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सीता का व्यक्तित्व दुनिया की तमाम महिलाओं के लिए आदर्श

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सुसंस्कृति परिहार

  आज जब नवरात्रि पर्व बड़े गर्व ,हर्ष और जोश के साथ मनाया जा रहा है तब महाकलिका सीता की याद आना स्वाभाविक है। ये वे पुत्री,पत्नि ,भाभी और माता है जिसका जीवन वृत्त नारीशक्ति को संबल देने वाला है राम के कठिन वक्त में प्रकट होने वाली महाकालिका सीता का यह स्वरूप आज भी देश दुनिया की महिलाओं में मौजूद है। वे कठिन वक्त अपनी छुपी शक्ति का इस्तेमाल करती हैं जिसका अहसास किसी पुरुष को नहीं होता। यहां तक कि कथित भगवान राम भी सीता की इस अंतर्शक्ति को अंत में ही समझ पाए। इसे सिर्फ जानकी नंदन ही समझ पाए थे जब उन्होंने शिव धनुष उठाए सीता को देखा था इसलिए उनके विवाह हेतु शिव धनुष उठाने की शर्त रखी गई थी।कहते हैं,जनक ने सीता को बांये हाथ से शिव जी का भारी धनुष वाण उठाते देख लिया था तभी उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो व्यक्ति इस धनुष को उठायेगा उसी से सीता का वरण होगा ।वह धनुष साधारण नहीं था ।धनुष जिसके बारे में कहा जाता है ‘भूप सहस्त्र दस बारंबारा/लगे उठावन टरै ना टारा। ये दोनों प्रसंग निश्चित तौर पर सीता को अद्वितीय शक्तिशालिनी सिद्ध करते हैं ।

      सबसे गंभीर बात यह है कि भारतीय समाज में अमूनन साजिशन जिस सीता की चर्चा होती है या जिनका आदर्श महिलाओ के लिये प्रेरणास्पद माना जाता है वह तुलसीकृत रामचरित मानस में वर्णित कपोल कल्पित सीता हैं जो दीन हीन है पुरुष के अच्छे बुरे सभी आदेशों को मानने मजबूर हैं। रामायण की सीता क्रांतिकारी ,धीर गंभीर है। उसका अपना वजूद है।वह जुझारू  कामरेड की प्रतिमूर्ति नज़र आती है।

ज़रा कल्पनाओं से हटकर  बाल्मीकि रामायण का रूख करें  तो पायेंगे कि सीता यानि जानकी एक सीधी साधी मूक, पति का आंख मूंदकर अनुकरण करने वाली पत्नि नहीं हैं बल्कि एक जागरूक,साहसी,दृढ़ ,न्याय प्रिय ,निर्भीक,तर्क-वितर्क करके विरोध दर्ज कराने वाली,जबरदस्त मनोबल से भरपूर ,उच्च संस्कार से सम्पन्न,मुखर,स्वाभिमानी,एवं शालीनता से भरपूर पति की प्रगति में सहयोगी ,उस युग की महत्वपूर्ण सशक्त नारी थी ।

यही वजह है कि ,बाल्मीकि ने रामायण को राम का अयन नहीं बल्कि रामा यानि सीता का अयन मानते हुए अपनी पुस्तक का नाम ‘रामायण’ दिया। रामायण में वे सीता को प्रमुख मानते हुए  ‘सीता:पतये नम:’ कहते हैं ।संभव है, लोकजीवन में सीता राम  अभिवादन तभी से शुरू हुआ हो सकता है। कहने का आशय यह कि लोकजीवन का विवेक भी सीता को राम से पूर्व ही स्वीकारता है। लोकजीवन का यही विवेक विभीषण को जिसका राजतिलक स्वत:राम ने किया तथा जिसे तुलसीदास रामभक्त मानते हैं उसे घर का भेदी लंका ढाये कहकर मीरजाफर और जयचंद के बगल में खड़ा कर देता है। यही विवेक लोक कथाओं और लोकगीतों में सीता को राम से बड़ी शक्ति  घोषित करता है। महारावण के रक्त बीज से जब राम परास्त होते हैं तो उन्हें सीता का स्मरण करना पड़ता है वे महाकालिका  के रूप में प्रकट होकर महारावण का वध कर खून को अपने खप्पर में भरकर पी जाती हैं तब कहीं जाकर महारावण का अंत संभव हो पाता है।पस्त परे रावन सें रघुवर/याद करें सीता खों रघुवर/चली करन कल्याण हो महाकालीकालिका।लोकगीतों में सीता का इसलिए ज़्यादा प्रशस्तिगान  मिलता है ।

बाल्मीकि रामायण में जानकी पहली बार तब बोलती हैं जब वे वन गमन के अवसर पर राम के साथ जाने की अनुमति चाहती हैं। पति के मुख पर दु ख की छाया देखने पर वे कहती हैं,प्रभु आपको क्या हो गया ! वे वनवास की खबर से जरा भी उदास नहीं होतीं और राम की देखभाल,रास्ते की बाधाओं को दूर करने तथा उन्हें सब तरह से प्रसन्न रखने के लिये राम के साथ वन जाने की उत्कंठा जाहिर करतीं हैं। जब राम  वन की कठिनाईयों को उन्हें विस्तार से बताकर अपने साथ ले जाने में अनिच्छा व्यक्त करते हैं तब वह राम को सहज प्रसन्नता के साथ ,सहसा यह भरोसा दिलातीं हैं कि वन में वे उन पर किसी तरह का भार नहीं बनेगी। बहुत समझाने पर भी जब राम उनकी बात नहीं मानते तब वे अकाट्य तर्क देते हुए कहतीं हैं -,यदि मेरे पिता को पता होता कि राम इतने डरपोक हैं, तो वे आपसे मेरा विवाह नहीं करते।इस बात पर राम चुप हो जाते हैं और फिर उन्हें वन ले जाने सहमत भी।स्पष्ट है ,जानकी कम बोलने पर भी ,अवसर पड़ने पर विनम्रता के साथ दृढ़ता दिखाने की क्षमता रखतीं हैं।

जानकी अपने सभी कामों के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना से युक्त होने पर भी राम का अंधअनुकरण नहीं करतीं। उनका अपना व्यक्तित्व ही है कि राम के कामों पर शंका उत्पन्न होने पर उसे व्यक्त करने में संकोच नहीं करता उदाहरण स्वरूप जब राम दंडकारण्य से सभी दानवों को नष्ट करने की प्रतिज्ञा करते हैं तो वे बड़ी विनम्रता और शिष्टता से पूछतीं हैं कि ऐसे निरीह प्राणियों को जो उन्हें हानि नहीं पहुंचा रहे हैं नष्ट करना कहां तक न्याय संगत है?

सीता वनवास के समय अपनी सुरक्षा के विषय में नहीं वरन् अपने पति राम तथा उनके भाई लखन के लिये चितित रहती हैँ क्योंकि उन्हें उनके कारण कष्ट उठाना पड़ रहा है। दंडक वन में सबसे पहले उनको विराध नामक राक्षस का सामना करना पड़ता है। यह राक्षस पहले जानकी को उठाकर ले जाता है फिर राम लखन को विरोधी पाकर जानकी को तो छोड़ देता है पर दोनों राजकुमारों को ले जाने की कोशिश करता है ।इस संकट के समय सीता उस राक्षस से अनुरोध करती हैं कि वह दोनों राजकुमारों को छोड़कर स्वयं उन्हें ले जाये। असामान्य मनोबल वाली सीता के सिवाय कोई महिला इस प्रकार की बात नहीं कह सकती है।

जानकी स्वभावत: निर्भीक है। जब रावण बुरे उद्देश्य से भेष बदलकर उनके पास आता है तो वे उसे सचमुच साधु मानकर उसके साथ उसी प्रकार का व्यवहार करती हैं। उसे आदर सहित कंदमूल भेंट करके अपने पति के लौट आने का कहतीं है। जब रावण अपने को राम से श्रेष्ठ दिखाकर उन्हें प्रभावित करने की चेष्टा करता है तब भी वे उसे उचित उत्तर देने में संकोच नहीं करतीं तथा उस दुर्व्यवहार के परिणाम से सावधान करतीं हैं। वे बराबर उसे साधु शब्द से सम्बोधित करतीं हैं यह उनके उच्च संस्कार  से सम्पन्न होना दर्शाता है ।

अशोक वाटिका में हनुमान जब जानकी को देखते हैं तब जानकी की दृष्टि हनुमान पर नहीं पड़ती। जानकी की दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट करने में हनुमान को पन्द्रह सर्गों के अन्तराल की प्रतीक्षा करनी पड़ती है।इस अवधि में हनुमान की मानसिक दशा कैसी रही होगी। जब जानकी हनुमान को देख लेती हैं तब हनुमान सावधानीपूर्वक अपना परिचय देते हैं। विश्वास अर्जित कर लेने तथा यही जानकी है, जान लेने के बाद हनुमान उन्हें कंधे पर बैठाकर राम के पास ले जाने का प्रस्ताव रखते हैं। जानकी इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देतीं हैं और कहतीं हैं कि रावण जिस ढंग से उन्हें उठाकर ले आया है उसी तरह उनका यहाँ से भागना अनुचित है। उचित यही है कि राम,रावण का सामना करें। उन्हें सामर्थ्य और शालीनता से प्राप्त करें।

जानकी का सबसे सबसे बड़ा गुण यह है कि वे दूसरों का बुरा नहीं सोचतीं चाहे वह कितने ही बुरे विचारों वाला ही क्यों न हो? वे मानवीय अधिकारों की पैरवी करतीं हैं। राम के विषय में चिंतित होने पर लक्ष्मन के प्रति बोले गये,कठोर शब्दों के लिए बारबार प्राश्चित भी करती हैं। कभी वे अनुनय भी करतीं हैं कि यह दुखद स्थिति उनके दुर्भाग्य और बुरे बर्ताव के कारण बनी है।दूसरे की गल्तियों को भुलाकर उन्हें क्षमा करने वे सदैव तत्पर रहती हैं।

राम जब सीता से ये कहते हैं कि चाहे जो कुछ भी हुआ हो लंका में एक वर्ष रहने के बाद मैं तुम्हें अपनाने और अयोध्या ले जाने तैयार नहीं हूं। मैने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। अब अपनी इच्छानुसार कहीं भी जाने के लिये तुम स्वतंत्र हो अपने पति की निर्मम और कठोर टिप्पणी की प्रतिक्रियास्वरूप राम के विलक्षण व्यवहार पर वह आश्चर्य प्रकट करतीं हैँ और कहतीं है कि यदि आपको वास्तव में मेरी पवित्रता और चरित्र पर संदेह है तो हनुमान के माध्यम से यही क्यों नहीं कहला दिया इससे आप और मेरे लिए लड़ने वाले ये सारे लोग शारीरिक और मानसिक यातना से बच जाते ।युद्ध पीड़ितों की वेदना का एहसास उनकी मानवीयता और सहृदयता का परिचायक है। वे राम से स्पष्ट रूप से कहतीं हैँ कि आश्चर्य है ,आप मुझमें केवल दुर्बलता,चंचलता तथा अवगुणों से पूर्ण एक साधारण स्त्री को ही देख पाये। वे उनकी दया के लिये प्रार्थना नहीं करतीं। वे इस धरती के सबसे पावन तत्व अग्नि से शरण मांगतीं हैं वे सोचतीं हैं कि जो कठोर वचन उनसे कहे गये,उससे अग्नि ज्यादा भयंकर नहीं हो सकती है ।

वनवास के दौरान बाल्मीकि आश्रम में रहकर पुत्रों को जन्म देकर पालन करतीं हैं। जब राम के दरबार में पुत्रों सहित जातीं हैं तब भी दया की भीख नहीं मांगतीं ना ही राजाराम की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देतीं हैं सिर्फ पृथ्वी मां से निर्भीक होकर अनुरोध करती हैं कि वह अपनी बेटी को शाश्वत शरण और शांति प्रदान करें और देखते ही देखते पृथ्वी में समा जाती हैं ।

  कहना ना होगा,कि रामचरित मानस को यदि अल्प समय के लिए विस्मृत कर दें तो मूल रामायण एवं लोकमानस में सीता का स्थान राम से कहीं ज्यादा ऊंचा है। यही वजह है कि वे अहिल्या ,द्रौपदी,तारा,मंदोदरी के साथ हैं जो कि मानव संस्कृति के इतिहास की पांच महाकन्याओं में स्थान प्राप्त कर सकीं। इसीलिए बाल्मीकि ने स्वयं कहा है–सीताश्चरितम् महत्।

कुल मिलाकर सीता का व्यक्तित्व आज के हालात में दुनिया की तमाम महिलाओं के लिए आदर्श और प्रेरणास्पद है।

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