”देश में शोषित समुदाय की स्थिति एक जैसी है। भाजपा सरकार हिन्दू संस्कृति इतना असर हुआ है कि देश के दलित ही नहीं, ईसाई, मुसलमान, सिख और बौद्ध धर्म भी वर्ण व्यवस्था के शिकार हो गए। जिन लोगों ने अच्छी पढ़ाई की, उन्होंने वास्तव में देखा कि समता, न्याय, बंधुता की कल्पनाएं सिर्फ संविधान के पन्नों में ही कैद हैं। आजादी का कुछ गिने-चुने नए सामंतों की वस्तु बनकर सिमट गई है। भारतीय इतिहास हमारे अनुकूल कतई नहीं रह गया है, जिसमें हर किसी को मनचाही गाथाएं लिखने की आजादी है। यह आजादी तो सिर्फ अमृत महोत्सव मनाने वाले विशिष्ट वर्ग या वर्ण को मिली हुई है और लगता है कि उन्हें ही निरंतर मिलती रहेगी।”
(विजय विनीत
बनारस स्थित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में पीएचडी प्रवेश को लेकर दलित छात्र शिवम सोनकर के साथ हुआ अन्याय अब एक बड़े आंदोलन का रूप ले चुका है। शिवम, जिन्होंने सामान्य श्रेणी की पीएचडी प्रवेश परीक्षा (RET) में दूसरा स्थान प्राप्त किया था, उन्हें प्रवेश से वंचित कर दिया गया। जब तमाम प्रयासों के बावजूद कोई सुनवाई नहीं हुई, तो वह कुलपति आवास के बाहर धरने पर बैठ गए और फूट-फूटकर रोने लगे। उनका दर्द भरा वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होते ही विश्वविद्यालय प्रशासन की नीति पर सवाल उठने लगे। इस घटना ने न केवल बीएचयू में, बल्कि पूरे देश में जातिगत भेदभाव के खिलाफ़ नई बहस छेड़ दी है।
बीएचयू के छात्र शिवम सोनकर के साथ हुई नाइंसाफी को लेकर लेकर बीएचयू गरम है। शिवम को न्याय दिलाने के लिए विरोध प्रदर्शन हुए, पुतले जलाए गए, नेताओं ने आवाज उठाई, लेकिन शिवम अब भी अपने हक़ के इंतज़ार में है। BHU में बहुसंख्यकों के बीच अब दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों आरोप है कि यहां दाखिला और पढ़ना अब आसान नहीं है। दलित तबके के स्टूडेंट्स का मानना है कि यहां धर्म, भाषा, इलाके या नस्ल के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

बीएचयू के कुलपति आवास के बाहर धरने पर बैठे दलित स्टूडेंट शिवम सोनकर कहते हैं, “मेरा सपना था कि मैं बीएचयू से पीएचडी करूं। इसके लिए कड़ी मेहनत की, अच्छे नंबर लाए, फिर भी मेरा एडमिशन नहीं हुआ। दलित होने की वजह से मेरे साथ भेदभाव किया गया। मुझसे नाइंसाफी हुई है। मुझे न्याय चाहिए।” उनके हाथों में पंडित मदन मोहन मालवीय, भीमराव अंबेडकर और राम दरबार की तस्वीरें थीं, जो शायद यह दिखाने के लिए थीं कि ज्ञान के इस मंदिर में अब भी भेदभाव की दीवारें खड़ी हैं।
शिवम सोनकर ने मालवीय सेंटर फॉर पीस रिसर्च में पीएचडी एडमिशन के लिए परीक्षा दी थी। सामान्य श्रेणी में उनकी दूसरी रैंक आई थी। इसके बावजूद, उन्हें प्रवेश से वंचित कर दिया गया। विभाग में कुल 7 सीटें थीं, लेकिन केवल 4 छात्रों को प्रवेश दिया गया और 3 सीटें खाली छोड़ दी गईं। जब शिवम ने कारण पूछा, तो विभाग की ओर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। कोई प्रशासनिक अधिकारी उनसे मिलने तक नहीं आया। वह कहते हैं, “आखिर मेरी गलती क्या है? क्या सिर्फ दलित होना ही मेरी गलती है? “
शिवम सोनकर ने मालवीय शांति अनुसंधान केंद्र में 2024-25 सत्र के लिए पीएचडी में प्रवेश के लिए आवेदन किया था। परीक्षा में सामान्य श्रेणी में दूसरा स्थान प्राप्त करने के बावजूद उन्हें प्रवेश नहीं मिला, जबकि विभाग द्वारा सात सीटों पर प्रवेश देना था। हैरानी की बात यह रही कि केवल चार सीटों पर ही प्रवेश दिया गया और तीन सीटें खाली छोड़ दी गईं। नियमानुसार, इन रिक्त सीटों को RET Exempted श्रेणी से RET मोड में बदला जा सकता था, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐसा नहीं किया।

शिवम का आरोप है कि उनके दलित होने की वजह से उन्हें जानबूझकर वंचित रखा गया। जब किसी ने उनकी बात नहीं सुनी, तो वह कुलपति आवास के बाहर धरने पर बैठ गए और रोने लगे। यह वीडियो तेजी से वायरल हुआ और इसके बाद कई राजनेताओं ने इस मामले को उठाया। इस बीच दलित छात्र को पीएचडी में प्रवेश न मिलने पर BHU में विरोध, छात्रों ने किया कार्यवाहक कुलपति का पुतला दहन, जमकर की नारेबाजी
काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में दलित छात्र शिवम सोनकर को पीएचडी में प्रवेश न दिए जाने का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। शनिवार को BHU के सिंह द्वार (लंका गेट) पर छात्रों ने कार्यवाहक कुलपति के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों ने कुलपति का पुतला दहन किया और प्रशासन विरोधी नारे लगाए। इस दौरान माहौल काफी गरमाया रहा और सुरक्षा बलों की तैनाती भी करनी पड़ी। प्रदर्शन कर रहे छात्रों का कहना था कि शिवम सोनकर ने पीएचडी प्रवेश परीक्षा (RET) में सामान्य श्रेणी में दूसरा स्थान प्राप्त किया था, इसके बावजूद उन्हें प्रवेश नहीं दिया गया। छात्रों ने आरोप लगाया कि विभागीय प्रशासन और कुछ प्रोफेसर दलित विरोधी मानसिकता रखते हैं और जानबूझकर उनके साथ अन्याय किया गया।

प्रदर्शन का नेतृत्व समाजवादी छात्र सभा के कार्यकर्ताओं ने किया। BHU छात्र नेता विवेक यादव, काशी विद्यापीठ के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष विमलेश यादव और विद्यापीठ छात्र सभा इकाई अध्यक्ष राहुल चौधरी समेत कई छात्र प्रदर्शन में शामिल हुए। छात्र नेता विवेक कुमार यादव ने कहा, “यह संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ है और इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यदि शिवम सोनकर को जल्द न्याय नहीं मिला, तो आंदोलन और तेज किया जाएगा।” प्रदर्शनकारियों ने BHU प्रशासन पर आरोप लगाया कि विश्वविद्यालय में दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए भेदभाव जारी है। उन्होंने प्रशासन से मांग की कि शिवम सोनकर को तुरंत प्रवेश दिया जाए और इस भेदभाव के लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई हो।
फूट-फूटकर रोया दलित छात्र
काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के वीसी आवास के बाहर धरने पर बैठे शिवम सोनकर की आंखों में केवल आंसू नहीं थे, बल्कि वर्षों की मेहनत, सपनों और उम्मीदों के चकनाचूर होने का दर्द था। जब कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अजय राय धरना स्थल पर पहुंचे और शिवम से बात की, तो वह खुद को रोक नहीं सका और फूट-फूट कर रो पड़ा। उसकी आवाज़ कांप रही थी, आंखों में मायूसी थी। वह कह रहा था, “हमने सपना देखा था कि पीएचडी करेंगे, लेकिन विभाग की गलती का खमियाजा हमें भुगतना पड़ रहा है।”
शिवम सोनकर कोई साधारण छात्र नहीं है। उसने आठ बार नेट क्वालीफाई किया है, पीएचडी प्रवेश परीक्षा में सामान्य श्रेणी में दूसरा स्थान पाया, लेकिन फिर भी उसे दाखिला नहीं दिया गया। उसके ही विभाग में RET EXEMPTED श्रेणी की तीन सीटें खाली पड़ी हैं, मगर प्रशासन उन्हें भरने के बजाय टालमटोल कर रहा है। अजय राय ने इस अन्याय पर गहरी नाराजगी जताते हुए कहा, “यह कोई मामूली लापरवाही नहीं, बल्कि एक दलित छात्र को उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित करने की साजिश है। यह सामाजिक न्याय और संविधान की आत्मा के खिलाफ है।”
अजय राय ने शिवम सोनकर को ढांढस बंधाते हुए कहा, “काशी हिंदू विश्वविद्यालय महामना मदन मोहन मालवीय की धरती है, जिसे शिक्षा के मंदिर के रूप में स्थापित किया गया था। लेकिन आज यह मंदिर भेदभाव और अन्याय का केंद्र बनता जा रहा है। प्रधानमंत्री के अपने संसदीय क्षेत्र में, जहां से वह देश को न्याय और समानता का संदेश देते हैं, वहीं एक मेधावी दलित छात्र को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। यह एक शर्मनाक स्थिति है।”

अजय राय ने कहा कि बीएचयू में लगातार दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक छात्रों के साथ अन्याय हो रहा है। मगर कांग्रेस चुप नहीं बैठेगी। उन्होंने ऐलान किया, “हम महामना की बगिया को बचाने की लड़ाई लड़ेंगे। शिवम सोनकर अकेला नहीं है, पूरी कांग्रेस पार्टी उसके साथ खड़ी है। छात्र हमारे भविष्य हैं, और हम अपने भविष्य के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं करेंगे।”
अजय राय ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की। उन्होंने कहा, “हम देश के प्रधानमंत्री और वाराणसी के सांसद से मांग करते हैं कि इस अन्याय को तुरंत रोका जाए और शिवम सोनकर को न्याय मिले। उसे उसका हक दिया जाए, ताकि उसके जैसे अन्य मेधावी छात्रों के सपनों को कुचला न जा सके।”
शिवम के संघर्ष की गूंज अब राजनीतिक गलियारों तक पहुंच चुकी है। समाजवादी पार्टी के सांसद वीरेंद्र सिंह ने उनसे फोन पर बात कर मदद का आश्वासन दिया। मछलीशहर की विधायक डॉ. रागिनी सोनकर ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर तत्काल हस्तक्षेप की मांग की। पत्र में उन्होंने लिखा, “BHU में अनुसूचित जाति के छात्र शिवम सोनकर के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है। विभाग में RET Exempted की तीन सीटें खाली हैं, फिर भी उन्हें प्रवेश नहीं दिया गया। यह उच्च शिक्षा में सामाजिक न्याय के खिलाफ है और दलित छात्रों के शैक्षणिक भविष्य पर कुठाराघात है।”

वहीं, समाजवादी पार्टी के एमएलसी आशुतोष सिन्हा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर न्याय की मांग की। उन्होंने कहा, “यह स्थिति अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के अवसरों को बाधित करने का गंभीर उदाहरण है। ऐसे मामलों की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।” इस बीच बीएचयू पहुंचे समाजवादी पार्टी के पदाधिकारियों ने विश्वविद्यालय के आरक्षण रोस्टर पर भी सवाल उठाए। सत्यप्रकाश सोनकर ने कहा, “जब सामान्य और ओबीसी श्रेणी के लिए सीटें निर्धारित की जाती हैं, तो अनुसूचित जाति के लिए भी यह नियम लागू होना चाहिए। संविधान ने सभी को शिक्षा का अधिकार दिया है, लेकिन BHU में इसकी खुलेआम अनदेखी हो रही है।”
शिवम सोनकर को न्याय दिलाने के लिए अब छात्र संगठन भी सक्रिय हो गए हैं। समाजवादी छात्र सभा और अन्य संगठनों ने चेतावनी दी है कि यदि शीघ्र न्याय नहीं मिला, तो आंदोलन और तेज होगा। छात्रों ने प्रशासन से मांग की है कि शिवम को तुरंत प्रवेश दिया जाए और इस भेदभाव के लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई हो।

मछलीशहर की विधायक डॉ. रागिनी सोनकर और नगीना के सांसद चंद्रशेखर आजाद ने इस मामले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और BHU के कुलपति को पत्र लिखकर तत्काल कार्रवाई की मांग की। चंद्रशेखर आजाद ने लिखा, “शिवम सोनकर, जिन्होंने सामान्य श्रेणी में दूसरा स्थान प्राप्त किया, को प्रवेश नहीं दिया गया, जबकि विभाग में तीन सीटें खाली हैं। यह प्रवेश प्रक्रिया की पारदर्शिता पर गंभीर प्रश्न खड़ा करता है। यदि खाली सीटों को RET मोड में नहीं बदला गया, तो यह केवल एक छात्र के साथ अन्याय नहीं, बल्कि जातिगत भेदभाव का संकेत भी है।”
डॉ. रागिनी सोनकर ने मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में कहा, “BHU प्रशासन द्वारा RET में केवल 12 सीटों पर ही प्रवेश दिया जा रहा है, जबकि RET Exempted की तीन सीटें खाली हैं। शिवम को प्रवेश न देना उच्च शिक्षा में सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का खुला उल्लंघन है। यह दलित छात्रों के साथ भेदभाव को उजागर करता है।”
पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा है, “BHU में दलित छात्र से अन्याय – ये है योगी राज का सच! शिवम सोनकर, जिसने 8 बार NET क्वालीफाई किया और BHU पीएचडी प्रवेश परीक्षा में सामान्य वर्ग में दूसरा स्थान पाया, उसे सिर्फ़ उसकी जाति के कारण प्रवेश से वंचित कर दिया गया। BHU प्रशासन ने उसे अपमानित करते हुए कहा—”जाकर जूता साफ करने का काम करो।”
योगी सरकार में दलितों के साथ हो रहे अत्याचार और भेदभाव का यह ज्वलंत उदाहरण है। एक मेधावी छात्र, जिसने अपनी मेहनत से यह मुकाम हासिल किया, आज खुले आसमान के नीचे न्याय के लिए संघर्ष करने को मजबूर है। क्या यही सबका साथ, सबका विकास है?
BHU जैसे संस्थान में जब योग्यता पर जातिवाद हावी हो जाए, तो यह शिक्षा नहीं, अत्याचार का केंद्र बन जाता है। दलितों को अपमानित करना और उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करना बीजेपी सरकार की दलित विरोधी मानसिकता को उजागर करता है। योगी सरकार जवाब दे-क्यों दलितों को शिक्षा से दूर किया जा रहा है? कब तक संविधान और आंबेडकर के सपनों को कुचला जाएगा? “
दलित छात्रों पर बढ़ रही हिंसा
बीएचयू में दलित छात्रों के साथ भेदभाव और हिंसा की घटनाएं कोई नई बात नहीं हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन की निष्क्रियता और जातिगत पूर्वाग्रहों ने इसे एक गंभीर समस्या बना दिया है। नवंबर 2024 में कृषि विज्ञान संस्थान में हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी के दौरान एक दलित छात्र के साथ मारपीट की गई। घटना तब हुई जब पीड़ित छात्र भोजन लेने के लिए कतार में खड़ा था। उसकी बारी आने पर जब उसने अपने क्लासमेट से खाना देने को कहा, तो उसने घूरकर देखा और बिना किसी वजह के गालियां देनी शुरू कर दीं। इसके बाद ऊंची जाति के दबंग छात्र ने अपने साथियों के साथ मिलकर उसकी पिटाई कर दी। घटना बढ़ने पर हिन्दी विभाग के सहायक प्रोफेसर सत्यप्रकाश को पुलिस के सामने आरोपी छात्रों की ओर से माफी मांगनी पड़ी। मगर पीड़ित दलित छात्र को रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए पुलिस के चक्कर काटने पड़े।

अगस्त 2023 में बीएचयू की एक दलित सहायक प्रोफेसर ने दो अन्य सहायक प्रोफेसरों और दो छात्रों के खिलाफ मारपीट, छेड़छाड़ और अपमानित करने की शिकायत दर्ज कराई। इस मामले में पुलिस ने तीन महीने बाद तब रिपोर्ट दर्ज की, जब यह मामला मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक पहुंचा। पीड़ित प्रोफेसर का कहना था कि उसे केवल दलित होने की वजह से निशाना बनाया गया। अभियुक्तों ने उसे निर्वस्त्र कर परिसर में घुमाने की धमकी दी थी। मामले में पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 323, 342, 354-बी, 504 और 506 के तहत मुकदमा दर्ज किया। साथ ही, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत भी मामला दर्ज हुआ।
बीते वर्षों में भी बीएचयू परिसर में दलित छात्रों के साथ हिंसा के कई मामले सामने आए हैं। कुछ साल पहले एक दलित छात्र को केवल इस वजह से बुरी तरह पीटा गया क्योंकि उसने सवर्ण छात्रों के पैर नहीं छुए थे। पीड़ित छात्र संतोष, जो स्नातकोत्तर कर रहा था, पर हॉस्टल में रहने वाले सवर्ण जाति के शुभम सिंह और उसके साथियों ने हमला किया। पहले उसे पीटा गया, फिर उसके सिर पर बाल्टी मारी गई और यहां तक कि गला दबाकर उसकी हत्या की कोशिश की गई।
पत्रकारिता विभाग की दलित प्रोफेसर डॉ. शोभना नर्लिकर ने भी कला संकाय के प्रमुख डॉ. कुमार पंकज के खिलाफ़ बदसलूकी की शिकायत दर्ज कराई थी। अभियुक्तों की गिरफ्तारी न होने पर दलित छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया था। मगर विश्वविद्यालय प्रशासन पर कोई असर नहीं हुआ। साल 2019 में बीएचयू की एक दलित छात्रा को केवल जाति के आधार पर शौचालय में प्रवेश करने से रोक दिया गया। प्रॉक्टोरियल बोर्ड के सुरक्षा गार्डों ने उसे महिला महाविद्यालय परिसर में स्थित शौचालय इस्तेमाल नहीं करने दिया। पीड़ित छात्रा बहुजन हेल्पडेस्क पर विद्यार्थियों का मार्गदर्शन कर रही थी। चीफ प्रॉक्टर को दी गई लिखित शिकायत में छात्रा ने इसे भेदभावपूर्ण, अमानवीय और गैरकानूनी बताया। मगर हमेशा की तरह बीएचयू प्रशासन ने इस मामले को दबाने की कोशिश की।
बीएचयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव जनचौक से बातचीत में कहते हैं कि जब बीएचयू में पीएचडी की सीटें खाली हैं, तो उन सीटों पर टॉप रैंक वाले छात्रों को दाखिला देने में हीलाहवाली क्यों की जा रही है? वह कहते हैं कि शिवम सोनकर जैसे योग्य छात्र को पीएचडी में दाखिला देने में कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए। यह सिर्फ एक छात्र के भविष्य का सवाल नहीं है, बल्कि बीएचयू की पारदर्शी प्रवेश प्रक्रिया और शैक्षणिक न्याय का भी मामला है।
अनिल श्रीवास्तव ने बीएचयू प्रशासन पर निशाना साधते हुए कहा कि यह सच है कि बीएचयू में जो सुविधाएं दलित और वंचित छात्रों को कांग्रेस के शासन में मिलती थीं, अब वैसा नहीं है। विश्वविद्यालय में अब आरएसएस की विचारधारा हावी हो गई है, जिससे दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक छात्रों के लिए शिक्षा ग्रहण करना कठिन हो गया है। पहले यदि कोई दलित छात्र तीसरे श्रेणी (थर्ड डिवीजन) में भी पास होता था, तो उसे उच्च शिक्षा का अवसर मिल जाता था, लेकिन अब योग्य छात्रों को भी दाखिले से वंचित किया जा रहा है।
वह आगे कहते हैं कि पहले बीएचयू में प्रोफेसरों की नियुक्ति में इतना घालमेल नहीं था, जितना अब देखने को मिल रहा है। वर्तमान में भर्ती प्रक्रिया पूरी तरह से एक खास विचारधारा और जातिवादी मानसिकता से प्रभावित हो चुकी है। दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक छात्रों के साथ आए दिन मारपीट और दुर्व्यवहार की घटनाएं हो रही हैं। ऊंची जातियों के लोग इन छात्रों के साथ दुर्व्यवहार करने से भी बाज नहीं आ रहे हैं, और विश्वविद्यालय प्रशासन इस पर चुप्पी साधे हुए है।
उन्होंने आरोप लगाया कि सत्ता पक्ष के लोग इस भेदभावपूर्ण नीति के पीछे हैं। उन्होंने कहा कि महामना मदन मोहन मालवीय ने जिस आदर्श शिक्षा प्रणाली की नींव रखी थी, आज उसकी खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। बीएचयू को एक समावेशी शिक्षा केंद्र के रूप में विकसित किया गया था, लेकिन अब यह एक खास विचारधारा को थोपने का अड्डा बनता जा रहा है। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि इस प्रकार का भेदभाव जारी रहा तो छात्र समुदाय इसके खिलाफ व्यापक आंदोलन छेड़ने को मजबूर होगा। बनारस को एक ओर इसे ज्ञान और संस्कार की नगरी कहा जाता है, तो दूसरी ओर यहां दलित छात्रों और शिक्षकों के साथ आए दिन अन्याय और अत्याचार होते हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन की चुप्पी और निष्क्रियता इस समस्या को और गहरा बना रही है।
BHU प्रशासन का बचाव और विरोधाभास
स्टूडेंट शिवम के मामले में BHU प्रशासन का कहना है कि प्रवेश प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी और नियमानुसार की गई है। उनके अनुसार, काउंसलिंग प्रक्रिया शुरू होने के बाद RET Exempted सीटों को RET मोड में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। लेकिन इस दावे पर सवाल उठते हैं कि जब सीटें खाली रह गई थीं, तो क्यों नहीं उन्हें पहले से ही भरा गया? क्या यह नियम सिर्फ कुछ खास वर्गों पर ही लागू किया जाता है?
BHU प्रशासन का यह भी कहना है कि शिवम को इसलिए प्रवेश नहीं दिया गया, क्योंकि उन्होंने RET मेन्स परीक्षा के तहत आवेदन किया था, जहां केवल दो सीटें थीं। इनमें से एक सामान्य और एक ओबीसी श्रेणी के छात्र को दाखिला दे दिया गया। विश्वविद्यालय का तर्क है कि शिवम की रैंक दूसरी थी, इसलिए उन्हें एडमिशन नहीं दिया जा सकता। लेकिन शिवम और उनके समर्थकों का सवाल है कि यदि तीन सीटें खाली थीं, तो उन्हें RET मोड में क्यों नहीं बदला गया? क्या यह नियम सिर्फ कुछ चुनिंदा छात्रों के लिए हैं? क्या वंचित वर्ग के छात्रों को शिक्षा के इस मंदिर में समान अवसर नहीं मिल सकते?
बीएचयू में दलितों पढ़ पाना मुश्किल
बीएचयू के हिन्दी विभाग में छात्र अमित कुमार कहते हैं, ”बहुसंख्यकों के बीच दलितों का बगैर दबाव में पढ़ाई करना आसान नहीं है। जब बीएचयू में मैंने दाखिला लिया तो कई कहानियां सुनने को मिलती थीं। पहले हम सिर्फ सुना करते थे कि जाति और मज़हब के नाम पर बीएचयू के स्टूडेंट ही नहीं प्रोफ़ेसर भी भेदभाव करते हैं। मुझे खुद कई सारी चीज़ों को झेलना पड़ा। कई मर्तबा हमारा भरोसा हिला। बीएचयू में क्लास रूम में भी पढ़ाई को छोड़कर जाति और धर्म की खूब बातें होती थीं। अब मैं इसलिए परेशान नहीं होता क्योंकि मेरे दिमाग में यह बात साफ है कि ऐसी चीज़ें मानसिकता पर निर्भर करती हैं।”
हिन्दी के छात्र अमित कहते हैं, ”पिछले कुछ सालों से बीएचयू परिसर में कंधे पर भगवा गमछा रखकर चलने वाले स्टूडेंट्स का दबदबा बढ़ता जा रहा है। बीजेपी और आरएसएस के समर्थकों से हमें कोई शिकायत नहीं है, लेकिन ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर जब नारे लगते हैं तो डर लगता है। बीएचयू में लड़कियों को तो हक़ ही नहीं है आवाज़ उठाने का। लोग भद्दी टिप्पणियों से आवाज़ दबा देते हैं। यहां प्रोफ़ेसर भी चुप रहने की सलाह देते हैं। जब से बीजेपी सत्ता में आई है तब से कैंपस का माहौल बदल रहा है। मुझे इस माहौल से डर लगता है। कैंपस में अब गुंडई बढ़ गई है। सार्वजनिक स्थानों पर राजनीतिक बहस से लोग अब बचने लगे हैं। ऐसा पहले नहीं था।”
बीएचयू के शोध छात्र शोध छात्र तनुज कुमार के मुताबिक, बीएचयू में यह साफ दिखता है कि उनके साथ भेदभाव किया गया है। सीटें खाली हैं, फिर भी उन्हें दाखिला नहीं दिया जा रहा। यह समस्या सिर्फ उनके साथ ही नहीं, बल्कि कई और छात्रों के साथ भी हो रही है, जिससे विश्वविद्यालय का शैक्षणिक माहौल प्रभावित हो रहा है। वह कहते हैं,”आजादी के बाद एक उम्मीद जगी थी कि अशिक्षा के दानव को मारकर दलितों की दासता दूर की जा सकेगी, लेकिन सामंवादी सरकारों ने ऐसा नहीं होने दिया। एक तरफ हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और दूसरी ओर, जातिवाद, ऊंच-नीच और अस्पृश्यता अट्ठहास कर रही है। जिन लोगों ने इन साजिशों को चीरकर नया आकाश रचने की बात सोची उन्हें अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा। आखिर यह कैसी आजादी और कैसा अमृत महोत्सव है? डा भीमराव अंबेडकर ने आजादी की लड़ाई के साथ अस्पृश्यता निवारण की भी घोषणा की थी। कई मुद्दों पर गांधी जी के साथ टकराए भी। वह यह भी कहा करते थे कि सिर्फ नाम बदल लेने से जीवन की शर्तें नहीं बदलतीं।”
”नंगा सच तो यह है कि अस्पृश्यता की गहरी जड़ें जमाए बैठी वर्ण व्यवस्था अभी टस से मस नहीं हुई है। दलितों और पिछड़ी जातियों के ज्यादतर लोग जहां थे, वहीं आज भी हैं। फर्क सिर्फ इतना पड़ा है कि किसी इंद्र कुमार की मौत के बाद चेताना जागती है, हलचल मचती है और फिर शांत हो जाती है। साधन संपन्नता से साथ-साथ सवर्णों के अत्याचारों के तरीके बदलते रहे हैं। बनारस के कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी ”ठाकुर का कुंआ” के गंगू के जीवन में वही गंदा पानी आज भी है। गंगू आज भी ठाकुर की एक खंखार पर अपने अस्तित्व को ढहता हुआ पाती है। इंद्र कुमार की कत्ल करने वाले कथित द्रोणाचार्य तो साजिश की योजनाएं अपनी छल-कपट से बना ही लेते हैं और न्याय की चौखट पर बेदाग हो जाते हैं।”
बीएचयू के ग्रेजुएट छात्र मुकुल कहते हैं, “शोध में दाखिले के दौरान शिक्षकों की पसंद और जाति आधारित चयन एक आम बात हो गई है। अगर विचारधारा मेल नहीं खाती या छात्र प्रगतिशील सोच रखता है, तो उसका दाखिला रोका जाता है। सीटें खाली होने के बावजूद योग्य उम्मीदवारों को प्रवेश नहीं दिया जाता। बीएचयू के प्रशासनिक अमले और शिक्षकों में संघ और भाजपा समर्थकों की संख्या बढ़ रही है, जिससे संस्थान का शैक्षणिक ढांचा प्रभावित हो रहा है। शोध प्रक्रिया में उनका हस्तक्षेप काफी बढ़ गया है। प्रगतिशील और जनवादी विचारधारा के लोगों की संख्या कम हो रही है। यहां तक कि कई लोग अपना चोला बदलने को मजबूर हो गए हैं।”
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़, देश में अनुसूचित जाति, जनजाति की तादाद कुल आबादी की लगभग 25 फ़ीसदी है। इनमें से 16.60 फीसदी दलित और 8.60 फीसदी आदिवासी हैं। इन समुदायों को दूसरे नामों से भी पुकारा जाता है। भारत की एक चौथाई आबादी का मतलब है लगभग 30 करोड़ लोग। यदि वे अपने आप में एक देश होते तो वह देश आबादी के लिहाज से चीन, भारत और अमरीका के बाद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश होता।
भारत की अर्थव्यवस्था में दलितों मौजूदगी नहीं के बराबर है। इसकी मुख्य वजहें अच्छी शिक्षा तक उनकी पहुंच का नहीं होना और उन्हें रोज़गार के मौके नहीं मिलना है। ऐसा लंबे समय से होता आया है। इसे दुरुस्त करने के लिए संविधान में व्यवस्था की गई। शैक्षणिक संस्थानों में दाख़िले और सरकारी नौकरियों में उनके लिए आरक्षण का इंतज़ाम किया गया।
“कहां जाएं दलित छात्र?”
एक्टिविस्ट हरीश मिश्र उर्फ बनारस वाले मिश्रा कहते हैं कि शहरों में रहने वाले मध्य वर्ग यानी ऊंची जाति के लोगों को लगता है कि आरक्षण से उनके ख़िलाफ़ भेदभाव किया जाता है। उनका मानना है कि उनकी ‘योग्यता’ की बलि नहीं चढ़ाई जानी चाहिए। वह कहते हैं, ”मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी शहर के किसी भी बड़े दफ़्तर में दलितों की जगह ग्रेड वन कर्मचारियों की ही है। इनमें वे भी शामिल हैं जो साफ़ सफ़ाई करते हैं। इन संस्थानों को इस हक़ीक़त पर कोई शर्म भी नहीं है। इन बातों पर तो कोई सोचता तक नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था और मीडिया में दलित और आदिवासी पूरी तरह हाशिए पर हैं। यह कहना सरासर झूठ है कि देश में शिक्षा और रोज़गार के मौके सबको बराबर मिलते हैं।”
”देश में शोषित समुदाय की स्थिति एक जैसी है। भाजपा सरकार हिन्दू संस्कृति इतना असर हुआ है कि देश के दलित ही नहीं, ईसाई, मुसलमान, सिख और बौद्ध धर्म भी वर्ण व्यवस्था के शिकार हो गए। जिन लोगों ने अच्छी पढ़ाई की, उन्होंने वास्तव में देखा कि समता, न्याय, बंधुता की कल्पनाएं सिर्फ संविधान के पन्नों में ही कैद हैं। आजादी का कुछ गिने-चुने नए सामंतों की वस्तु बनकर सिमट गई है। भारतीय इतिहास हमारे अनुकूल कतई नहीं रह गया है, जिसमें हर किसी को मनचाही गाथाएं लिखने की आजादी है। यह आजादी तो सिर्फ अमृत महोत्सव मनाने वाले विशिष्ट वर्ग या वर्ण को मिली हुई है और लगता है कि उन्हें ही निरंतर मिलती रहेगी।”
एक्टिविस्ट आबिद शेख कहते हैं, ”शिवम सोनकर की हालत इस सवाल को जन्म देती है कि अगर मेहनत और योग्यता के बावजूद भी दलित छात्रों को उच्च शिक्षा से वंचित किया जाएगा, तो वे कहां जाएं? विश्वविद्यालय प्रशासन लगातार शिवम की गुहार को अनसुना कर रहा है। यह मामला सिर्फ शिवम सोनकर का नहीं, बल्कि उन सभी दलित छात्रों का है, जो अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। अगर इस अन्याय को अभी नहीं रोका गया, तो यह अन्याय एक परंपरा बन जाएगी। अब देखने वाली बात होगी कि क्या प्रधानमंत्री और विश्वविद्यालय प्रशासन इस मामले पर कोई ठोस कदम उठाते हैं या फिर यह भी अन्य घटनाओं की तरह इतिहास के पन्नों में दफन हो जाएगा।”
आबिद यह भी कहते हैं, ”शिवम सोनकर का मामला यह दर्शाता है कि बीएचयू में अब भी वंचित तबके के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा में अवसर हासिल करना आसान नहीं है। विश्वविद्यालय में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के प्रवेश को लेकर आए दिन आरोप लगते रहे हैं, लेकिन इस मामले ने जातिगत भेदभाव को खुलकर सामने ला दिया है। BHU को ‘मालवीय जी की बगिया’ कहा जाता है, लेकिन आज यहां शिक्षा के अधिकार का हनन हो रहा है। एक दलित छात्र, जिसने मेहनत कर दूसरी रैंक हासिल की, उसे सिर्फ उसकी जाति की वजह से प्रवेश से वंचित कर दिया गया। क्या यह वह BHU है, जिसका सपना महामना मदन मोहन मालवीय ने देखा था? क्या यह वह शिक्षा का मंदिर है, जहां जाति, धर्म, क्षेत्र से ऊपर उठकर ज्ञान की पूजा की जाती है? शिवम सोनकर के आंसू इन सवालों के जवाब मांग रहे हैं।”
Add comment