मनीष सिंह
सदन में फैला धुआं अब छंट चुका. चार लोग पकड़े गए, जो मुसलमान नहीं. खालिस्तानी, कश्मीरी या मणिपुरी भी नहीं हैं. हिन्दू हैं उन प्रदेश से, जहां कोई असंतोष नहीं, लोकप्रिय सरकारें है. तो फिर, जैसा कि एक लोकप्रिय वीडियो कहता है- हे प्रभु, हरिनाम, श्रीकृष्ण, जगन्नाथम, प्रेमानंद…ये क्या हुआ ??
बुरा हुआ, जो नहीं होना चाहिए. अब तो लोकतन्त्र है, संविधान है, स्वराज है, लोकप्रिय सरकारें हैं. हर जाति, धर्म समाज के नेताओं का मंत्रित्व है. रोज चुनाव होते हैं, आप अपना मत मशीन में डालिये.
ये संसद में छलांग लगाकर, धुएं धमाके से बहरे कानों में बात डालने का दौर नहीं…तो पकड़ी गई महिला को मोटी, काली कलूटी, भीमटी, फर्जी बेरोजगार/वामपंथी बताने का ज्वार उमड़ा पड़ा है. ये सब ठीक है, पर कुछ भावार्थ भी पढ़ने की जरूरत है.
पहली बात ये की ये किसी विद्रोही, अलगाववादी मांग को लेकर प्रदर्शन नहीं कर रहे थे. नारे बेरोजगारी के थे. ऐसा नारा जो राम, मुसलमान, पाकिस्तान के मुकाबले, चुनाव जिताऊ नहीं रहा. मजबूत संगठन, चुनावी रणनीति के सामने ये सवाल वैसे ही भहरा जाता है, जैसे बुलडोजर के स्पर्श से अवैध निर्माण भूशायी हो जाये.
महंगाई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था के सवाल ईवीएम में जाकर गुम जाते हैं पर समाप्त हो गए, ऐसा नहीं. सवाल, फजाओं में है तो सही. चुनाव से व्यक्त नहीं हुआ तो अभिव्यक्ति का दूसरा मार्ग, सड़कों पर प्रदर्शन होते थे. कहीं लाख पचास हजार लोग बैठ जाएं तो कोई मंत्री आता, नेगोशिएशन होते, पॉलिसी में बदलाव होता था.
जंतर मंतर जाओ, कुछ लोग बैठे होते. अकेले बैठे आदमी तक भी मीडिया आता, सवाल पूछता, आप टीवी अखबार में दिखते, सुनवाई होती.
अब ये मार्ग भी बंद हैं. आपके जिगर और जेब में ताकत हो तो किसानों की तरह साल भर हजारों का हुजूम दिल्ली में बिठाकर तमाशा करें. शायद कुछ परिणाम आ भी जाये.
मगर दो चार दिन, हफ्ते महीने में फुस्स हो जायें तो गवर्मेन्ट को घण्टा फर्क नही पड़ता बल्कि वो आपके थककर हटने तक, हठीली रहती है.
लाखों की रैली भी न्यूज में फ़्लैश नहीं होती. लोग हैशटैग चलाते है, एक लाख-दो लाख ट्वीट…कौन सुनता है ?? दूसरी तरफ से उन्हें गद्दार बताते करोड़ों ट्वीट आ जाते हैं.
लोकतन्त्र जब होता है, जब जनता उसे एवरी-डे महसूस करती है. दो चुनावों के बीच के 1825 दिन सरकार में आपकी सुनवाई होने का अहसास होता है. 1826 वे दिन मशीन से भौचक करने वाला जिन्न निकलकर लोकतन्त्र को सम्पूर्णता नहीं देता. पांच साल तानाशाही का लाइसेंस देने का नाम तो चुनाव नहीं है न ??
सम्विधान छाप देने से भी आजादी नहीं मिलती. उसका भाव शासन में परिलक्षित हो. न्याय तन्त्र, मीडिया, स्वतंत्र संस्थाएं…, सत्ता का हथौड़ा बनने की जगह नागरिक अधिकारों को बल दें, तब ताकतवर आजाद नागरिक के सामने खड़ी संवदेनशील सरकार लोकतन्त्र को पूरा करती है. क्या ये इतना डिफिकल्ट नोशन है कि समझना दुरूह हो ??
माना सरकार लोकप्रिय है, दुनिया में डंका बज रहा, खूब सड़कें बनवा रही है, खातों में पैसा दे रही है, जीडीपी और शेयर मार्केट ग्रोथ से बजबजा रहा है. पर ये तो स्वनिर्धारित एजेंडा है, उनके ऐच्छिक इंडिकेटर है. समस्याएं इसके इतर भी बहुत होती है. जिन्हें खारिज करने का लाइसेंस चुनाव नहीं देते. इन मुद्दों पर संवेदनहीनता, सरकार और व्यवस्था में अनास्था पैदा करती हैं.
इन मांगों को देशप्रेम और देशद्रोह की कसौटी पर कसना, फर्जी किसान, फर्जी बेरोजगार, पाकिस्तानी, मोटी, वामपन्थी, भीमटा घोषित करना भी दमन का तरीका ही है. और याद रहे, दमन हमेशा उस व्यवस्था में नागरिक की अनास्था को बढ़ाता है.
भला कुछ तो कारण होगा कि अंग्रेजो ने कांग्रेस बनाईं. एक सेफ गैस्केट की तरह.. जहां इंडियन्स की बातें सुनी जा सके. फिर असेम्बलियां बनाई, प्रोविंस में सरकारें बनाने की इजाजत दी. इसलिए नहीं की वे लोकतन्त्र, मानवाधिकार के प्रेमी थे बल्कि इसलिए कि वे अपनी सत्ता को लम्बा करना चाहते थे.
जिसे अपनी सत्ता लम्बी करनी है, वह डिस्कसन के चैनल खोलता है, बात सुनता है. अंग्रेजों ने यही किया. वे अपनी व्यवस्था में आपकी आस्था चाहते थे.
कल संसद में उड़ा रंगीन धुआं, उस अनास्था की बेनूर अभिव्यक्ति है, जो बताता है कि कहीं कुछ छूट गया है. कुछ खदबदा रहा है. प्रेशर कुकर के किसी कोने से निकली ये भाप अंदर का तापमान बताती है, जो सत्ता के कंगूरों पर हैं, उन्हें इसके भावार्थ समझने होंगे.
दिलों का धुआं संसद में पहुंचा है. जो नहीं होना चाहिए, हुआ. ये एक उदास दिन है. पार्लियामेंट की सिक्यूरिटी ब्रीच, एक तकनीकी और लीगल मसला है. उस बेमुरव्वत नजरिये से ही निपटा जाना चाहिए. पर इस उदास, हताश अभिव्यक्ति की गूंज सत्ता के गलियारों में भी तैरनी चाहिए.