*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*
कहावत है, पूत के पांव पालने में ही दीख जाते हैं। मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल के पहले करीब पचास दिनों में ही, अपने पांव बखूबी दिखा दिए हैं। और ये पांव बताते हैं कि हरेक संकट से उबरने का उसे एक ही रास्ता दिखाई देता है — सांप्रदायिक ताप बढ़ाया जाए। हैरानी की बात नहीं है कि इसका सबसे खुलेआम प्रदर्शन उस उत्तर प्रदेश से ही शुरू हुआ है, जहां आम चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगियों को, कम-से-कम उनके हिसाब से अप्रत्याशित रूप से भारी हार का सामना करना पड़ा है। न सिर्फ भाजपा राज्य की कुल अस्सी सीटों में से 33 पर आ गयी और 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 29 सीटें नीचे चली गयी, बल्कि राम मंदिर निर्माण पर केंद्रित अपनी तमाम प्रचार आंधी के बावजूद, उसने अयोध्या-फैजाबाद की अपनी सीट भी गंवा दी और वह भी सामान्य सीट से समाजवादी पार्टी द्वारा मैदान में उतारे गए, एक दलित उम्मीदवार के हाथों। इतना ही नहीं, इस राज्य में बनारस की सीट से तीसरी बार प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे, खुद नरेंद्र मोदी की जीत का अंतर घटकर डेढ़ लाख के करीब रह गया, जो किसी प्रधानमंत्री की जीत का सबसे कम अंतर है। यही नहीं, कुल मिलाकर राज्य में भाजपा का मत फीसद भी, 2019 के चुनाव की तुलना में 8 फीसद से ज्यादा गिर गया और 41.5 फीसद के करीब पर आ गया।
स्वाभाविक रूप से उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी भाजपा न सिर्फ इस हार से हिली हुई है, बल्कि इसकी व्याख्या करने के मुश्किल सवाल से भी जूझ रही है कि चुनाव में उसकी ऐसी दुर्गत हुई तो कैसे? हैरानी की बात नहीं है कि इस मुश्किल सवाल के जवाब की तलाश ने राज्य में भाजपा के नेतृत्व की आपसी खींच-तान को एक नयी ऊंचाई पर पहुंचा दिया। पिछले ही दिनों जब राज्य में संघ-भाजपा द्वारा समीक्षा बैठक का आयोजन किया गया, इसकी अटकलों ने बहुत तेजी पकड़ ली कि आम चुनाव के दयनीय प्रदर्शन के बाद, आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ सकता है। हालांकि, भाजपा के उत्तर प्रदेश राज्य अध्यक्ष, भूपेंद्र सिंह चौधरी ने ‘आशा के अनुरूप नतीजे नहीं आने’ की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने की घोषणा की और वास्तव में चुनाव नतीजों के बाद ही वह अपने पद से इस्तीफे की पेशकश भी कर चुके थे, लेकिन किसी से यह छुपा नहीं रहा है कि उक्त समीक्षा बैठक में, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री, केशव प्रसाद मौर्य के बीच, जम कर खींच-तान ही नहीं हुई, घात-प्रतिघात भी हुए।
खबरों के अनुसार, जहां आदित्यनाथ ने आम चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन के लिए, अपने लोगों के ‘अति-आत्मविश्वास’ और उसके चलते प्रयासों की कोताही को जिम्मेदार ठहराया, वहीं केशव प्रसाद मौर्य ने इसे पार्टी और संगठन की आलोचना ठहराते हुए इस पर आपत्ति जतायी और जोर देकर कहा कि पार्टी और संगठन ही सबसे ऊपर हैं, सरकार से भी ऊपर। जाहिर है कि उनका निशाना आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार के प्रदर्शन पर था, जिसको लेकर संघ-भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं की भी शिकायतें कोई थोड़ी नहीं हैं। ऐसा समझा जाता है कि संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं की यह आम शिकायत है कि आदित्यनाथ सरकार, कुछ चुने हुए नौकरशाहों द्वारा ही चलाई जा रही है, जबकि सत्ताधारी पार्टी के आम कार्यकर्ताओं की ही नहीं, खुद मंत्रियों तक की कोई सुनवाई नहीं होती है। इस माने में आदित्यनाथ, सचमुच मोदी मॉडल का ही अनुसरण कर रहे हैं, जहां वास्तव में सरकार अति-केंद्रीयकृत तरीके से, नौकरशाहों के एक छोटे से ग्रुप द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय से चलाई जा रही है। बहरहाल, आदित्यनाथ मॉडल की अपनी ही एक विशेषता और है। राज्य के जो दोनों उप-मुख्यमंत्री अपने असंतोष का इजहार करते हुए, चुनाव नतीजे आने के बाद से मुख्यमंत्री की बुलाई बैठकों का एक प्रकार से बहिष्कार कर रहे बताए जाते थे, उनमें से एक ब्रजेश्वर पाठक की अतिरिक्त शिकायत खबरों के मुताबिक यह थी कि आदित्यनाथ के राज में शासन-प्रशासन में जाति विशेष का दबदबा चल रहा था।
बहरहाल, आदित्यनाथ के एड़ियां गड़ा देने के बाद, जब खराब चुनावी प्रदर्शन के लिए उन पर हमलों से हांडी चौराहे पर फूटने का खतरा दिखाई दिया और मुख्य विपक्षी पार्टी, सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने, चुटकी लेने के लिए ‘सौ लाओ, सरकार बनाओ’ का मानसून ऑफर दे दिया, दिल्ली में बैठे भाजपा नेतृत्व को जल्दबाजी में युद्घविराम की घोषणा कराने का फैसला लेना पड़ा। अब गुजरे हुए आम चुनाव को छोड़कर, आने वाले दस विधानसभाई सीटों के उपचुनाव की ओर ध्यान मोड़ने का पैंतरा आजमाया गया। इन उपचुनावों के एक तरह से जीवन-मरण का प्रश्न बनाए जाने का ऐलान करते हुए, एक सीट पर तीन मंत्रियों के हिसाब से, तीस मंत्रियों को इन सीटों के चुनाव की जिम्मेदारी सौंप दी गई। यह दूसरी बात है कि यह सब भी आदित्यनाथ की कुर्सी पर संकट फिलहाल टलने का ही इशारा है, संकट पूरी तरह से दूर हो जाने का नहीं। जैसे सत्ताधारी पार्टी में अंदरूनी दरारों के जस के तस बने रहने के एक महत्वपूर्ण संकेत में, इन महत्वपूर्ण उपचुनावों की जिम्मेदारी संभालने वाले तीस मंत्रियों में, दोनों उप-मुख्यमंत्रियों को जगह ही नहीं मिल सकी है।
बहरहाल, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपनी घेरेबंदी की काट के लिए, सांप्रदायिक ताप बढ़ाने के उसी दांव का इस्तेमाल किया है, जिसके लिए उन्हें जाना जाता है। सत्ताधारी पार्टी में इस सारी उठा-पटक के बीच ही, मुजफ्फर नगर पुलिस ने एक साफ तौर पर सांप्रदायिक रूप से विभाजनकारी आदेश जारी कर दिया कि जिले के करीब सवा दो सौ किलोमीटर के कांवड़ मार्ग पर पड़ने वाली सभी खाने-पीने की चीजों की दूकानों, ठेलों, टपरियों, ढाबों, रेस्टोरेंटों के साइन बोर्ड पर मालिकों के नाम लिखने होंगे। इस आदेश पर अमल के क्रम में यह स्पष्ट हो गया कि मकसद दूकानदारों की धार्मिक पहचान उजागर करना था और इसमें यह भी जोड़ दिया गया कि मालिकों के साथ ही कर्मचारियों के नाम भी उजागर किए जाएं। कहने की जरूरत नहीं है कि इस आदेश का एक ही मकसद था कि मुसलमानों की दूकानों की अलग से पहचान कराई जाए, जिससे कांवड़ियों को उनसे खाने-पीने की चीजें खरीदने से हतोत्साहित किया जा सके।
स्वाभाविक रूप से इस आदेश की तुलना, हिटलर की जर्मनी में यहूदियों की पहचान कराने के लिए, उनकी दूकानों पर उनके यहूदी होने के नोटिस और निशानी के तौर पर पीले सितारे टंगवाए जाने के आदेशों से की जा रही थी।
मुजफ्फरनगर पुलिस के इस आदेश पर जब चारों ओर से शोर मचा, खुद भाजपा सरकार के पूर्व-मंत्री, मुख्तार अब्बास नकवी से लेकर, बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान तथा राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी तक ने इस विभाजनकारी कदम को अनुचित और नुकसानदेह ठहराया। लेकिन, सत्ताधारी भाजपा पर इसकी उलटी ही प्रतिक्रिया हुई।
केंद्र में बैठी मोदी सरकार और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने जहां हर बार की तरह, इस मुद्दे पर भी चुप्पी साध ली, वहीं इस चुप्पी में अनुमोदन का इशारा पढ़कर, आदित्यनाथ की सरकार और आगे बढ़ गई। कहां तो मुजफ्फरनगर पुलिस चौतरफा आलोचनाओं के दबाव में, यह सफाई देने पर मजबूर हुई थी कि उसका आदेश ‘स्वैच्छिक’ रूप से पालन के लिए है, अनिवार्य नहीं है, आदि ; वहीं आदित्यनाथ सरकार ने इस आदेश को मुजफ्फरनगर से आगे बढ़ाकर, पूरे राज्य पर ही लागू कराने की घोषणा कर दी। और सांप्रदायिक पैंतरों में उप्र सरकार से जैसे होड़ लेते हुए, उत्तराखंड की भाजपायी सरकार ने भी ऐसी ही घोषणा कर दी। उधर मध्य प्रदेश आदि अन्य भाजपा-शासित राज्यों से भी इसी प्रकार के कायदे लागू कराने की आवाजें जोर पकड़ने लगीं, जिससे मुसलमानों की दूकानों आदि की अलग से पहचान हो सके।
बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट ने इन सांप्रदायिक रूप से विभाजनकारी आदेशों पर रोक लगा दी है और कहा है कि खाने के प्रकार, जैसे शाकाहारी-मांसाहारी आदि की पहचान कराना काफी है। सर्वोच्च न्यायालय के इस दो-टूक हस्तक्षेप के बाद, इस सिलसिले पर रोक लग जाने की उम्मीद की जानी चाहिए। कम-से-कम इतने खुले आम सांप्रदायिक विभाजन के खेल पर तो अंकुश लगना ही चाहिए। लेकिन, संघ-भाजपा से यह रास्ता छोड़ने की उम्मीद किसी को नहीं करनी चाहिए। आम चुनाव के नतीजे आने के बाद से छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश आदि कई भाजपा-शासित राज्यों में हुई मॉब लिंचिंग की तथा महाराष्ट्र, उत्तराखंड आदि में हुई अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों/ आयोजनों पर हमले की घटनाएं और इन घटनाओं पर न सिर्फ मोदी राज की चुप्पी, बल्कि उन घटनाओं की सांप्रदायिक प्रकृति को ही नकारने की भाजपायी शासन की कोशिशें तो भाजपा राज से कोई उम्मीद नहीं करने का इशारा करती ही हैं।
इससे भी ज्यादा बड़ा इशारा करती हैं उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तथा बंगाल तक, संघ-भाजपा नेताओं की इस आशय की घोषणाएं कि जब अल्पसंख्यकों ने भाजपा को वोट नहीं दिया है, उन्हें भाजपा राज से कोई उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए। बंगाल में भाजपा के शीर्ष नेता, शुभेंदु अधिकारी ने तो बाकायदा भाजपा के अखिल भारतीय नेतृत्व से मांग की है कि ‘सब का साथ सब का विकास’ के नारे को त्याग दिया जाना चाहिए और उसकी जगह, ‘जो हमारे साथ, हम उनके साथ’ का नारा बुलंद किया जाना चाहिए! यह संयोग ही नहीं है कि भाजपा को समर्थन न देने के लिए अल्पसंख्यकों से बदला लेने की इन बढ़ती हुई मांगों को भी मोदी राज अपनी जानी-पहचानी चुप्पी से बढ़ावा ही दे रहा है। यह अल्पसंख्यकविरोधी हिंसा को और नजदीक ले आता है।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*