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लघु कहानी : दार्शनिक कुत्ता

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 सुधा सिंह

       वह दर्शन शास्त्र के जाने-माने विद्वान थे । एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में प्रोफेसर थे ।     

       अरस्तू, सुकरात आदि से लेकर कांट, हेगेल, फायरबाख, मार्क्स आदि पर शानदार लेक्चर देते थे।

       विभाग में तो कभी-कभी ऐसी कुछ चंचल-चपल कन्याओं से मधुर वार्तालाप भी कर लेते थे जिनके मस्तिष्क में दर्शन का घुसना उतना ही असंभव होता था जितना सूई के छेद में ऊँट का प्रवेश करना, लेकिन दिनचर्या के शेष समय में केवल और केवल, दार्शनिक अध्ययन और चिंतन में ही निमग्न रहा करते थे।

घर पर भी समस्त सांसारिक झंझटों से विरत वह दर्शन की अतल गहराइयों में गोते लगाते रहते थे । उन तमाम सांसारिक झंझटों में पत्नी को वह सर्वोपरि स्थान पर रखते थे।

      जवाबी कार्रवाई के तौर पर पत्नी ने उन्हें मानव जाति से ही बहिष्कृत कर दिया था । वह हमेशा उन्हें ‘कुत्ता’ कहकर ही सम्बोधित करती थीं और यदा-कदा उनपर मुष्टिका-प्रहार, दण्ड-प्रहार या उपानह-प्रहार भी कर दिया करती थीं।

      एक दिन आचार्य-श्रेष्ठ की व्यथा से व्यथित उनकी कुछ प्रिय शिष्याएँ गुरुपत्नी की सेवा में जा उपस्थित हुईं।

        उन्होंने भोले, विनम्र और कातर शब्दों में आचार्य श्री की भार्या को समझाने का प्रयास किया और अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग करते हुए बताया कि वह कितनी सौभाग्यशालिनी हैं कि उनके पति अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एक महान दार्शनिक हैं और यह कि वह उनके किस असीम आदर और सेवा के अधिकारी हैं और यह कि, ऐसे मानव-श्रेष्ठ का अपनी  ही अर्द्धांगिनी द्वारा ‘कुत्ता’ माना और कहा जाना कितना दुर्भाग्यपूर्ण और पीड़ादायी है !

प्रोफेसर साहब की पत्नी ने दर्शन की छात्राओं के निवेदन को सुनने के बाद अपनी तद्भव और देशज शब्द-बहुल अनागर-असम्भ्रान्त भाषा में कहा,:

       “मुझे न समझाव छोरियो ! हम एकर मेहरारू हैं, भावज नाहीं हैं ! एकर सगरी रंग-ढंग जानित हैं । है तो ई कुत्ता ही !

     अब तुम लोगन कहि रही हो तो चलो माने लेते हैं कि ई अभगवा दार्सनिक कुत्ता है, बहुते नामी दार्सनिक कुत्ता है !”

       (चेतना विकास मिशन)

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