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क्या चुनावी बयानबाजी में भी होनी चाहिए टाइम लिमिट

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2024 लोकसभा चुनाव में 1947 से पहले के मुद्दों पर बहुत ज्यादा चर्चा हो रही है। जैसे बोस बनाम सावरकर। हालांकि, ऐसे राजनीतिक प्रचार को हमारे वास्तविक और वर्तमान जीवन पर वापस लाना चाहिए। इसके लिए चुनाव आयोग को एक समय सीमा तय करनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि पुरानी बातें उठाए जाने से आज के मुद्दे गायब हो जाते हैं।

दीपांकर गुप्ता

राजनेता अकसर अपने विरोधियों को सार्वजनिक रूप से निशाना बनाते हैं, उन्हें ऐसा करना बेहद पसंद आता है। खास तौर पर चुनाव के दौरान वो भूली-बिसरी बातों को उठाते हैं, जिससे सामने वाले पर करारा अटैक कर सकें। हालांकि, यह समकालीन मुद्दों को अस्पष्ट कर देता है। ऐसे में चुनाव आयोग को इस संबंध में खुद लिमिटेशन का कानून तैयार करना चाहिए, जिससे उम्मीदवारों को तय की गई कट-ऑफ डेट पुराने बयान या घटनाओं को याद करने से रोका जा सके। अगर कानून में ऐसी प्रैक्टिस मौजूद हो, तो राजनीति में इसका विस्तार वर्तमान से संबंधित बहसों पर ध्यान केंद्रित करने में हेल्प करेगा। इसमें, चुनाव आयोग हमारे कानूनी कोड से एक, दो या तीन संकेत ले सकता है। भारतीय अदालतें मानहानि और बदनामी के आरोपों को स्वीकार करती हैं, बशर्ते कथित मामला एक साल के भीतर हुआ हो। सिविल मुकदमों के लिए, सामान्य सीमा तीन साल और संपत्ति विवादों के लिए 12 साल है। बेशक, इन सभी के लिए कुछ स्पष्ट रूप से परिभाषित अपवाद हैं।

चुनाव में बयानबाजी टाइम लिमिट क्यों जरूरी?

हालांकि, ध्यान रखें कि ‘कर्म’ का सिद्धांत कानून में लागू नहीं होता है क्योंकि अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो यह उस खास कानूनी अभियोजन को कम कर देता है। न्यायशास्त्र में एक बढ़िया प्वाइंट है, जो मृत लोगों के बारे में बुरा न बोलने की कहावत को पुष्ट करता है। आजादी से पहले के दिनों में दिए गए बयानों की ओर लौटना आज के समय में बहुत कम प्रासंगिक है। सुभाष चंद्र बोस और वीर सावरकर का उदाहरण लें। सच है, बोस, सावरकर को महत्व देते थे और चाहते थे कि 1937 में जेल से रिहा होने के बाद वे सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करें। यह भी सच है कि बोस ने सावरकर का विरोध किया था, जब सावरकर ने दावा किया था कि हिंदू महासभा सभी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करती है और कांग्रेस को पीछे हट जाना चाहिए।

जब चुनाव में उठा बोस और सावरकर का मुद्दा

यह भी उतना ही सच है कि सुभाष चंद्र बोस ने 1940 में कोलकाता नगरपालिका चुनावों के दौरान हिंदू महासभा की मदद मांगी थी। आखिरकार, बोस ने यह भी कहा था कि वह ‘वास्तविक’ हिंदू महासभा के प्रति सहानुभूति रखते हैं, न कि ‘राजनीतिक’ हिंदू महासभा के प्रति। हालांकि, आज, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के समकालीन समर्थकों को भी इस अंतर को समझ पाना मुश्किल होगा। यह अब रहस्यमय लग सकता है, लेकिन तब ऐसा नहीं था।

इसी तरह, कम्युनिस्टों को भी 1940 के दशक में स्टालिन के सामने सीपीआई के आत्मसमर्पण को उचित ठहराने में कठिनाई हो रही है। उस समय दुनिया एक अलग जगह थी। इसी तरह, विभाजन हमारे कई राजनीतिक पूर्वजों को शर्मिंदा कर सकता है और उनकी कमियों को उजागर कर सकता है। 1947 में झूठ और दोहरी बातें दीवारों पर छपी तस्वीरों से बहुत तेजी से टकराईं। इन बटनों को दबाने से ‘उसने कहा और उसने कहा’ वाला टेप हमेशा चलता रहेगा। यही कारण है कि इस तरह की बहसों को समय सीमा में बांध दिया जाना चाहिए क्योंकि हम उस संदर्भ का हिस्सा नहीं थे जिसमें उन्हें पहली बार तैयार किया गया था।

पुरानी बातें हमें वर्तमान से दूर कर देती हैं

ऐसी भाषा को आगे बढ़ाना कठिन है जिसे कोई नहीं बोलता है, या लंबे समय से ऐसा नहीं बोला गया है। ऐसी पुरानी यादों के साथ चुनावी रण में जाना मौजूदा चिंताओं से ध्यान भटकाता है। जब हम वर्तमान से दूर हो जाते हैं, तो यह खतरा रहता है कि भावनाएं हावी हो जाएंगी और दिल जल्द ही दिमाग पर हावी हो जाएगा। ग्रेट मैक्स वेबर ने कहा कि हमारी वास्तविक, मूर्त रोजमर्रा की जिंदगी को हमारे राजनीतिक विकल्पों का निर्धारण करना चाहिए। अगर कोई अतीत को सनसनीखेज बनाता है, जिसका उसे कोई अनुभव नहीं है, तो दिल दिमाग पर हावी हो जाता है और राजनीति अनुचित हो जाती है। शुद्ध भावनाओं में इस तरह की चूक के कारण ही आंदोलनकारी लोगों को भड़काने में सफल रहे हैं, जिसके दुखद परिणाम सामने आए हैं।

कानून में भी टाइम लिमिट का जिक्र

‘जिम्मेदारी की राजनीति’, जिसकी वकालत वेबर ने ‘प्रतिबद्धता की राजनीति’ से ऊपर की, अपनी ताकत वास्तविक लोगों के जीवन से प्राप्त करती है, न कि किसी काल्पनिक दुनिया से जिसे किसी ने नहीं देखा है। विभाजन के दौरान हिंसा इतनी उन्मादी थी कि इसने अनगिनत लोगों की जान लेने से पहले एक बार भी सोचना बंद नहीं किया। क्या यह पूछना भी सभ्य है कि मृतकों के बीच समग्र सांप्रदायिक संतुलन था या नहीं? न केवल 1947 से पहले के मुद्दों को हमारे चुनावी बयानबाजी में शामिल नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि जिन राजनेताओं का निधन हो चुका है, उनको भी निशाना बनाने के लिए पुनर्जीवित नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि हम ये जानते हैं कि कानून में मृत व्यक्ति के खिलाफ लीगल प्रोसीडिंग्स को रोकती है। भले ही ऐतिहासिक रूप से ये सटीक हो, जब अतीत रैंप पर चलता है, तो वर्तमान की चिंता फैशन से बाहर हो जाती हैं। दूसरी ओर, कानून की किताबों से बिना हटाए और हाशिये पर नोट किए कॉपी-पेस्ट करना घटिया और दिमागी आलस्य होगा। विशिष्ट होना प्रासंगिकता की जननी है और चुनाव आयोग इस बात से पूरी तरह वाकिफ है।

‘जिम्मेदारी की राजनीति’ को बढ़ावा देना जरूरी

ऐसे प्रस्ताव के लिए, जाहिर है, लंबे परामर्श की आवश्यकता होती है, लेकिन केवल तभी जब कारण को सार्थक माना जाए। विचार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए, हम 70 साल पहले जो कुछ भी कहा या किया गया था, उसके लिए राजनीतिक प्वाइंट्स हासिल करने के लिए समय सीमा तय कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत और पंचशील सिद्धांत इतिहास से गायब हो गया है और हमारे राजनीतिक प्रगितिहास का हिस्सा बन गया है। समय के बहुत करीब, भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने स्वतंत्रता के बाद की नेहरूवादी सोच को लगभग पूरी तरह से मिटा दिया। फिर भी, 1991 समय सीमा को बहुत छोटा कर देगा जब तक कि 1975 के आपातकाल को अपवाद के रूप में शामिल न किया जाए। कठोर कानूनों के तहत उस दौरान की यादें अभी भी ताजा हैं क्योंकि लाखों भारतीय भयानक सजा के डर से अपनी पीड़ा को दबाते हैं। अगर लोग मुख्य रूप से उन मामलों पर प्रतिक्रिया देते हैं जो उनके रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करते हैं तो चुनावों को सभ्य रखा जा सकता है। इस उद्देश्य के लिए, चुनाव आयोग कानून की तरह स्पष्ट रूप से सीमांकित अपवादों के साथ एक विशिष्ट सीमा अधिनियम तैयार कर सकता है। यह, कम समय में, ‘जिम्मेदारी की राजनीति’ और तर्क को बढ़ावा देगा। बेशक, मौजूदा कानून इस प्रयास में सहायता कर सकते हैं, लेकिन केवल सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद ऐसा होगा। अन्यथा, यह प्रस्तावित इलेक्शन ओरिएंटेड सीमा कानून एक नकली कानून बन सकता है।

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