अजीत कुमार
शैलेंद्र ने जीवन के हर रंग को अपने गीतों में स्वर दिया। फिर चाहे वे प्रेम गीत हों, जनता की समस्याओं को उभारते नगमें हों या फिर फिल्मकार द्वारा दी गयी सिचुएशन को शब्द देना हो। शैलेंद्र हर परीक्षा पर खरे उतरे।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि हिंदी के एक बड़े विद्वान और आलोचक जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, महान गीतकार शैलेंद्र को हिंदी सिने जगत का रैदास कहा करते थे। इतना ही नहीं कुछ अन्य विद्वानों ने तो शैलेंद्र को हिंदी फिल्मों का बादलेयर और मलार्मे कहकर भी पुकारा। स्वयं राजकपूर उन्हें पुश्किन कहकर पुकारते थे। उन्हीं शैलेंद्र का आज जन्म दिवस है।
बहरहाल, कोई उन्हें किसी नाम से पुकारे हमारे लिए तो शैलेंद्र तो बस शैलेंद्र हैं, हिंदी फिल्मों के बेहतरीन गीतकार।
शैलेंद्र अपने पीछे साहित्य की कोई विरासत लेकर नहीं आये थे। कहने का अर्थ यह कि उनकी पृष्ठभूमि बहुत साहित्यिक नहीं थी। वह इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से अवश्य जुड़े थे और यही वजह है कि उनके भीतर एक जनगीतकार के तेवर एकदम साफ नजर आते थे। लेकिन इसके बावजूद उनके अंदर (साहित्य/विचारधारा बनाम फिल्म मीडियम को लेकर ) कोई दुविधा नहीं थी। वे फिल्मों में आए और इस विधा को उन्होंने पूरी तरह से आत्मसात किया। इसकी बारिकियों को समझा। इस माध्यम के लिए गीत लेखन को लेकर जो हुनर चाहिए था उसको बखूबी तरासा और यह कहना बेजा न होगा कि वे इस मामले में पूरी तरह से सफल रहे।
एक सच्चे गीतकार के तौर पर उन्होंने इस फिल्म माध्यम के हर पक्ष को समझने की कोशिश की। जो सलाहियत शायद ही उनके समकालीन किसी और गीतकार में थी। हालांकि इसका एक पहलू और भी है। अपनी इसी सलाहियत की वजह से शैलेंद्र को यह लगा कि एक गीतकार के तौर पर जो समझ उन्होंने विकसित की है उसका इस्तेमाल वे एक सार्थक फिल्म के निर्माण में भी कर सकते हैं। और यहीं शायद वे गच्चा खा गए। क्योंकि ठहरे तो वे सिर्फ गीतकार, भले ही उन्होंने गीत लेखन के जरिए फिल्म माध्यम को कितना भी क्यूं न समझा हो। उन्हें कहां पता था कि फिल्मों के लिए गीत लिखना और एक व्यावसायिक फिल्म बनाना एक दूसरे से कितना अलग है। बतौर निर्माता यही गलती उन्होंने फिल्म तीसरी कसम (1966) के निर्माण को लेकर की। जो आखिर उनके लिए आत्महंता आस्था साबित हुई ।
फिल्म माध्यम को समझ कर या कहें उसकी जरूरतों के हिसाब से गीत लेखन में शैलेंद्र अपने समकालीन गीतकारों में सबसे आगे रहे। और इसी वजह से फिल्मों की सफलता में इनके लिखे गीतों का भी बड़ा योगदान था। शायद एक गीतकार के तौर पर शैलेंद्र ने जितनी भी फिल्में की, उनमें ज्यादातर फिल्में व्यावसायिक रूप से भी काफी सफल रही। उन्होंने हमेशा सिचुएशन को ध्यान में रखकर गीत लिखा। फिल्म की जरूरत या कहें तो निर्देशक की समझ को उनके अंदर के गीतकार ने हमेशा तवज्जो दी। शायद यह बात कुछ लोगों को उतना अच्छा न लगे। कहें तो बतौर गीतकार उनके अंदर कोई गुरूर नहीं था। गीत, किस मीटर पर लिखना है, सिचुएशन के हिसाब से लिखी गई है या नहीं, इसको लेकर शायद ही उनकी कभी फिल्म के निर्देशक या संगीत निर्देशक से ठनी हो। और यही वह बात है जिसके चलते शैलेंद्र के गीत इतने सरल, संगीतमय और सिचुएशन में फिट बैठते हैं। आज भी शैलेंद्र के लिखे जितने गीत आम लोगों की जुबान पर हैं शायद ही उनके समकालीन गीतकारों में से किसी के रहे हों। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सिचुएशन और म्यूजिक डायरेक्टर के द्वारा दिए गए मीटर पर लिखने की वजह से उनके गीतों की क्वालिटी में कभी कमी नहीं आयी। उन्होंने इस बात के लिए कभी कोई शर्त नहीं रखी कि मैं पहले से तय मीटर पर गीत नहीं लिखूंगा। जबकि उस समय के कुछेक बड़े गीतकारों को लेकर यह बात बहुत प्रसिद्ध थी कि वे पहले से तय मीटर पर गीत नहीं लिखते हैं।
तब फिर एक बात उठती है कि आखिर इन बंदिशों के बावजूद शैलेंद्र के गीत इतने लोकप्रिय क्यों हुए। बात साफ है मीडियम की स्पष्ट समझ, उसके हिसाब से लिखने का हुनर जिसको आप गीतकार का रेंज भी कह सकते हो और सबसे बड़ी बात हर सिचुएशन में अपनी बात शब्दों में सरल और सहज ढब से पिरोने की बाजीगरी। शैलेंद्र के गीत भले ही सरल हैं लेकिन भावपूर्ण हैं। और पते की बात यह की उन्होंने बड़ी से बड़ी बात कितनी सहजता और सरल शब्दों में कह दी। चाहे कितने भी छोटे मीटर पर गीत लिखे गए हों, शैलेंद्र उसमें अपनी बात रखने में सफल ही रहे। यहां तक कि हल्के-फुल्के गीतों में भी उन्होंने जीवन के रंग भर दिए। बानगी के तौर पर फिल्म श्री चार सौ बीस का गीत लीजिए: दिल का हाल सुने दिल वाला …। छोटे मीटर पर लिखे उनके बहुतेरे ऐसे गीत हैं। मसलन..
मत रो माता, लाल तेरे बहुतेरे
जन्मभूमि के काम आया मैं, बड़े भाग हैं मेरे
मत रो माता, लाल तेरे बहुतेरे, मत रो
हँसकर मुझको आज विदा कर, जनम सफल हो मेरा
रोता जग में आया, हँसता चला ये बालक तेरा
मत रो माता, लाल तेरे बहुतेरे, मत रो
धूल मेरी जिस जगह तेरी मिट्टी से मिल जाएगी
सौ-सौ लाल गुलाबों की फुलबगिया लहराएगी
मत रो माता, लाल तेरे बहुतेरे, मत रो
कल मैं नहीं रहूँगा लेकिन, जब होगा अँधियारा
तारों में तू देखेगी हँसता एक नया सितारा
मत रो माता, लाल तेरे बहुतेरे, मत रो
फिर जन्मूँगा उस दिन जब आज़ाद बहेगी गंगा, मैया
उन्नत भाल हिमालय पर जब लहराएगा तिरंगा
मत रो माता…
इसी गीत को लेकर यहां पर एक वाकया का जिक्र जरूरी है। जब फिल्म ताजमहल के लिए महान गीतकार साहिर लुधियानवी (Sahir Ludhianvi) को फिल्म फेयर अवॉर्ड (1964) दिया जा रहा था तब उन्होंने यहां तक कहां था कि शैलेंद्र फिल्म बंदिनी के लिए लिखे अपने गीत, मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे….. के लिए इस अवॉर्ड के मुझसे ज्यादा हकदार हैं। यही नहीं साहिर ने इस गीत को अपने समय का सबसे बेहतर देशभक्ति गीत तक कहा था ।
शैलेंद्र के गीतों में जीवन के जो रंग हैं, वह मोटे तौर पर उर्दू या फारसी के रंग से जुदा है। अगर उर्दू की बात करें तो उन्हें नज़ीर अकबराबादी की परंपरा में रखना होगा। इनके यहां ये रंग जोगियों, साधुओं, लोक गायिकी, भक्तिकालीन कवियों के लगते हैं। शायद तभी तो शैलेंद्र को रैदास तक कहा गया। फिल्म सीमा (1955) का टाइटल गीत, तू प्यार का सागर है.. सुनकर यह बात समझ में आ जाती है:
तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूँद के प्यासे हम
लौटा जो दिया तूने, चले जाएँगे जहाँ से हम
तू प्यार का सागर है
घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेक़रार
पंख हैं कोमल, आँख है धुंधली, जाना है सागर पार
अब तू ही इसे समझा, राह भूले थे कहाँ से हम
तू प्यार का सागर है …
इधर झूमके गाए ज़िंदगी, उधर है मौत खड़ी
कोई क्या जाने कहाँ है सीमा, उलझन आन पड़ी
कानों में ज़रा कह दे, कि आएँ कौन दिशा से हम
तू प्यार का सागर है …
इसी तरह आप फिल्म बंदिनी (1963) के गीत मसलन… मेरे साजन हैं उस पार…। गाइड (1965) के गीत, वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर, जाएगा कहाँ…, चली कौन से देश, गुजरिया तू सज-धजके… (बूट पॉलिश 1954), ना मैं धन चाहूँ, ना रतन चाहूँ… (काला बाज़ार 1960), … आदि ऐसे ही उदाहरण हैं।
शैलेंद्र के रूमानी गीत भी अलग ही अहसास करा जाते हैं। मसलन फिल्म चोरी चोरी (1955) का गीत : ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फ़िज़ाएँ, उठा धीरे-धीरे.. , दम भर जो उधर मुँह फेरे (आवारा 1951), साँझ ढली, दिल की लगी थक चली पुकार के … (काला बाज़ार 1960), आज फिर जीने की तमन्ना है…. (गाइड)।
ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फ़िज़ाएँ, उठा धीरे-धीरे वो चाँद प्यारा-प्यारा
क्यूँ आग-सी लगाके गुमसुम है चाँदनी, सोने भी नहीं देता मौसम का ये इशारा
इठलाती हवा, नीलम-सा गगन, कलियों पे ये बेहोशी की नमी
ऐसे में भी क्यूँ बेचैन है दिल, जीवन में न जाने क्या है कमी
क्यूँ आग-सी लगाके गुमसुम है चाँदनी, सोने भी नहीं देता मौसम का ये इशारा
ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फ़िज़ाएँ, उठा धीरे-धीरे वो चाँद प्यारा-प्यारा
जो दिन के उजाले में न मिला, दिल ढूँढ़े ऐसे सपने को
इस रात की जगमग में डूबी, मैं ढूँढ़ रही हूँ अपने को
ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फ़िज़ाएँ, उठा धीरे-धीरे वो चाँद प्यारा-प्यारा
क्यूँ आग-सी लगाके गुमसुम है चाँदनी, सोने भी नहीं देता मौसम का ये इशारा
ऐसे में कहीं क्या कोई नहीं भूले-से जो हमको याद करे
एक हल्की-सी मुस्कान से जो सपनों का जहाँ आबाद करे
ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फ़िज़ाएँ, उठा धीरे-धीरे वो चाँद प्यारा-प्यारा
क्यूँ आग-सी लगाके गुमसुम है चाँदनी, सोने भी नहीं देता मौसम का ये इशारा
और भी अलग अलग सिचुएशन पर लिखे उनके कुछ गीतों की बानगी देखिए, तेरा जाना, दिल के अरमानों का लुट जाना…., किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार… (अनाड़ी 1959), भैय्या मेरे राखी के बंधन को निभाना… (छोटी बहन 1959), नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए… (मासूम 1960), छोटी-सी ये दुनिया…. (रंगोली 1962), रुक जा रात ठहर जा रे चँदा… (दिल एक मंदिर 1963), तेरे बिन सूने नयन हमारे….(मेरी सूरत तेरी आँखें 1963), दिन ढल जाए हाय रात ना जाए… (गाइड), अब के बरस भेज भैया को बाबुल… (बंदिनी), हैं सबसे मधुर वो गीत…(शैली की कविता ‘To a Skylark’ की मशहूर पंक्तियां ..Our sweetest songs are those that tell of the saddest thought …..का हिंदी अनुवाद), मिट्टी से खेलते हो बार-बार…. (पतिता 1953)।
कुछ ऐसे भी गीत हैं जहां उनका वैचारिक रुझान साफ नजर आती है मसलन फिल्म उजाला (1959) का गीत, सूरज ज़रा आ पास आ… और फिल्म दो बीघा जमीन का गीत, अजब तोरी दुनिया, हो मोरे रामा…. ।
सूरज ज़रा आ पास आ
आज सपनों की रोटी पकाएँगे हम
ऐ आसमाँ तू बड़ा मेहरबाँ
आज तुझको भी दावत खिलाएँगे हम
सूरज ज़रा आ पास आ…
चूल्हा है ठण्डा पड़ा, और पेट में आग है
गरमा-गरम रोटियाँ, कितना हसीं ख़्वाब है
सूरज ज़रा आ पास आ …
अजब तोरी दुनिया, हो मोरे रामा, अजब तोरी दुनिया
पर्बत काटे, सागर पाटे, महल बनाए हमने
पत्थर पे बगिया लहराई, फूल खिलाए हमने
होके हमारी हुई ना हमारी
होके हमारी हुई ना हमारी, अलग तोरी दुनिया
हो मोरे रामा, अजब तोरी दुनिया, हो मोरे रामा…
अपने वैचारिक गीतों में भी शैलेंद्र कहीं अकादमिक ओट नहीं लेते हैं। वह व्यक्तिगत तकलीफ की नहीं बल्कि उस पूरे समाज (सबऑल्टर्न) के अव्यक्त दुख को स्वर देते हैं, जो सिर्फ आर्थिक ही नहीं सामाजिक तौर पर भी वंचित हैं। इनके गीतों में जो तिरती उदासी, नैराश्य, डेथ यानी जीवन की नश्वरता को लेकर ऑब्सेशन है, वह सिर्फ उनका नहीं बल्कि उस समाज का भी युगबोध है जो अभिजात्य/संभ्रांत साहित्य में नहीं, बल्कि लोक गायिकी, लोक गाथाओं और लोक परंपराओं में ही मिलता है। जहां नश्वरता के तिलिस्म के जरिए दुखों पर मुस्कुराने की, दुखों से पार पाने की कोशिश सदियों से जारी है ….।
फिल्म तीसरी कसम के गीत, सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है…. को सुनिए। कितने सरल बोल हैं लेकिन क्या असर है। लगता है जैसे कोई साधु या जोगी जीवन की सच्चाई को अपने फक्कड और बेगाने अंदाज में बयां कर रहा हो। निर्गुण का रंग लिए इस गीत में शैलेंद्र ने जिन फ्रेज या शब्दों का इस्तेमाल किया है, वे बिल्कुल आम लोगों के बीच प्रचलित हैं। जैसे, न हाथी है न घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है,….. बही लिख-लिख के क्या होगा…।
कविता यानी पोएट्री आम लोगों के साथ कनेक्ट तभी करती है मतलब उसका असर लोगों के ऊपर तभी खुलता है जब उसमें लिए गए शब्द, फ्रेज उसी जनमानस की स्मृति से लिए गए हों। ऐसे और भी कई गीत शैलेंद्र ने लिखे हैं। फिल्म दो बीघा जमीन के सारे के सारे गीत भावपूर्ण हैं। धरती कहे पुकार के…, के असर को महसूस कीजिए। अपनी मिट्टी से बिछड़ने के दर्द को शैलेंद्र ने कितनी सादगी लेकिन कितनी भावप्रवणता से बुना है।
भाई रे
गंगा और जमुना की गहरी है धार
आगे या पीछे सबको जाना है पार
धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के
मौसम बीता जाए, मौसम बीता जाए
अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा
कौन कहे इस ओर, तू फिर आए न आए
मौसम बीता जाए, मौसम बीता जाए
तेरी राह में कलियों ने नैन बिछाए
डाली-डाली कोयल काली तेरे गीत गाए
अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा
कौन कहे इस ओर, तू फिर आए न आए
मौसम बीता जाए, मौसम बीता जाए
भाई रे
नीला अंबर मुस्काए, हर साँस तराने गाए, हाय तेरा दिल क्यूँ मुरझाए
मन की बँसी पे तू भी कोई धुन बजा ले भाई, तू भी मुस्कुरा ले
अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा
कौन कहे इस ओर, तू फिर आए न आए
मौसम बीता जाए, मौसम बीता जाए…..
इसी फिल्म की एक लोरी, आजा री आ, निंदिया तू आ… को हिंदी फिल्मों की बेहतरीन लोरियों में से एक माना जाता है। सलिल चौधरी (Salil Chowdhury) की संगीत रचना तो कमाल की है ही, बोल में भी कितना वात्सल्यता और मिठास है:
आजा री आ, निंदिया तू आ
झिलमिल सितारों से उतर, आँखों में आ, सपने सजा
आजा री आ, निंदिया तू आ
सोई कली, सोया चमन, पीपल तले सोई हवा
सब रंग गए एक रंग में, तूने ये क्या जादू किया
आजा री आ, निंदिया तू आ…
संसार की रानी है तू, राजा है मेरा लाडला
दुनिया है मेरी गोद में, पूरा हुआ सपना मेरा
आजा री आ, निंदिया तू आ…
आवारा (1951) के सारे गीत काफी लोकप्रिय है। जिसको मैं दोहराना नहीं चाहता। इस फिल्म के शुरुआती हिस्से में एक कमाल का कोरस है, जुलम सहे भारी जनक दुलारी…। शंकर जयकिशन (Shankar–Jaikishan) की संगीत रचना में शैलेंद्र ने क्या बोल पिरोये हैं। बिल्कुल जोगी और साधु के सधुक्कड़ी/फक्कड़ाना अंदाज में।
जुलम सहे भारी, जनकदुलारी…..
गगनमहल का राजा देखो कैसा खेल दिखाए
सीप से मोती, गंदले जल में सुंदर कँवल खिलाए
अजब तेरी लीला है गिरधारी…
यही रंग इस फिल्म के एक और कोरस नैय्या तेरी मँझधार… में भी है।
और अंत में शैलेंद्र का एक गैर फ़िल्मी गीत भी ले लेते हैं जिसमें दुनिया की बेहतरी को लेकर आप उनका यकीन/ आशावाद देख सकते हैं |
तू ज़िंदा है तो ज़िन्दगी की, जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो, उतार ला ज़मीन पर
ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन
ये दिन भी जाएँगे गुजर, गुजर गए हजार दिन
सुबह और शाम के रंगे, हुए गगन को चूमकर
तू सुन ज़मीन गा रही है, कब से झूम-झूम कर
तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर…….|
शैलेंद्र ने एक तरफ आरके बैनर के लिए शंकर जयकिशन के साथ बरसात, आवारा, आह, बूटपालिश, श्री चार सौ बीस, जिस देश में गंगा बहती है, संगम, मेरा नाम जोकर जैसे कालजयी फिल्मों के लिए गीत लिखा। वहीं आके बैनर से अलग भी शंकर जयकिशन के लिए फिल्म दाग, पतिता, उजाला, चोरी चोरी, यहूदी , सीमा, बसंत बहार, राज हठ, हलाकू, कठपुतली, रंगोली, जंगली, अनाडी, असली नक़ली, प्रोफ़ेसर, आम्रपाली, लव मैरिज, हमराही, हरियाली और रास्ता, दिल एक मंदिर, दिल अपना और प्रीत पराई, राजकुमार, गबन , ब्रह्मचारी, तीसरी क़सम, एन इवनिंग इन पेरिस जैसी फिल्मों के लिए गीत रचे। इन फिल्मों के गीत संगीत का जादू आज भी बरकरार है।
सिर्फ शंकर जयकिशन ही नहीं उन्होंने अन्य संगीतकारों के साथ भी क्या कमाल के गीत लिखे। मसलन संगीतकार सलिल चौधरी के लिए फिल्म दो बीघा जमीन, जागते रहो, मधुमती, परख, नौकरी, हाफ़ टिकट, उसने कहा था, पूनम की रात ….. ।
सचिन देव बर्मन के साथ बुज़दिल, काला बाज़ार, इंसान जाग उठा, मुनीमजी, मेरी सूरत तेरी आंखें, बंदिनी, गाइड, ज्वेलथीफ। म्यूजिक डायरेक्टर रोशन के साथ फिल्म अनहोनी, नौबहार, हीरा मोती, सूरत और सीरत। अनिल विश्वास के साथ फिल्म छोटी छोटी बातें । पंडित रविशंकर के लिए अनुराधा। एसएन त्रिपाठी के लिए संगीत सम्राट तानसेन। किशोर कुमार के साथ दूर का राही, दूर गगन की छाँव में। हेमंत कुमार के साथ फिल्म आनंदमठ, मासूम।
(बिज़नेस स्टैंडर्ड से साभार)