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सिख साहस और प्रतिरोध की भावना को देते हैं तवज्जो, यही भावना उन्हें अन्याय के विरोध की राह पर ले जाती है

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सरजू कौल

पिछले हफ्ते अमृतसर में कट्टरपंथी सिख उपदेशक अमृतपाल सिंह के समर्थकों और पुलिस के बीच जो झड़पें हुईं, उनमें पंजाब का खूनी अतीत झलकता है। मगर पंजाबी समाज में सत्ता के विरोध की सहज प्रवृत्ति रही है। पंजाबी, खासकर सिख साहस और प्रतिरोध की भावना को सबसे ज्यादा तवज्जो देते हैं। यही भावना उन्हें अन्याय के विरोध की राह पर ले जाती है। सरकार और उसकी नीतियों के विरोध में भी यही भावना दिखती है।

क्या है इतिहास

ताकतवर शासकों के खिलाफ खड़े होने के इस साहस के पीछे इस समाज की भौगोलिक, ऐतिहासिक और धार्मिक वजहें हैं। चाहे सिकंदर हो या अंग्रेज, पंजाब इनका प्रतिरोध करने में सबसे आगे रहा। प्रतिरोध की इसी भावना को सिख गुरुओं ने बलिदान देकर और भी मजबूत बनाया। कहा भी जाता रहा है कि पंजाब का दिल्ली के साथ कभी तालमेल नहीं बैठता। यही चीज दिल्ली बॉर्डर पर साल भर चले किसान आंदोलन में भी दिखी। इस आंदोलन में पंजाबी समाज का हर वर्ग तन, मन, धन से तब तक जुटा रहा, जब तक कि तीन केंद्रीय कृषि कानून वापस नहीं ले लिए गए। पंजाब के लोग जानते हैं कि जब पुलिस, अदालत या सरकार सामने होगी तो इकलौता सिख समुदाय ही है जो उनके पक्ष में खड़ा होगा। धर्म और राजनीति का यह तालमेल गुरु हरगोबिंद सिंह के ‘मीरीपीरी’ के सिद्धांत में भी दिखता है, जो किसी भी अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध को प्रेरित करता है। फिर अपने चार बेटों की शहादत के बाद भी गुरु गोबिंद सिंह के सशस्त्र प्रतिरोध पर जोर ने सिखों में शहादत के लिए तैयार रहने की भावना को और मजबूती दी।

क्रेडिट: MIDJOURNEY

कौन है हीरो

सिखों को तो अंग्रेज भी नहीं संभाल पाते थे। 20वीं सदी की शुरुआत में ICS अधिकारी सर मैल्कम लॉयल डार्लिंग काफी दिनों तक पंजाब में नौकरशाह थे। उन्होंने पंजाबियों को गर्म दिमाग वाले साहसी लोग बताया था। अपनी किताब ‘एट फ्रीडम्स डोर’ में उन्होंने लिखा कि सिखों में ऊर्जा, उद्यम, स्वतंत्रता जैसी विशेषताएं हैं, जिनकी भारत को जरूरत है। सिख धर्म का एक और अनूठा पहलू यह है कि यहां गुरुद्वारों में जो अरदास होती है, उसके माध्यम से रोजाना सिखों के संघर्ष और इतिहास को याद किया जाता है। यह चीज सिख समाज को दमन और अन्याय की घटनाओं को याद रखने और उनका प्रतिकार करने के लिए प्रेरित करती रहती है। यहां तक कि पंजाबी में लोकगीत भी उन्हीं के गाए जाते हैं, जो उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होते हैं, शासकों का सामना करते हैं। यही तत्व मारे गए गायक सिद्धू मूसेवाला के गीतों में मौजूद था, जिसने उन्हें युवा पंजाबियों का प्रिय बना दिया।

संस्थाओं से मोहभंग

विभाजन के बाद मास्टर तारा सिंह का पंजाबी राज्य आंदोलन, पंजाब से हरियाणा और हिमाचल प्रदेश को काटकर अलग किया जाना, ऑपरेशन ब्लूस्टार और सिख विरोधी दंगे ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें सिख समुदाय अपने ऊपर अन्याय के रूप में देखता है। पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर बादल के नेतृत्व में शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने जिस तरह राजनीति के जरिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) और अकाल तख्त को अपने प्रभाव में लिया, उससे यह समुदाय सिख धर्म से जुड़ी संस्थाओं में विश्वास खोने लगा। समुदाय पर बादल और अकाली दल की पकड़ आज इस हद तक कम हो चुकी है कि 2022 विधानसभा चुनावों में पार्टी बमुश्किल तीन सीटें जीत पाई। युवाओं, खासकर ग्रामीण और कस्बाई इलाकों के युवाओं के मोहभंग का अंदाजा अमृतपाल सिंह और उनके संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ को मिले उनके भारी समर्थन से लगाया जा सकता है।

आज पंजाबी युवा खेती में कोई भविष्य नहीं देखते हैं। उनके पास यहां रोजगार का कोई सहारा नहीं है। वे कनाडा, यूके या ऑस्ट्रेलिया जाने का सपना देखते हैं, जहां सिख समुदाय के लोग अच्छी संख्या में हैं और राजनीतिक प्रभाव बना चुके हैं। राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व की विफलता पंजाब को 40 साल पहले 1978 वाली स्थिति में धकेल सकती है, जिसने उग्रवाद की उत्पत्ति और भिंडरावाले के उदय की जमीन तैयार की थी।

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