डॉ. विकास मानव
वर्तमान में जो कुछ लिखा जा रहा है वह लिखने वालों के ज्ञान और चिंतन को नहीं, अज्ञान और भ्रांति को ही प्रकट करता है। विकट समस्या वहां खड़ी होती है जहां अज्ञान को ही ज्ञान मान लिया जाता है।
शास्त्रों में मृत्यु के पश्चात श्राद्धकर्म आवश्यक माना गया है और आजकल इस विषय पर काफी चर्चा भी चल रही है। जहां एक ओर कुछ लोग इसे अनिवार्य मानते हैं वहां दूसरी ओर लोग इसकी खूब आलोचना कर रहे और इसको कर्मकांडियों की एक बड़ी ठग विधा बता रहे हैं।
कृपया एक मृत शरीर को देखिए। जीवन संग्राम का यह भी एक महारथी था। आज पड़ा है वेवश लाचार। कभी ऐसे ही किसी महारथी को गुरुकुल में ब्रम्हचारी बनने के बाद, सन्यासी गुरुओं ने भग्नरथ (मृत शरीर) के समाने खड़ा हो कर पहला पाठ पढ़ाया था। रथ, महाराथी और सारथी के विषय में बताया था। क्षेत्र, क्षेत्रग्य और यज्ञ के विषय में समझाया था।
विषयों के महाभारत में आज का यह महारथी भी जीवन के पाठ को भूल गया। उस का अपना ही रथ (शरीर) टूट के गिर गया है. भंग हो चुका है मायाओं के महासमर में. जीवन के महाभारत में।
इसका सारथी कृष्ण (आत्मा) रथको छोड़कर जा चुका है। अब यह रथ (शरीर) किसी काम का नहीं रह गया है। न खुद इस महारथी अर्जुन (बुद्धि) के लिए, न समरभूमि कुरुक्षेत्र (कर्मक्षेत्र) के लिए और न ही सेनाओं (इंद्रियों) के लिए।
सारथी कृष्ण (आत्मा) के रथ (शरीर) को छोड़ते ही सब कुछ खत्म हो गया है। अर्जुन (बुद्धि) इस भग्न रथ में खुद ही कैद पड़ा है, गांडीव टूट चुका है। लाख कोशिश कर के कुछ नहीं कर पा रहा है।
आधुनिक विज्ञान कहता है कि मृत्यु के बाद भी मृतक का दिमाग सात से सत्रह घण्टे तक काम करता रहता है। कुछ मामलों में तो बहत्तर घण्टे तक काम करते देखा गया है। मतलब कि पूरी तरह से मरता नहीं है। ई ई जी आदि के द्वारा डॉक्टर ने यह जाना लेकिन मरने के बाद भी दिमाग क्यों काम करता रहता है! यह उनके लिए रहस्य है।
जब आत्मा जा चुकी है तो प्राण (प्राण वायु);निकलने के बाद भी कौन कैद और लाचार रहता है इस शरीर में जिस से दिमाग सक्रिय रहता?
उत्तर है मनुष्य की बुद्धि वृति यानी अर्जुन। दिमाग में कैद महारथी अर्जुन छटपटा रहा है लेकिन कुछ कर नहीं पा रहा है।
जो आज विज्ञान कह रहा है वह हजारों वर्ष पहले वेद के सिद्ध संन्यासियों ने, ऋषियों ने, रथ के कोने (मस्तिष्क) में फंसे अर्जुन (बुद्धि) को इस विवश हाल में देखा और जाना। उसके व्यथा के साक्षी बने वे लोग।
उन्होंने पूछा, “हे महारथी तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ? तुम इस दुर्दशा को क्यों प्राप्त हुए?”
याद आता है अपने ही भग्न रथ में फंसे महारथी अर्जुन को :
उसको सारथी कृष्ण (आत्मा) ने बहुत समझाया था, “तत्सवितूर्वरेनियम के उस महासंकल्प को याद करने को कहा था। कहा था आगे बढ़। वरण कर मेरा। मैं तुम्हारे साथ इसी रथ में तेरे साथ बैठा इस रथ को तेरे लिए ही चला रहा हुं। तू मुझ (आत्मा) से मुंह न मोड़। मोह त्याग। खुद को पहचान। मुझको पहचान। मेरे तरफ पीठ मत फेर। प्रज्वलित कर आत्मस्थ होकर अपने आत्मकुण्ड के ब्रम्ह ज्वालाओं को। मैं कृष्ण आत्मा आचार्य हूं तेरा, प्राण वायु ही उपाचार्य है, यह शरीर और इसके सुख की लिप्साएँ, ऐशनाएं, वासनाएं सब सामग्री है। जला दे इनको आत्मकुंड से उठने वाले प्रलयंकर शिव के पास्पाताग्नि (ब्रम्ह ज्वालाओं) में और हो जा मुझ से एकाकार। उठा रोम रोम से सोहम सोहम का अनहद ब्रम्हनाद बार बार और बारम्बार। हो जा अद्वैत, कर ले मेरा वरण। हो जा मुक्त, बाहर निकल जा फार के अपना ब्रम्हरंध्र.
उर्वारूकमिवबंधनात मृत्योरमुक्षीयमामृतात।
लेकिन यह महारथी (अर्जुन) तो ब्रम्हरंध्र को फार के निकलने के बदले उसी मे कैद और लाचार हो चुका है। बाहर परिजन रो रहे। अन्दर कैद और लाचार है यह महारथी। भग्नरथ और भग्नगांडीव लिए विवश, असहाय और निरुपाय। वह रो रो के उन महान सिद्ध संन्यासियों से मुक्त करा देने की विनती कर रहा है।
सन्यासी ऋषियों ने फिर पूछा :
लेकिन हे महारथी तुम ने कृष्ण (आत्मा) की बातें क्यों नहीं मानी?
रथ मे फंसे महारथी ने स्वीकार किया :
मैं इन्द्र (मन) के कहे मे चलता रहा और छला गया। मैं दानवीर बना (कर्ण), ज्ञानी (द्रोण) बना, कर्तव्य परायण (भीष्म) बना लेकिन सबको हारते, मरते, कटते देखा। जब तक गलती का भान हुआ तब तक, कन्हैया रथ से उतर चुका था और मैं विवश और मजबूर इस शव सैय्या में पड़ा हूं। यह किसी भी शर सैय्या से ज्यादा पीड़ा दायक है। आप लोग मुझे कृपा कर इस मे निकालो।”
लेकिन यह तो पापी है। इसने महापुरुष कृष्ण (आत्मा) की एक भी नहीं सुनी। महाशक्तियों (ब्रम्ह ज्वालाओं, नव दुर्गाओं) का आत्मकुण्ड में आवाहन नहीं किया।
इन्द्र (मन) के वशीभूत रहकर यह हमेशा मनमानी ही तो करता रहा। अप्सराओं (इच्छाओं) के भोग के लिए दशानन बना दसों दिशाओं में भागता रहा। महामाया को त्याग मायाओ का दास बन के जिया।
माया के महासमर में इसका रथ दिनों दिन जीर्णसीर्न होता रहा, लेकिन यह बेसुध रहा। अन्त में सारथी कृष्ण (आत्मा) रथ को छोड़ चले। अब यह विकल होकर रो और कलप रहा है।
इस पापी को इस रथ से मुक्त करने पर बाहर निकल के यह प्रेत पिशाचवत सम्पूर्ण जगत के कष्ट का कारण बनेगा। अर्जुन रोता रहा और सन्यासी समूह चिन्तन में डूबा रहा।
फिर सिद्ध संन्यासियों ने आपस में विचार किया। इस पापी के मुक्त करने के अनुरोध को ठुकराना भी तो कायरता होगी। यह सन्यास धर्म के विरुद्ध है। लेकिन इसको मुक्त तब तक कैसे करें जब तक इस भग्नरथ को यज्ञ के देवता (पंच महाभूत) पितर (वनस्पति) सब स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। तभी तो इसको दूसरा नया रथ (शरीर ) मिल सकता।
उन्होंने यज्ञ के देवताओं से विनती की। उनका आश्वासन और आशीर्वाद प्राप्त किया। फिर इस भग्नरथ को साकल्य बना के यज्ञाग्नि को समर्पित करने का निर्णय किया। पितृयान (लकड़ी के चचड़ी) पर लिटाकर उसे महाकाल के यज्ञभूमि (श्मशान) के शिवगंगा (पास्पाताग्नियों) में प्रवाहित करने का दृढ़ निश्चय किया।
तो महारथी को मुक्त करने के लिए संन्यासियों ने हाथ में दण्ड धारण किया। उसको रथ समेत यज्ञ के ज्वालाओं में डालके हवन कर दिया गया। दण्ड से बार बार खोपड़ी पर प्रहार करके महारथी को कैद से मुक्त किया जिसको कपाल क्रिया कहते हैं। कृष्ण (आत्मा) के मार्ग का अनुसरण करने को कहा। सारे धुआं को पितरों (वनस्पतियों) ने ग्रहण किया। भस्मी को पंच महाभूतों ने स्वीकार कर लिया। पाप कर्मों से क्षत विक्षत वह बेकार रथ यज्ञ में हवन हो गया।
लेकिन यज्ञबल से हीन, तपबल से हीन वह दिशाहीन महारथी अब जायेगा कहां?
उसके पास अब रथ भी नहीं है। यज्ञकुण्ड (आत्मकुंड) नही है। रथ (शरीर) के लिए सारथी कृष्ण (आत्मा) का आवाहन कैसे करेगा। संन्यासियों ने उसके लिए अपने आत्मकुण्ड में सारथी कृष्ण (आत्मा) का आवाहन किया। पुत्रों, पुत्रियों, पौत्रों, दौहित्रों, भ्राताओं एवम् सारे परिजनों को तेरह दिन तक ध्यानावस्थित होकर लगातार यही करने को कहा।
पिण्ड बना बना के और अपने पुण्य से सिंचित करके त्रिकाल गायत्री मे समर्पित करने को कहा। अपना ब्रम्हतेज और तपःशक्ति मृत पितर को श्रद्धा पूर्वक दान करने को कहा जिससे मायासमर (महाभारत) में हारे हुए उस शक्तिहीन महारथी को नए रथ (शरीर ) में आरूढ़ होने की शक्ति प्राप्त हो सके।
वह सारथी कृष्ण (आत्मा) का सामिप्य फिर से पा सके। इसीलिए कहा जता है कि पितर के प्रति श्रद्धा ही वास्तविक श्राद्घ है।
भोज भात करना, द्रव्य, गाय, पलंग, बर्तन आदि देना सनातन परंपरा का श्राद्घ नहीं बल्कि आधुनिक धर्म का एक कारोबारी उत्सव भर है।
यही परंपरा का श्राद्घ कर्म था। यह आवश्यक भी है। वेदों में भी इसका उल्लेख है :
ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा येचोद्धिता,
सर्वस्तानग्र आवह पितृण हविषाव: अन्तये।
~अथर्ववेद (18/2/34)
आधुनिक धर्माचार्यों ने कर्मकांड का अपना व्यवसाय चलाने के लिए सारा विधान, तौर तरीका, रिवाज और परम्परा ही पलट दिया और भगवा पहना के रावणों का समूह सीता हरण करने के लिए जहां तहां छोड़ दिया।
अब सन्यासी बचे ही नही। मुखागिन कौन देगा इसका नियम बना दिया। अधिकार तय कर दिया। अगर पांच बेटा हो तो पांचों बेटा, पौत्र, दौहित्र सब मुखाग्नि दे तो कौन सा अनर्थ हो जायेगा।
क्या केबल कर्ता के ऊक से चिता प्रजवलित होती है?
रुक कर जरा सोचिए।
दान में थाली लोटा गाय पलंग सब हो गया। पुण्यदान और तेज समर्पित करने की बात खत्म हो गई। असल समस्या तो ये है अगर मृतक के सारे परिजन उसके कल्याण के लिए ध्यान प्रार्थना करने लगेंगे तो भोज भात का इंतजाम कौन करेगा?
दान का द्रव्य कौन खरीदेगा। जरा ऊपर दिए गए मंत्र का भाव तो समझो। ऋगवेद में ग्यारहवें सूक्त में मधुछन्दस (मधुछंदा के शिष्य) का प्रार्थना आवाहन तो देखो।
प्राचीन परंपरा में सन्यासी वर्णाश्रम का उच्चतम पद था लेकिन आधुनिक धर्माचार्यों द्वारा लोगों के मन में सन्यासी के लिए घृणा भाव ही भर दिया गया।
हमने महाभारत के माध्यम से श्राद्ध का प्रयोजन और विधान बताने का प्रयास किया है। आजकल जो कुछ भी श्राद्घ कर्म के कर्मकाण्ड मे हो रहा है उसमें ऐसा कुछ भी भाव दिखता है क्या, जो प्राचीन परंपरा के प्रथा से मेल खाता हो?
ज्ञान का अभाव मनुष्य को अंधविश्वासी और रूढ़िवादी बना देता है। अगर श्राद्घ करना है तो सनातन परंपरा का अनुसरण कीजिए। वह श्रद्धा आध्यात्मकर्म करके दिखाए। अपने गांडीव से प्रक्षेप करके पितर को अपने कुछ पुण्य का श्रद्धा सुमन अर्पित कीजिए। ध्यान और प्रार्थना कीजिए।
गरुड़ पुराण सुनकर कुछ नहीं होने वाला है. भोज वाला उत्सव मना के भी नहीं। पाखण्डपूर्ण विधान को त्यागिये। कुंभ या ऐसे किसी स्नान की नौटंकी से भी कुछ नहीं होने वाला है। मरने के बाद भी आपकी अस्थि गंगा में ही जाएगी और आप प्रेत योनि में।