डॉ. विकास मानव
मित्रस्य भागोऽसि वरुणस्याधिपत्यं दिवः वृष्टिर्वात स्पृतं एकविंशस्तोमः।।
~यजुर्वेद (१४/२४).
मित्रस्य भागोऽसि :
तू समस्त प्राणियों के परम मित्र भगवान सूर्य का भाग है। जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाश के द्वारा और अपेक्षित ताप-गर्मी के द्वारा सम्पूर्ण प्राणी समुदाय को जगाते हैं. जीवन का संचार करते हैं चैतन्य प्रदान करते हैं, उसी प्रकार हे शूद्र। तू भी अपने श्रम के द्वारा तप के द्वारा, सभी कमों को गति प्रदान करता है।
व्यवस्थित श्रम के द्वारा शिल्प की उत्पत्ति होती है. इस प्रकार से यह श्रम ही यह तप हो सभी कर्मों का मित्र है। इसलिए कहा- हे तपस्वी हे शूद्र। तुम सबके मित्र सूर्य के भाग हो।
वरुणस्याधिपत्यम् :
तेरे ऊपर वरुण का दायित्व है जल का अधिपति देव वरुण है। जिस प्रकार जल नीचे स्थान की ओर प्रवाहित होकर उसको भर देता है. उसी प्रकार जिस कर्म की गति नीचे अर्थात कमजोर होती है, श्रम और श्रमिक वहीं लगकर उसको पूर्ण कर देते हैं।
जिस प्रकार जल, जल में रहने वाले, धरती पर रहने वाले और आकाश में उड़ने वाले सभी प्राणियों के जीवन का आधार है। उसी प्रकार से श्रम, श्रमिक शिल्पकार। घट, पट, वस्त्र, आभूषण, अस्त्र-शस्त्र आदि विविध शिल्यो द्वारा मनुष्यों के जीवन का आधार है। इसलिए कहा हे शूद्र! तेरे उपर वरुण का दायित्व है।
दिवः वृष्टिर्वात स्मृतम् :
तूने गृह, वाटिका, तालाब आदि निर्माण शिल्पों के द्वारा दिन, वर्षा और वायु से रक्षा की है। साथ में दिन की, वर्षा की, और वायु की रक्षा की है। पुनः दिन से, वर्षा से और वायु से रक्षा की है।
एकविंशस्तोमः
तू एकविंशस्तोम है।
*मीमांसा :*
१२ महीने, ५ ऋतुएँ, मन, वाणी, कर्म और आत्मा, ये मिलकर २१ होते हैं। तूने महीनों और ऋतुओं का सदुपयोग कर नव-नव शिल्प निर्माण के लिए मन, वाणी, कर्म और शरीर से अपने को समर्पित कर दिया है।
जिसके द्वारा नित्य नये-नये शिल्पों की रचना होती रहती है। राष्ट्र के उत्थान में, लोक को वैभव सम्पन्न बनाने के लिए, यह तेरी महान भूमिका ही तुझे एकविंशस्तोम बनाती है। यही तेरे द्वारा राष्ट्रात्मा परमात्मा की, की जा रही एकविंश स्तुति है। इसलिए वेद ने कहा-तू एकविंशस्ततेम है।
ऋग्वेदीय रूपक एवं इस मंत्र की चतुर्थ पंक्ति के व्याख्यान रूप गंभीर गवेषणा के बाद प्राप्त शुद्ध ब्राह्मण का स्वरूप -यहां यह बता देना आवश्यक है की वर्तमान ग्रंथों में छपा ब्राह्मण पूरी तरह विकृत किया जा चुका है जिसका मंत्र से कोई संबंध नहीं बैठता.
मैं उसका यहां उल्लेख करना भी उचित नहीं समझता हूं. अतः गवेषणा के द्वारा मूल में जो शुद्ध ब्राह्मण हमें प्राप्त हुआ है मैं केवल उसी का यहां व्याख्यान करूंगा.
स पत्त एवं प्रतिष्ठाया एकविंशमसृजत तमनुष्टुछन्दोऽन्वसृज्यत मित्रो देवता शूद्रो मनुष्य शरद ऋतुः। तस्मात्पादावेज्यातिवर्द्धते, पत्तो हि सृष्टः। तस्माच्छूद्रस्यैकविंशस्तोमानां प्रतिष्ठा प्रतिष्ठाया हि सृष्टः।सृष्टः। तस्मादनुष्टुभः छन्दानां प्रतिष्ठा।
एकविंशमसृजत : उस प्रजापति ने प्रतिष्ठा रूप पाँवों से एकविंशस्तोम की रचना की।
तमनुष्टुछन्दोऽन्वसृज्यत : उसी के अनुकूल अनुष्टुप् छन्द की रचना की।
मित्रो देवता शूद्रो मनुष्य शरद ऋतुः : यह एकविंशस्तोम देवताओं में मित्र सूर्य है, मनुष्यों में शूद्र है, ऋतुओं में शरद ऋतु है।
तस्मात्पादावेज्यातिवर्द्धते : इसलिए पाँवों से चलता हुआ, अर्थात् श्रमात्मक कर्म करता हुआ, अतिशयता से वृद्धि को प्राप्त करता है।
पत्तो हि सृष्टः : क्योंकि शरीर की प्रतिष्ठा रूप पाँवों से ही उसकी रचना हुई है। जिस प्रकार शरीर पाँवों पर प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार कर्म का शरीर भी श्रम रूप पाँवों पर ही प्रतिष्ठित है।
तस्माच्छूद्रस्यैक- विंशस्तोमानां प्रतिष्ठा प्रतिष्ठाया हि सृष्टः : इसलिए शूद्र की एकविंश स्तोमों के रूप में प्रतिष्ठा है। क्योंकि प्रतिष्ठा से ही उसकी रचना हुई है।
तस्मादनुशुभः छन्दानां प्रतिष्ठा :
इसीलिए अनुष्टुप छन्द, छन्दों की प्रतिष्ठा है।
*वैदिक स्तोम मीमांसा :*
गवेषणा से प्राप्त उक्त तथ्यात्मक व्याख्यान की पुष्टि स्तोम के इन ब्राह्मण वाक्यों से स्पष्ट होती है :
यो वै स्तोमानुपदेशनवतो वेदोपदेशनवान् भवति।
~ताण्ड्यमहाब्राह्मण (२/१)
निश्चय ही जो व्यक्ति इन स्तोमों को उपदेश रूप समझता है। वर्ण व्यवस्था में वर्षों के, कर्मों के, स्पष्टीकरण हेतु इन स्तोमों द्वारा आलंकारिक सब्दों में किये गये उपदेश के रूप में जानता है, वह उपदेश करने की शुन्यता से सम्पन्न होता है, और उपदेश करने हेतु अपेक्षित प्राणादि शक्तियों से सम्पन्न होता है। इसी तथ्य को श्रुति आगे इन शब्दों में स्पष्ट करती है-
प्राणो वै त्रिवृदर्धमासः पञ्चदशः, संवत्सरः सप्तदश, आदित्यः एकविंश एते वै स्तोमा उपदेशनवन्त उपदेशनवान् भवति य एवं वेदः।।
~ताण्ड्यमहाब्राह्मण (६/२/२०)
प्राणो वै त्रिवृत् – जो शिक्षा का, उपदेश का प्रतीकात्मक त्रिवृत् स्तोम है, निश्चय ही वह प्राण ही है।
अर्धमासः पञ्चदशः १५ दिनों का अर्धमास होता है, उसी प्रकार १५ की संख्या की साम्यता के कारण पञ्चदश स्तोम रूप क्षत्रिय वर्ण को अर्धमास कहा है क्योंकि प्रजा के साथ ही क्षत्रिय प्रशासक राज्य संपूर्ण होता है अन्यथा अधूरा है।
संवत्सरः सप्तदश- सप्तदश स्तोम संवत्सर के द्वादश महीनों और पञ्च ऋतुओं के योग रूप है। क्योंकि द्वादश महीने और पञ्च ऋतुएं ही सबको बसाती हैं, इसीलिए सबको बसाने के कारण ही इन्हें संवत्सर कहा जाता है। जिस प्रकार यह १२ महीने और पाँच ऋतुएं ही सम्पूर्ण प्रकृति को बसाती हैं, उसी प्रकार किसान भी इन्ही के क्रम से अपना उत्पादन और विपणन करते हुए सम्पूर्ण मानव समुदाय को बसाता है। इसलिए वह भी संवत्सर है, सप्तदश स्तोम है।
आदित्यः एकविंशः – यह आदित्य ही एकविंश स्तोम है, द्वादश माह पाँच ऋतुएं तीन लोक और इक्कीसवाँ आदित्य स्वयं अथवा द्वादश महीने पाँच ऋतुएं, मन, वाणी, बुद्धि और इक्कीसवाँ आदित्यरूप आत्मा स्वयं मिलकर एकविंश स्तोम होते हैं। इनका तप ही, श्रम ही सारी व्यवस्था का आधार है।
एते वै स्तोमा उपदेशनवन्त उपदेशनवान् भवति- यही स्तोम है। इन्ही स्तोमों का उपदेश होता है, और इन्हीं स्तोमों के उपदेश को जो अपने जीवन में उतारता है वह उपदेश प्राप्त होने वाला होता है। य एवं बेद- जो इस प्रकार जानते हैं वह ही स्तोमों के उपदेश को जानते हैं।
इस प्रकार एकविंश स्तोम रूप शूद्र वर्ण के कर्म की महत्ता का स्पष्ट रूप से उपदेश किया गया है। यहाँ इस ब्राह्मण में स्पष्ट रूप से आदित्य- सूर्य को एकविंश स्तोमरूप कहा गया है। अर्थात् देवों में सूर्य एकविंश स्तोम है, और मनुष्यों में शूद्र एकविंश स्तोम है। यही तथ्य पूर्व ब्राह्मण में स्पष्ट किया गया था, जिसे विकृत करने हेतु लिख दिया गया कि एकविंश स्तोम का अनुवतीं कोई देव नहीं है।
इस मंत्र से यह स्पष्ट हो गया कि वर्तमान में कलुषित मानसिकता के लोंगों द्वारा वेदों की व्याख्यान रूप ब्राह्मण ग्रंथों के कुछ अंश विकृत कर दिए गए जिसके कारण वह मंत्र विरुद्ध हो गये जैसा कि इस गवेषित भाग का सामंजस्य आगे के भाग से व्यवस्थित बैठता है
इमे वै लोकास्त्रिणवस्त्रिणवस्य वै ब्राह्मणेनेमे लोकास्त्रिष्पुनर्नवा भवन्ति।
निश्चय ही ये लोक त्रिणव है। ज्ञानी, आचार्य, ब्राह्मण के द्वारा तीन तीन बार आवृत्यात्मक अध्यापन के बाद यह लोक निरन्तर नव-नव ज्ञान से सम्पन्न होता हुआ नव-नव होता रहता है। जैसे शिक्षक, नये-नये ब्रह्मचारियों को शिक्षित करता हुआ, ज्ञान सम्पन्न बनाता हुआ, दूसरे नये- नये ब्रह्मचारियों को आवृत्यात्मक शिक्षा देने में संलग्न रहता हुआ, राष्ट्र को, लोक को नव-नव ज्ञान से सम्पन्न करता हुआ, राष्ट्र को पुनः नव-नव करता रहता है।
इस प्रकार राष्ट्र और लोक नव-नव होता रहता है। त्रिगुणित की गति से विकसित होता हुआ त्रिणव होता है।
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