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सिद्धार्थ का अपराधबोध और बुद्ध का मुक्त ध्यान 

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     कुमार चैतन्य 

अर्धरात्रि का समय है। कहानी के अनुसार बुद्ध को निकल जाना है, दबे पांव। लेकिन क्या इतना आसान है ? महल के दरवाजे के इधर सिद्धार्थ हैं तो दूसरी तरफ बुद्ध। लेकिन यह कुछ कदमों का फासला एक पूरे युग की यात्रा है। 

      महल के दरवाजे तक जाते जाते कदम ठिठक गए, सन्यास की इच्छा पर पारिवारिक मोह भारी हो आया। कि एक बार.. अंततः एक बार उन चेहरों को फिर से जी भर कर देख लूं.. क्या पता फिर कभी इन आंखों को यह नसीब हो न हो । अज्ञात की यात्रा पर जाने से पूर्व ज्ञात के छूटने का डर सबसे ज्यादा होता है।

      यह सोचते सोचते सिद्धार्थ के कदम मुड़ गए… बस एक झलक देखने के लिए। शयनकक्ष में सोती हुई यशोधरा… अद्भुत रूपवती स्त्री… जिसका जीवन सिर्फ और सिर्फ सिद्धार्थ के आस पास ही घूमता रहा है… उसे छोड़कर जा रहे हो? सवाल दिमाग पर किसी हथौड़े की तरह बज उठा… और किसलिए? एक अज्ञात खोज में..? जिसका न आदि पता है न अंत।

      यशोधरा का दोष कौन सिद्ध कर सकेगा सिद्धार्थ? क्या प्रेम में भरोसा और समर्पण ही उसका दोष है? नींद में बंद उसकी आंखों के पीछे एक पूरी दुनिया है जहां एक खुशनुमा परिवार राजमहल में सुखमय जीवन जी  रहा है। बगल में सोया हुआ दुधमुंहा पुत्र … राहुल… जिसके मस्तिष्क में अभी पिता की छवि बननी ही शुरू हुई है… उस तस्वीर के मुकम्मल होने से पहले ही प्रस्थान कर रहे हो सिद्धार्थ….? सवालों में घिरे सिद्धार्थ और दूसरे सिरे पर खड़े बुद्ध के बीच कितना बड़ा फासला है।

      इतिहास की सिर्फ एक पंक्ति कि ” एक रात्रि को बुद्ध चुपचाप ज्ञान की खोज में निकल गए” सिद्धार्थ के साथ न्याय नहीं कर सकती। सिद्धार्थ से बुद्ध तक का सफर एक प्रसव पीड़ा से गुजरना है जहां सिद्धार्थ से बुद्ध का जन्म होना है। यह पीड़ा सिद्धार्थ को भुगतनी है बुद्ध बनने के लिए। 

       सब दोषमुक्त हो सकते हैं सिद्धार्थ लेकिन तुम यशोधरा के अपराधी हो, तुम राहुल के अपराधी हो… सिद्धार्थ और बुद्ध के बीच की रेखा एक जहरबुझे तार की तरह तुम्हारी गर्दन पर हमेशा लिपटी रहेगी।

      इस रेखा के इधर सिद्धार्थ अपराधबोध में जूझता तड़पता रहेगा और रेखा के उधर बुद्ध अपराध और मुक्ति के पैमाने से मुक्त ध्यान में लीन रहेंगे।

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