हमारे देश में भी सभी को पढ़ने और आगे बढ़ने का अधिकार होना चाहिए। हम आपके माध्यम से ब्रिटिश सरकार से यह माँग करते हैं कि देश के प्रचलित कानूनों में बदलाव कर यूरोप की तरह की संस्कृति व्यवस्था लागू करे। 1917 में रुस की बोल्शेविक क्रांतिका शाहूजी महाराज ने खुलकर समर्थन किया। रूसी क्रांति मजदूरों की क्रांति थी। देश में मजदूरों का समर्थन करने वाले शाहूजी पहले और एकमात्र राजा थे।

23 जून, 1919 को मुम्बई के राज्यपाल को लिखे अपने पत्र में वह लिखते हैं- समाज के पिछड़े और अस्पृश्य वर्ग के लोगों को दुखों से बाहर निकालना मेरा परम कर्तव्य है। समाज के पिछड़े और बहुसंख्यक वर्ग की सेवा ही समाजसेवा और मानवता की सेवा है। जो सशक्त हैं, सबल हैं, दुर्भाग्य से वही शोषक हैं। मनुस्मृति और वर्ण व्यवस्था में। यदि मेरा कोई कार्य इन सशक्त वर्गों के विरुद्ध चला जाता है तो उसका इन्हें बुरा नहीं मानना चाहिए। परंतु अच्छा या बुरा मानना तो दूर वे धूर्तता से मुझे गलत साबित करने में लगे रहते हैं। कमजोरों पर अत्याचार मुझसे बर्दाश्त नहीं होता है। चूँकि जो सबसे अधिक पिछड़े और दबे कुचले हैं, जिन्हें पशुओं के मल-मूत्र से भी निकृष्ट और घृणित माना जाता है, उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक दासता से बाहर निकालना सभी का कर्तव्य है। इस दासता से बाहर निकालने के लिए उनके समाज से उनके सच्चे नेता पैदा करना अत्यन्त आवश्यक है। जब तक उनके अपने समाज से योग्य और जुझारू नेता नहीं पैदा होंगे, उनका कल्याण नहीं हो सकता है। इसीलिए मैंने सरकार के समक्ष यह माँग रखी है कि अस्पृश्य और पिछड़े मराठा लोगों को स्वतंत्र मतदार संघ (पृथक निर्वाचन मंडल) दिया जाए। उनका अपना निर्वाचक मंडल हो जिसमें केवल वे वोट देकर अपने नेता का चुनाव करें। (इसका विस्तृत विवरण अलग अध्याय में दिया गया है)। यदि ऐसा नहीं हुआ तो कितना भी आरक्षण क्यों न दे दिया जाए इन वर्गों का उद्धार नहीं हो सकता।

2. माणगाँव परिषद

20 मार्च, 1920 को करवीर स्टेट में कागल जागीर के माणगाँव में अस्पृश्यों की यह दूसरी परिषद आयोजित की गई। शाहूजी महाराज इसके प्रमुख आयोजक थे। यह महाराज का अपना क्षेत्र था अत: सारी व्यवस्था उन्हीं की थी। श्री दत्तोबा पवार, डॉ. रमाकान्त कांबले, गंगाराम यमाजी कांबले, तुकाराम गणचार्य, शिवराम कांबले, रामचन्द्र कांबले, निगप्पा एदाले, दादा साहब शिर्के, अप्पाजी वाघमारे जैसे क्रांतिकारी महापुरुषों ने इसके आयोजन में दिन-रात एक कर कार्य किया था। मुम्बई के बैरिस्टर तल्यारखान पारसी, भास्करराव जाधव, अन्ना साहब लट्ठे आदि सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता इस आयोजन में सक्रिय थे। इन सबसे आगे इस कार्यक्रम की खास पहचान थे डॉ. भीमराव अम्बेडकर जो इस परिषद के अध्यक्ष थे। इस कार्यक्रम में बोलते हुए शाहूजी महाराज ने कहा, ‘मेरे प्रिय मित्र डॉ. अम्बेडकर के विचारों का लाभ लेने मैं यहाँ आया हूँ। डॉ. अम्बेडकर मूकनायक नाम का पत्र निकालते हैं और पिछड़े हुए सारे समाज की बेहतरी के लिए काम करते हैं। इसीलिए मैं उनका पूरे मनोयोग से अभिनंदन करता हूँ। स्वागत करता हूँ। वंदन करता हूँ। मैंने हाजिरी नामक घिनौनी प्रथा कानून बनाकर समाप्त कर दी है। बिना कोई गुनाह किए ही किसी को बाधित करना, निरुद्ध रखना मेरी ही नहीं हिज मैजेस्टी को भी स्वीकार्य नहीं है। बहुत छोटे से भूमि के टुकड़े, जिससे एक परिवार का पालन-पोषण नहीं हो सकता, के लालच में इनका जीवन बर्बाद हो रहा है। यह उत्तर भारत की बंधुआ मजदूरी से भी अधिक उत्पीड़क प्रथा है। अब हाजिरी समाप्त होने के बाद वे गाँव छोड़कर बाहर आ जा सकते हैं। अपने अनुसार अपने व्यवसाय का चुनाव कर सकते हैं (वर्ण व्यवस्था के अनुसार वह कोई और रोजगार नहीं कर सकते थे, उन्हें अपने काम को छोड़कर दूसरे काम करने से रोकना और अपने पुश्तैनी धंधे में लगाए रखना प्रत्येक हिंदू शासक का पहला कर्तव्य था) और सिर उठाकर जीवन जी सकते हैं। वे आजाद हैं, वे कहीं भी जाएँ, उन्हें कहीं सूचना देने की कोई आवश्यकता नहीं है। किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं है। मैं यहाँ उपस्थित सभी लोगों से यह गुजारिश करता हूँ कि हमारी स्थिति कमजोर होने का कारण यह है कि हम अपने योग्य नेता को नहीं चुनते। हममें से कुछ स्वार्थी लोग मीठा बोलकर अपने समाज के लोगों को फँसाते हैं। पशु-पक्षी भी अपनी जाति का ही नेता चुनते हैं। गाय-भैंसो का नेता धनगर होता है। इसी कारण उन्हें बूचड़खाने जाना पड़ता है, जो खुद क्षत्रियों को भी शूद्र मानते हैं, मानव को गाय के गोबर और मानव मल मूत्र से भी बदतर समझते हैं। स्पर्श हुआ तो गोबर से नहा कर शुद्ध होते हैं, ऐसे लोग हमारे नेता कैसे हो सकते हैं?

भारत के अतिरिक्त किसी भी देश में जाति व्यवस्था नहीं पाई जाती। किसी को भी जाति के नाम पर पढ़ने-लिखने से नहीं रोका जाता। परंतु यहाँ जातिभेद इतना तीव्र है कि कुत्ते-बिल्ली के मल-मूत्र से भी बुरा बर्ताव हम अपने जैसे भाई-बहनों से करते हैं और यह अंग्रेजों ने नहीं किया था। यह हमारे स्वदेशी पुरोहितों की ज़मात ने बना रखा था। देश की बहुसंख्यक आबादी को सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक रूप से पंगु बनाकर रखने के लिए भी वर्ण व्यवस्था में कानून बनाकर उन्हें शिक्षा से दूर रखा गया था। मैं डॉ. अम्बेडकर की विद्वता और समाज तथा देश के प्रति समर्पण की खुले दिल से प्रशंसा करता हूँ हम उन्हें पंडित की उपाधि देते हैं और अपना नेता घोषित करते हैं। उन्हें बहुत से प्रलोभन दिए गए कि वह आपका साथ छोड़कर पुरोहितों से मिल जाएँ और पूरे ऐशो-आराम के साथ जीवन जिएँ। परंतु मैं आभार मानता हूँ कि इतनी कमजोर स्थिति होने के बाद भी डॉ. अम्बेडकर हमारे साथ हैं। मैं अनुरोध करता हूँ कि डॉ. अम्बेडकर मेरे राजपूतवाड़ी सोनतली कैम्प पर मेरे साथ भोजन ग्रहण करने की कृपा करें। इस प्रकार पवित्र कोल्हापुर के माणगाँव परिषद में हजारों अस्पृष्यों के समक्ष डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व की नींव रखी गई शाहूजी महाराज की जय, अम्बेडकरजी की जय… के जयघोष से माणगाँव का आकाश गूँज गया। यहीं से डॉ. अम्बेडकर के राजनैतिक जीवन की शुरुआत होती है।

इस आयोजन के लगभग एक माह के बाद 16 अप्रैल, 1920 को नासिक में अस्पृश्य छात्रावास के भवन का शिलान्यास करते समय उन्होंने कहा कि-

‘सामाजिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। अस्पृश्य भाइयों को कथित ऊँचे लोगों से घृणित व्यवहार मिलता है, इससे साफ मालूम होता है कि जातिभेद का स्वरूप कितना घिनौना और मजबूत है। धर्म का इतना अपमान और वह भी भगवान के नाम पर इस तरह का क्रूर कृत्य कि मानव को कुत्ते-बिल्ली से भी घृणित मानने का कानून बना दिया जाए, विश्व में कहीं नहीं है। यह देश और हमारी सभ्यता के लिए शर्मनाक है। प्राचीनकाल में ऐसा नहीं था। इस घृणित व्यवस्था की शुरुआत मध्य काल से हुई। इसका सबूत हमें नासिक से ही मिलता है जहाँ नदी में स्नान करने के अलग-अलग कुंड मिलते हैं। इनमें महारों का भी अलग से कुंड है। कोल्हापुर की सत्ता जब हमारे हाथ में आई, उस समय चारों तरफ और राज्य की शासन व्यवस्था में केवल एक ही वर्ग ब्राह्मण समाज के लोगों का बोलबाला था। सरकारी कार्यालयों में गैर ब्राह्मणों का कोई कर्मचारी था ही नहीं। अत: राजकीय सेवाओं में सभी नागरिकों को समान हिस्सेदारी देने के लिए विशेष आरक्षण की व्यवस्था की गई। कुछ जानकार लोगों को कचहरी में वकील बनाया गया। मराठा और अस्पृश्यों के बीच खाई इतनी गहरी थी कि उनकी शिक्षा के लिए पृथक छात्रावास की व्यवस्था की गई। इन वर्गों के छात्रों के लिए विशेष छात्रवृत्ति की व्यवस्था की गई। इन छात्रों की शिक्षा शुल्क माफ किया गया। अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की गई। अस्पृश्य जातियों के लोग जो जानकार थे, पढ़-लिख गए थे, को राजकीय सेवा में जगह दी गई। 24 साल के मेरे इस कार्य का प्रतिफल अब कुछ दिखाई पड़ना शुरू हो गया है। लेकिन इस समाज की स्थिति अभी केवल छोटे बच्चे जैसी ही है, यह अभी भी केवल घुटनों के बल चलना ही सीख पाया है। जो समाज सदियों से कानून बना कर शिक्षा से दूर रखा गया हो उसको आगे बढ़ने में समय तो लगना ही है। अत: मैंने इस समाज के उत्थान को अपना लक्ष्य बनाया है। लेकिन मेरा यह काम पूना के ब्राह्मण पत्रों को बहुत बुरा लगता है। समर्थन करना तो दूर वे मेरे हर कार्य का विरोध करते हैं। जब वह कोई गलती नहीं निकाल पाते तो मुझे ब्राह्मणों को चिढ़ाने वाला और नीचा दिखाने वाला बताते हैं। यह उनकी पुरानी आदत हैं। इन सबके मूल में जातिभेद है। जातिभेद को समाप्त किए बिना स्व शासन का मतलब होगा ब्राह्मण शासन = वर्ण व्यवस्था का शसन = मनुस्मृति का शासन। जिसमें मराठों को पढ़ने-लिखने का अधिकार ही नहीं हैं ऐसा स्व शासन किस काम का? अर्थात जाति भेद को समाप्त कर समाज व्यवस्था को मजबूत किए बगैर यदि स्व शासन दिया भी जाय तो हमें नहीं चाहिए।

महाराष्ट्र के उच्चवर्गीय नेताओं को दलित दमित और पिछड़े समाज की दशा पर कभी-कभी कुछ दया आ जाती है, और वह बड़ी अच्छी बातें बोलने लगते हैं। परंतु जब उसे करने का समय आता है तो वह सब कोई न कोई बहाना बना कर निकल जाते हैं। ऐसे नेताओं से पिछड़े और अस्पृश्य समाज को बच कर रहना चाहिए।’

यदि आजादी मिल जाती है तो अस्पृश्यों के साथ सहभोजन करने को हम तैयार हैं। ऐसी गर्जना महाराष्ट्र के ब्राह्मण नेता बाल गंगाधर तिलक ने निपानी गाँव में बोलते हुए की। यदि अस्पृश्य अपने भाई हैं तो सहभोजन जैसी छोटी सी बात को आजादी से जोड़ने का क्या मतलब? इसके साफ मालूम होता है कि यह बंधुभाव केवल दिखावे के लिए हैं इनके दिखाने के दांत अलग है और खाने के दाँत अलग है। इन पर कतई विश्वास मत करो। अपनी उन्नति के लिए केवल अपनी जाति से ही ईमानदार नेता को चुनो। अपनी जाति में यदि कोई नेता बेईमान हैं तो उसे कतई बर्दाश्त मत करो। उसे अपमानित कर समाज से बाहर करो।

मैंने अपने राज्य में पिछड़ों और अस्पृश्यों की उन्नति के लिए जो कुछ उपाय किए हैं उससे ब्राह्मण समाज मुझ पर नाराज है। जिस तरह से माता-पिता अपने निरोगी और सशक्त बच्चों से अधिक देखभाल अपने कमजोर और बीमार बच्चों की करते हैं और कमजोर बच्चों की शिक्षा-दवा आदि का विशेष प्रबंध करते हैं, वैसे ही मैंने अपने पिछड़े और अस्पृश्य भाइयों की उन्नति के लिए विशेष प्रबंध किए हैं। ब्राह्मण समाज के लोग केवल दिखाने के लिए ही अछूतों के उद्धार की बात करते हैं। इनकी मधुर और मोहक गप्पबाजी ने इनका स्वरूप सबके सामने उजागर कर दिया है। अछूतों और पिछड़ों को अपना कल्याण करने के लिए स्वयं आगे आना चाहिए और अपने में से योग्य नेता का चुनाव करना चाहिए, और इसके लिए शिक्षा और विशेष रूप से सामाजिक शिक्षा के बिना कोई विकल्प नहीं हैं।’

महाराज का नासिक में दिया गया यह भाषण देश ही नहीं, विदेशों तक फैल गया। 17 अप्रैल, 1920 के टाइम्स आफ इंडिया ने शाहूजी महाराज के भाषण की तारीफ की और इसे कालजयी बताया। मद्रास के जस्टिस पत्र में महाराज का भाषण अंग्रेजी में छपा। महाराज का यह भाषण कई देशी भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित हुआ। 28 अप्रैल, 1920 को राम राय निंगा, शाहूजी महाराज को लिखते हैं, ‘आपका यह भाषण युग प्रवर्तक है। आपने उचित समय पर उचित आवाज उठाई है। लोकाभिमुख और विचारचान महाराजा के यह उद्धार और प्रयास अवश्य ही लोक जीवन में आमूल क्रांति लावेंगे, इसमें संदेह नहीं है।’ उनके भाषण की सराहना करते हुए बोस्टन और कैलिफोर्निया के वृत्त पत्रों ने उन्हें शुद्ध समाज सुधारक बताया था। पूना के समाचार पत्रों ने शाहूजी महाराज के भाषण का खुल कर विरोध किया। समर्थन करना तो दूर की बात रही, उन्होंने विरोध किया।

3. नागपुर परिषद

30 मई, 1920 को नागपुर में अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद का आयोजन किया गया था। नागपुर की इस परिषद की अध्यक्षता करने के लिए इसके आयोजक मंडल जिसमें गणेश अक्काजी गवई, केशवराव खंडारे, बाबू कालीचरण नंदा शामिल थे, शाहूजी महाराज के पास गए। इस आशय और उम्मीद के साथ कि महाराज की अध्यक्षता करने से आयोजन का उच्चीकरण अपने आप हो जाएगा। इनका अनुरोध सुनकर शाहूजी महाराज ने मजाक में और इनका मन जानने के लिए कहा- ‘बाल गंगाधर तिलक आप सबकी बड़ी तारीफ करते हैं आप उन्हें क्यों नहीं अध्यक्षता के लिए बुलाते हैं। वह तो आपकी परिषद के लिए बहुत प्रसन्न होंगे। इस पर श्री गवई बोले, महाराज, तिलक की बात छोड़ दीजिए। स्वयं भगवान राजा रामचंद्र इस परिषद में यदि आना चाहेंगे तो भी हम उन्हें नहीं आने देंगे। अध्यक्षता की बात तो बहुत दूर है। इनका हमारे विकास नहीं विनाश में योगदान रहा है। साफ बोलने के लिए माफी चाहता हूँ इसलिए हम आपके पास आए हैं।’

यह सुनकर महाराज का गला भर आया। उनकी आँखों से आँसू निकल आए। उन्होंने रूँधे हुए गले से कहा, ‘चाहे मेरा राज्य मुझसे छीन लिया जाए तो भी मैं आप सबके लिए जो भी बन पड़ेगा करूँगा।’ नागपुर परिषद में हजार बाधाएँ आने वाली हैं। इसका अंदाजा महाराज को हो गया था। महाराज को इन बाधाओं का अच्छा-खासा अनुभव भी था। इस आयोजन के पहले कुलकर्णी परिषद ने बहुत सारे बेबुनियाद आरोप लगाकर उनके चरित्रहनन का प्रयास भी किया था। अपनी रैयत एसोसिएशन की सभा में उनके अध्यक्ष दत्तोपंत बेलवी ने खुले आम यह आरोप लगाया कि कोल्हापुर राज्य में किसी की औरत और जीवन सुरक्षित नहीं है। तिलक के केसरी ने यह लिखा- ‘कोल्हापुर में किसी का जीवन और इज्जत सुरक्षित नहीं है।’ कोल्हापुर के रीजेंट मेजर वुडहाइस ने सलाह दी कि महाराज को अपने राज्य से बाहर सभा नहीं करनी चाहिए। पूरा ब्राह्मण समाज उनके नागपुर जाने के विरुद्ध था। जब यह जानकारी हुई कि बहिष्कृत परिषद की अध्यक्षता शाहूजी महाराज ने स्वीकार कर ली है तो विरोधी और ब्राह्मण समाज के लोगों ने धमकी भरे पत्र भेजने शुरू कर दिए कि शाहूजी महाराज नागपुर न जाएँ। यदि शाहूजी महाराज नागपुर में आते हैं तो काले झंडों से स्वागत किया जाएगा। दूसरा कोई होता तो पीछे हट जाता परंतु इससे महाराज कहाँ मानने वाले थे। उन्हें इतना विरोध झेलने और ऐसे माहौल में कार्य करने में आनंद आता था। अपनी यात्रा योजना के अनुसार शाहूजी महाराज नागपुर रेलवे स्टेशन पर नियत समय पर उतरे। उनके स्वागत के लिए भारी संख्या में समाज के लोग उपस्थित थे। परंतु नागपुर राज्य के महाराजा रघुजी भोंसले जो कि शाहूजी महाराज के सम्बंधी थे, ब्राह्मण समाज को नाराज करने का साहस नहीं कर सके। अत: शाहूजी महाराज नागपुर के राजमहल में न रुक कर ईसाई मिशनरी के बंगले में रहे। ऐसा अक्सर होता है कि हमारे सम्बंधी ही हमारा साथ नहीं देते। ब्राह्मण समाज का संगठन उस समय भी इतना सशक्त था कि उसे जरा भी विरोध बर्दाश्त नहीं था। उसे यह कतई बर्दाश्त नहीं था कि उसका नौकर किसी और के यहाँ से भी कुछ कमा ले। वह केवल उतना ही करे जितना वह कहे। इस तरह का संगठन कि नागपुर के शासक रघुजी भोंसले की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह महाराज को अपना राजकीय अतिथि बना सकें। यह स्थिति थी राजा और उनके पुरोहित समाज की। राजा तो केवल नाम मात्र का राजा होता था वास्तविक सत्ता तो पुरोहित समाज के हाथ में थी और आज भी है। वास्तव में देश के 85 प्रतिशत बहुजन समाज की स्थिति आज भी ब्राह्मणों का धार्मिक और सांस्कृतिक गुलाम से अधिक की नहीं है। वह केवल उतना ही करता है जितना उसका धार्मिक और सांस्कृतिक मुखिया/ मालिक निर्देश करता है।

नागपुर परिषद से पिछड़ों और अस्पृश्यों को यह स्पष्ट हो गया था कि संघ और शक्ति के बिना हमारे समाज का उद्धार नहीं हो सकता। इन दोनों परिषदों और शाहूजी महाराज के प्रबल और सशक्त समर्थन से दलितों और पिछड़ों को काफी आत्मसमान और आत्मबल प्राप्त हो गया था। इस सारी कवायद में शाहूजी महाराज की प्रेरणा कार्य कर रही थी। अब इस आंदोलन के नेता इस तरह का कोई अवसर ढूँढ रहे थे जिसमें ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी बात रख सकें और अनुरोध कर सकें, अपने समाज की पशुवत सामाजिक जीवन के बारे में बता सकें। उन्हें बहुत समय इंतज़ार नहीं करना पड़ा।

फिर भी नागपुर शहर ने शाहूजी महाराज का भव्य स्वागत किया। समाज के लगभग हर तबके ने महाराज का स्वागत अपने हिसाब से किया। यह आज से सौ साल पहले का समय था। सरदार व्यंकट राव गुर्जर ने महाराज के स्वागत जुलूस के लिए हाथी, ऊँट, ढोल, तासे आदि भेजे, खान बहादुर मलिक साहब ने अपना व्यक्तिगत सुन्दर रथ भेजा। पूरे शहर में सजावट की गई थी। गरीब जनता में मानो उमंग की लहरें उठ रही थीं। नागपुर के सभी लोग इससे ही अभिभूत थे कि कोल्हापुर के महाराज हमारी परिषद की अध्यक्षता करने हमारे शहर पधारे हैं। रास्ते भर शाहूजी महाराज की जय-जयकार होती रही। उनके इस शाही जुलूस में आमजन की भीड़ देखकर विरोधी खेमे में मातम-सा छा गया। फिर भी विरोधी पुरोहित समाज के लिए नीचता तो मानो पैदायशी गुण था। जगह-जगह उन्होंने डेढ़ों का राजा के नाम से पोस्टर लगा रखे थे। जुलूस में शामिल लोगों ने इन पोस्टरों को फाड़ कर उसकी होली जलाई। किसी तरह की कोई अप्रिय घटना शहर में न हो इसलिए ‘समता सैनिक दल’ की टुकड़ियां सारे शहर में फैली हुई थीं। आश्चर्य है! कि अस्पृश्य समाज इतना जागरूक हो गया था 100 साल पहले। शर्म से सिर झुक जाता हैं जब हम इसकी तुलना करते हैं सतीश चन्द्र मिश्र और अपने बहुजन नेताओं से। शाहूजी महाराज के पंडाल में आते ही गगन भेदी जयघोष हुआ। बहुत ही उत्साह और शान से स्वागत हुआ। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा-

‘अस्पृश्यता मानव समाज के लिए कलंक है। किसी को भी बिना अपराध किए ही समाज से बहिष्कृत कर देना, अपराधी और बेईमान समाज का द्योतक है। आप लोग उनसे अधिक बुद्धिमान, अधिक ताकतवर, अधिक त्यागी और देश सेवी हैं जो आपसे अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं। आप देश के एक महत्वपूर्ण घटक हैं। मैं आपको बुद्धि-पराक्रम में किसी प्रकार ब्राह्मण समाज से कम नहीं समझता। हम सब आपस में भाई हैं। हमारे हक, अधिकार और कर्तव्य बराबरी के हैं। इसी को आधार मानकर हमें काम करना है। मेरे घर-परिवार के लोगों को अपना निर्णय स्वयं लेने की स्वतंत्रता है। जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है उन्हें मेरा पूरा समर्थन रहता है। जिन्हें अच्छी नहीं लगती उनका विरोध या दंड नहीं दिया जाता। हम सब भारतीय है। भारतीय प्रजाजन किसी भी वर्ण जाति के हों, उनसे राज्य कोई भेदभाव नहीं करेगा। व्यक्ति की दृष्टि में धर्म एक महत्वपूर्ण बात है परंतु उससे राष्ट्र को कोई लेना-देना नहीं हैं। राष्ट्र की निगाह में सभी नागरिक बराबर हैं, चाहे वे किसी भी जाति धर्म के हों। जनता में ईश्वर की खोज करना, अपने देश भाइयों और इनमें जो सबसे अधिक दबे-कुचले हैं, पिछड़े हैं उनकी विशेष देखभाल करना ही सच्चा धर्म है। जहाँ तक मैं समझता हूँ सभी धर्म यही कहते हैं। इसके स्थान पर धर्म और ईश्वर के नाम पर मानव-मानव में भेद करना, अपने आपको सर्वश्रेष्ठ बताते हुए अपने ही समान एक समूह को बिना कोई अपराध किए ईश्वर के नाम पर कठोर दंड देना धर्म नही धूर्तता है और मानवता के प्रति ऐसा अपराध है जिसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व में नहीं है। वह भी बाकायदा कानून बनाकर, नियम बना कर, ग्रंथों की रचना कर और सम्पूर्ण संस्कृति को मानवता के विनाश की ओर धकेल देना एक संगठित और सांस्कृतिक अपराध है। इन्हीं ग्रंथों के आधार पर वह अपने भाइयों पर ही अमानुषिक अत्याचार करते हैं। मानवता का इससे अधिक विनाश पूरे विश्व में कहीं नहीं हुआ है। इन ग्रंथों के आधार पर हम चाहे जितने कथा, भागवत, पूजा पाठ, तीर्थ आदि करते रहें, हमेशा ईश्वर के आगे हाथ जोड़े बैठे रहे। इससे ईश्वर कतई खुश नहीं होते।

ब्रिटिश सरकार का हमारे देश पर बहुत उपकार है, विशेष रूप से अस्पृश्य समाज के ऊपर। उन्होंने केवल एक वर्ग ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का कानून समाप्त कर सभी को समान हक दिलाया है। इससे पहले ब्राह्मण समाज और कुछ मजबूत समाजों को कानून में साफ-साफ विशेषाधिकार प्राप्त थे। जघन्य से जघन्य अपराध सिद्ध होने पर भी उन्हें कोई दण्ड न देकर उन्हें परमेश्वर का अवतार माना जाता था। बाकी सब जाति के लोग पैदायशी तुच्छ थे। समाज का एक हिस्सा जिसे अस्पृश्य कहा जाता यहाँ कानून में उनकी स्थिति कुत्ते-बिल्ली से अधिक नहीं मानी गई थी। उन्हें ब्राह्मण और क्षत्रियों की सेवा करने के लिए ही बनाया गया था। शूद्रों को धन रखने का अधिकार ही नहीं दिया गया था। हत्या जैसे गम्भीर प्रकरणों में भी ब्राह्मणों को मात्र देश निकाला ही दिया जा सकता था। उनके लिए इससे अधिक दंड का विधान ही नहीं था या तो कहें कि उन्हें अत्याचार करने की खुली छूट थी। इस तरह का कानून मनु ने बना रखा था, जिसे अंग्रेजों ने कानून बनाकर समाप्त किया।

स्वतंत्रता, समता, न्याय, बंधुता और बुद्धि प्रमाण या विज्ञान पर आधारित धर्म ही सच्चा धर्म है। अन्यथा धर्म के आधार पर सब ढोंग है। ऐसा आपके समाज के सबसे विद्वान नेता डॉ. भीम राव अम्बेडकर का कहना है। भीम राव अम्बेडकर आज की तारीख में देश के सबसे बड़े विद्वान हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि हमें भीम राव जैसा नेता प्राप्त हुआ। हम सभी को उनका अनुसरण करना चाहिए।

इस देश की उन्नति इस बात और समय पर निर्भर करती है कि कितनी शीघ्रता या विलम्ब से जाति व्यवस्था समाप्त की जाती है। जातिभेद निर्मूलन के लिए रोटी बेटी का सम्बंध आवश्यक है। इसके लिए अंतर्जातीय विवाह बहुत आवश्यक है। पुराने कानून अंतर्जातीय विवाह की मान्यता नहीं देते। इसके लिए नए कानून की आवश्यकता है। नम्बरदार मि. पटेल ने इस तरह एक कानून बनाने का सवाल काउंसिल में उठाया था। ऐसा कानून बहुत आवश्यक है। ऐसा करने से ब्राह्मणों का महत्व कम होगा और समाज में बराबरी आएगी। इसीलिए समाचार पत्रों ने इस बिल का कड़ा विरोध किया था। जो बातें प्रकाशित होती हैं, वही समाज और देश के सामने आती हैं। ब्राह्मण समाज के लोग सीधे सीधे यह कहते हैं कि वे पूरे समाज के नेता हैं और उन्हें हमसे हमदर्दी है। लेकिन जब काम करने की बात आती है तो वह अपने देश भाइयों का ही विरोध करते हैं और ऐसा विरोध कि अपने देश भाइयों के लिए मैं स्कूल खोलता हूँ तो वे मेरा विरोध करते हैं। यहाँ तक कि समाचार पत्रों के माध्यम से अपशब्द तक कहे जाते हैं, फिर भी मैं समाज के कमजोर वर्गों के लिए काम करता हूँ। इन मतलबी लोगों की बातें कहाँ तक सच हैं यह आप लोगों पर छोड़ता हूँ।

मैं आपकी सभा का अध्यक्ष बन गया हूँ, आपका पक्ष लेता हूँ। इसलिए भी ब्राह्मण समाज के लोग मेरी भर्त्सना करते हैं। लोगों के बीच मेरी बुराई करते हैं। परंतु उनके इस कृत्य से मुझे और भी उत्साह मिलता है। जो समाचार पत्र मेरी भर्त्सना करते हैं, मैं उनका भी अभिनंदन करता हूँ और अपने काम में लगा रहता हूँ। मेरी ओर से आप लोग कोई शंका मत रखें। मेरे प्रिय मित्र निंबालकर, दत्तोबा पेंटर, बाबू राव जाधव, कदम, बेलगाँव के पाटिल आप लोगों को जब मेरी जरूरत लगे नि:संकोच बताना आपका अनुरोध मेरे लिए आदेश है। मैं अब कमजोर हो रहा हूँ। मेरे स्थान पर मेरा बेटा अब कार्यभार सम्भालने लायक हो गया है। मुझे यदि समय मिला तो अवश्य ही यह राजपद छोड़कर मैं आपके साथ समाजसेवा में शामिल हो जाऊँगा। आप मेरी सेवा स्वीकार करेंगे इसका मुझे विश्वास है। इस परिषद की सबसे महत्त्वपूर्ण परिणति बाबा साहब के व्यक्तित्व का उभार के रूप में सामने आई। यहीं से वह देश के नेता और सबसे बड़े विद्वान के रूप में उभर कर आते हैं।

4. दिल्ली परिषद

नागपुर परिषद से पिछड़ों और अस्पृश्यों को यह स्पष्ट हो गया था कि संघ और शक्ति के बिना हमारे समाज का उद्धार नहीं हो सकता। इन दोनों परिषदों और शाहूजी महाराज के प्रबल और सशक्त समर्थन से दलितों और पिछड़ों को काफी आत्मसमान और आत्मबल प्राप्त हो गया था। इस सारी कवायद में शाहूजी महाराज की प्रेरणा कार्य कर रही थी। अब इस आंदोलन के नेता इस तरह का कोई अवसर ढूँढ रहे थे जिसमें ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी बात रख सकें और अनुरोध कर सकें, अपने समाज की पशुवत सामाजिक जीवन के बारे में बता सकें। उन्हें बहुत समय इंतज़ार नहीं करना पड़ा। यह अवसर उन्हें 15 फरवरी, 1922 को प्राप्त हो गया, जब ब्रिटिश युवराज दिल्ली आने वाले थे। ब्रिटिश युवराज के भारत भ्रमण के कार्यक्रम के अनुसार अस्पृश्यों के नेता गणेश अक्काजी गवई और उनके साथियों ने 15 और 16 फरवरी, 1922 को दिल्ली में अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद का आयोजन किया। इस आयोजन की अध्यक्षता और ब्रिटिश युवराज जॉर्ज पंचम के समक्ष अपनी बात रखने के लिए गवई और उनके साथियों ने शाहूजी महाराज से अनुरोध किया। चूंकि ब्रिटिश युवराज के सम्मान में आयोजित कार्यक्रम में शाहूजी महाराज भी आमंत्रित थे। अत: उन्होंने सलाह दी कि आप लोग अपनी बात स्वयं युवराज के समक्ष रखें। अच्छा होगा कि जिस मार्ग से ब्रिटिश युवराज निकले उसी मार्ग के किनारे आप सब एकत्र हो जाए आपकी संख्या देखकर युवराज अवश्य ही रुकेंगे और आपकी बात सुनेंगे। वैसे मिलने और अनुरोध करने से आपकी बात का विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा और आपके कार्यक्रम में वह वैसे नहीं जाएँगे और कांग्रेस के नेता कतई नहीं चाहेंगे कि आपकी बात की भनक भी युवराज के कानों तक पहुँचे वह आपका जन्मजात विरोध कर रहे हैं उनसे उम्मीद ही बेकार है। 15 फरवरी को युवराज दिल्ली गेट को जाएँगे। आप सब भारी से भारी संख्या में उनके मार्ग के किनारे एक स्थान पर एकत्र होकर उनकी सवारी निकलने का इंतज़ार करें और उनके आने पर सम्मान करते हुए अपनी बात रखें।

महाराज की सलाह पर वह सब सड़क के किनारे अपनी पूरी व्यवस्था के साथ एकत्र हो गए। ब्रिटिश युवराज अपने निर्धारित समय से दिल्ली गेट के लिए निकले तो रास्ते में 60 हजार से अधिक की संख्या में अपार जन समूह देखकर उन्होंने अपनी कार रोक दी। उनका काफिला वहीं रुक गया। उन्होंने पृच्छा की कि इतनी बड़ी संख्या में लोग यहाँ क्यों एकत्र हैं? गणेश अक्काजी अपने साथियों के साथ आए और वहाँ एकत्र होने का कारण बताया। युवराज का सम्मान किया और अपनी स्थिति से अवगत कराया। इन लोगों की ओर से युवराज को मान पत्र दिया गया। मान पत्र में लिखा हुआ था कि हम आपकी वह प्रजा हैं जो कुत्ते-बिल्ली से भी खराब स्थिति में गुज़र-बसर कर रहे हैं। हमें अपने भाइयों ने इतना कुचल रखा है कि यदि कहीं गलती से छू भर जाए तो यह हमारे लिए सरेआम पिटने के लिए पर्याप्त है। हमारे प्राणों की कीमत ब्राह्मणों के लिए कुत्ते-बिल्ली से अधिक नहीं है। इज़्ज़त-आबरू और पढ़ने-लिखने की बात तो बहुत दूर है हमारा जन्म ही ब्राह्मणों की गुलामी करने और मार खाने के लिए हुआ है ऐसा धर्म ग्रंथों में लिखा हुआ है और यही यहाँ का कानून है। यही ब्राह्मण समाज के लोग आपका विरोध कर रहे हैं और स्वयं सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं। यदि ये लोग सत्ता का काबिज हो गए तो हमारी दशा और खराब हो जाएगी। आपके शासन से हमें पढ़ने लिखने और जीने का अधिकार मिला है। अत: हम आपके माध्यम से महाराजा से अनुरोध करना चाहते हैं कि हमारे शासन सूत्र अपने ही हाथ में रखें ब्राह्मणों के हाथ में न दें। कांग्रेस और ब्राह्मण हमारे नेता नहीं है। हमारा पक्ष हमारी जाति के नेता से ही सुनकर हमारे बारे में निर्णय लिया जाए।’

दुभाषिए के माध्यम से उन्होंने सारी बात सुनी तो वह स्तब्ध रह गए। मानवता का इतना बड़ा विनाश वह भी कानून बनाकर उन्होंने कहीं नहीं देखा या सुना था। उन्होंने आश्वासन दिया किया वह अवश्य ही उनकी बात महारानी तक पहुँचाएँगे।

इसी क्रम में आगे 16 फरवरी 1922 को अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद का आयोजन किया गया था। इस आयोजन में अध्यक्षीय उद्बोधन करते हुए शाहूजी महाराज ने कहा, ‘वास्तव में इस आयोजन में अध्यक्ष पद का अधिकार भीमराव अम्बेडकर का है। आपके ही रक्त से बने हुए यह आपके समाज के ही ऐसे आदमी हैं जो पूरी तरह आपके साथ हैं। यह मुझसे ज्यादा या यों कहें आज की तारीख में सबसे अधिक पढ़े-लिखे आदमी हैं। इस समय वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए विलायत गए हुए हैं, इसी कारण वह इस परिषद में शामिल नहीं हो सके हैं। वह जहाँ भी होंगे इसी में लगे होंगे कि किस तरह अपने देश भाइयों का कल्याण किया जा सके। आप इतनी विपन्न अवस्था में होते हुए भी देश के कोने-कोने से चलकर यहाँ आए हैं। आपने सम्राट जार्ज पंचम के युवराज का स्वागत सम्मान किया है। आपको इसके लिए धन्यवाद। उनके माध्यम से अपनी बात शीर्ष सत्ता तक पहुँचाने का जो मार्ग आपने अख्तियार किया है, वह उत्तम है। इस सम्बंध में आपकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। आप सबमें स्वत्व की पहचान मुझे दिख रही है। इस नई अस्मिता के आधार पर आप लोगों ने संघर्ष कर आत्मविश्वास का जो बिगुल बजाया है उसे आगे बढ़ाते रहें और कितनी भी बाधाएँ आएँ आप लोग रुकना मत, तभी हम लोग अपने उद्देश्य में सफल होंगे और सामाजिक अधिकारों को पा सकेंगे।

‘पुरखों के व्यवसाय से लिपटे मत रहो, यह मेरा आपसे हाथ जोड़कर अनुरोध है। कड़े से कड़ा परिश्रम करो, अपनी भूख को काबू में रखो, कुछ भी करो, बच्चों को अवश्य पढ़ाओ, उनकी पढ़ाई में कोई बाधा न आने दो। खेती छोड़ कर कोई और व्यवसाय करो, लश्कर में भर्ती हो जाओ, सरकारी दफ़्तरों में नौकरी पकड़ो, अपनी मेहनत से उन्नति करो।

मेरा एक छोटा सा राज्य है, लेकिन वहाँ पर सरकारी दफ़्तरों में पिछड़ों और दलितों को 50 प्रतिशत पदों पर आरक्षण दिया गया है। एक अस्पृश्य भाई को म्यूनिसिपल कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है। अपने मुँह से बड़ाई नहीं है सत्य कह रहा हूँ। आपको अवसर मिला तो आप ऊँचे से ऊँचे पद पर पहुँच सकते हैं। अभी अपने समाज को नया आकार प्राप्त हो रहा है अभी हमारा समाज चलना सीख रहा है। हिंदू रीति के विपरीत सभी को समान अधिकार और मौका देना ब्रिटिश सरकार का सिद्धांत है उसी के कारण आपको बोलने की आजादी मिली हुई है। भीम राव अम्बेडकर आपके महान नेता है, उनका अनुसरण करो, उनके जैसा बनाने का प्रयास करो। मैंने तो अपना जीवन मानवता को समर्पित कर दिया आप भीम राव अम्बेडकर के बताए हुए मार्ग पर चलो आपसे यही इतना अनुरोध है। (श्याम थेड़कर – राजर्षि शाहू छत्रपति यांची भाषण, पृ. 79 -81, राजर्षि शाहू राजा व माणूस, पृ. 407 – 410)

परिषद सम्पन्न होने पर महाराज शाहूजी, गणेश अक्काजी गवई से बोले, ‘आपको जो चाहे खुले दिल से माँग लो, ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता है। मेरे बाद आपकी मदद को कोई हाथ इस तरह अपने आप सामने करने वाला मिलेगा नहीं।’ इस पर गवई ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘महाराज, जब हमारे भगवान के रूप में आप स्वयं हमारे साथ हो तो आप के होते हुए हमें किस चीज की जरूरत हो सकती है जिसे माँगा जाए।’

इस तरह दिल्ली परिषद सम्पन्न हुई। इसी परिषद के पहले युवराज से भेंट का ही प्रभाव था कि अछूतों की समस्या अंग्रेज सरकार के सामने आई फिर भी जैसा कि हम देखते हैं कि साइमन कमीशन के सामने गाँधी एंड पार्टी ने किस तरह धोखा कर यह साबित कर दिया कि भारत में कोई भेदभाव या अस्पृश्यता है ही नहीं। यहाँ से लौटने के बाद महाराज बड़ौदा नरेश की पुत्री के विवाह में शामिल होने और वहाँ से वापस आने पर मुम्बई में ही 22 मई को मात्र 48 वर्ष की आयु में ही उनका देहांत हो जाता है। इतिहास गवाह है। पूना पैक्ट के समय दो वोटों और पृथक निर्वाचक मंडल का अधिकार छोड़ने के लिए कितना दबाव पड़ा था बाबा साहब के ऊपर, और बाबा साहब उस समय अकेले पड़ गए थे। यदि शाहूजी महाराज उस समय जीवित रहते तो कदाचित वर्तमान भांड प्रतिनिधित्व की व्यवस्था लागू नहीं हो पाती।

आचार्य मिंदर चौधरी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और गोरखपुर के रानीडीहा में रहते हैं।

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