डॉ. प्रिया
_धुम्रपान ध्यान का अभाव है। जहां ध्यान होगा वहां धूम्रपान नहीं होगा। धूम्रपान में थोड़े समय के लिए ध्यान वाली स्थिति बनती है। सिर्फ थोड़े से समय के लिए, उसके बाद उसके दुष्परिणाम स्वरूप संताप हाथ लगता है और अंतिम परिणाम के रूप में गंभीर बीमारी हाथ लगती है।_
धुम्रपान लगभग इन्ही बातों से शुरू होता है जैसे सिगरेट पीना कोई बड़ी बात है, यानी बड़ा आदमी! पैसे वाला आदमी! क्योंकि सिगरेट का खर्च पैसेवाला ही वहन कर सकता है?
अपने आप को बड़ा बताने के चक्कर में हम युवावस्था में ही स्वयं को धुम्रपान का गुलाम बना लेते हैं। जिसकी कि कोई जरूरत ही नहीं थी।
जब भी हम तनावग्रस्त या सुस्तीपन महसूस करते हैं, तुरंत धुम्रपान शुरू कर देते हैं। अक्सर तो भोजन के बाद धुम्रपान जरूरी- सा हो जाता है। क्योंकि भोजन के बाद हमारी सारी उर्जा भोजन को पचाने में नियोजित हो जाती है, जिससे सुस्ती छा जाती है और स्फुर्ती के लिए हम धूम्रपान करने लगते हैं।
_साथ ही शरीर की एक यांत्रिक आदत भी बन जाती है, जैसे ही भोजन किया कि हाथ जेब में सरकता है और सिगरेट निकाल लेता है।_
यह यांत्रिक आदत हमारे अचेतन मन की है। क्योंकि हमारा चेतन या कहें जागृत मन भीतर विचारों में व्यस्त रहता है या फिर बाहर किसी से बातचीत करता रहता है तो शरीर की सुन नहीं पाता है। अचेतन शरीर की सुनता है, वह तलब लगाता है और हमारा मष्तिष्क शरीर को तुरंत आदेश देता है।
अतः हमारा हाथ स्वत: ही जेब से सिगरेट निकालता है और हम बातचीत करते हुए ही सिगरेट जला कर पीने लगते हैं। जैसे कोई मशीन काम कर रही है।
_हमारी रोजाना की आदतें गहरी अचेतन में चली जाती है। और अचेतन ठीक समय पर उन्हें शरीर को याद दिला देता है। और शरीर उन्हें स्वतः ही पूरा करने लगता है, तभी तो हम व्यस्त रहते हैं तब भी इस तरह की प्रक्रियाएं जारी रहती है।_
तंबाखू में निकोटिन नामक तत्व होता है, जो हल्का – सा नशा देता है । जब धुंए में उपलब्ध निकोटिन फेफड़ों द्वारा ह्रदय से होकर खून में मिलता है, तो वह हमारे शरीर को सुलाने का काम करता है, शिथिल करने का काम करता है।
_जब शरीर शिथिल होता है, तो हमारी श्वास भी हल्की – सी शिथिल हो गहरी होने लगती है। तथा धुम्रपान करने के लिए भी हमें श्वास को भीतर खींचना होती है, जिससे शरीर शिथिल होता है और थोड़ा विश्राम अनुभव होता है।_
धुम्रपान के साथ ही श्वास गहरी होने के कारण हमारे शरीर में कार्बन और आक्सीजन का अनुपात बढ़ने लगता है।धुंए वाली श्वास से कार्बन और बिना धुंए वाली श्वास से आक्सीजन की मात्रा बढती है। आक्सीजन के बढ़ने का कारण श्वास का गहरी होना है।
_आक्सीजन तथा निकोटिन के हल्के नशे के कारण हमें हल्की सी तंद्रा नुमा ताजगी महसूस होती है। तथा कार्बन के बढ़ने से धुम्रपान के बाद संताप पकड़ता है। कभी-कभी तो संताप इतना बढ़ जाता है कि सिगरेट खत्म होने के पहले ही हम उसे तोड़कर फेंक देते हैं।_
निकोटिन और गहरी श्वास से मिली आक्सीजन के कारण शरीर के शिथिल होने से मन, यानी विचार भी शिथिल होने लगते हैं, क्षीण होने लगते हैं। अत: हमें निर्विचार का क्षणिक सुख मिलता है जिससे तनाव से राहत का आभास होता है।
इसी क्षणिक सुख, इसी राहत के कारण हम संताप को भुलाकर पुन: धुम्रपान करने लगते हैं। परिणाम स्वरूप फेफड़ों में कार्बन जमा हो जाती है, जिसके कारण शरीर को आक्सीजन बहुत कम मिल पाती है। अत: हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।
साथ ही शरीर में निकोटिन की मात्रा बढ़ने लगती है, जो गंभीर बिमारियों का कारण बनती है।
निर्विचार के क्षणिक सुख और शरीर की शिथिलता से हुई गहरी श्वास से मिली आक्सीजन और निकोटीन की ताजगी को पाने के कारण हम धुम्रपान करते हैं।
_यानी धुम्रपान का जो सुख है, वह शरीर की शिथिलता से उत्पन्न निर्विचार की क्षणिक झलक का परिणाम है?… जबकि यही स्थिति हम बिना धुम्रपान किये गहरी श्वास लेकर भी उत्पन्न कर सकते हैं!! जब शरीर शिथिल होने से श्वास गहरी होती है, तो इसके उलट श्वास को गहरी करके भी शरीर को शिथिल किया जा सकता है? ताकि विचार शिथिल हो सके?_
यदि हम श्वास को गहरा करते हैं, तो शरीर शिथिल होने लगता है। और शरीर के शिथिल होने पर विचार भी शिथिल होने लगते हैं। यानी निर्विचार की झलक मिलने लगती है, और आक्सीजन हमारे बोध को, साक्षी को गहराने के साथ ही हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाती है। इसके लिए विपसना या अनापानसती योग ध्यान बेहतर उपाय हैं।
_तो जब भी धूम्रपान की तलब लगे, थोड़ी देर स्वयं को रोकें, दस से पंद्रह गहरी श्वास लें और छोड़ें । गहरी श्वास, जो नाभि तक पहुंचे। यह प्रक्रिया बिना निकोटिन के वही काम करेगी जो धूम्रपान करता है।_
फिर आँखें बंद कर भीतर महसूस करें, क्या अब भी धूम्रपान की जरूरत है?
यदि जरूरत है तो फिर अधूरी तरह से धुम्रपान नहीं करना है। फिर पूरी तरह से करना है। स्वाद लेकर करना है। उपस्थित होकर करना है। सिगरेट जलाएं तो हमारा सारा ध्यान सिगरेट पीने पर हो, कोई बातचीत नहीं, कोई विचार नहीं। भीतर धुंआ खींचें तो अनुभव करना है कि “अब यह धुंआ मेरे फेफड़ों और पेट में गया है।
इसमें कार्बन डाई – आक्साईड है जो मेरे फेफड़ों के छिद्रों में जमा हो जाएगा और आक्सीजन को भीतर आने से रोकेगा जिससे मुझे श्वास लेने में तकलीफ होगी। मेरे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम होगी बीमारी से लड़ने की शक्ति कम होगी।”
श्वास भीतर जाए तो हमारा पूरा ध्यान रहे कि श्वास के साथ धूंंआ भी भीतर जा रहा है। और श्वास बाहर जाए तो ध्यान रहे कि श्वास के साथ धूंंआ नाक और मुंह से बाहर जा रहा है। और हमारा शरीर धूंए का प्राणायम कर रहा है।
जहां लोग अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आक्सीजन का प्रणायाम कर रहे हैं वहीं मैं अपने इस शरीर को कार्बन का, धुंए का प्राणायम करवा रहा हूँ? यह शरीर तो मुझे उपहार में मिला है, क्या मैं इसके साथ सही कर रहा हूँ?
यदि हम अपनी धुम्रपान की यांत्रिक आदत को, जो शरीर हमारी अनुमती के बिना ही करने लगता है। शरीर की इस आदत को अपनी निगरानी में ले लेते हैं।
_इसके प्रति अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। धुम्रपान को होश पूर्वक करते हैं, तो धुम्रपान की व्यर्थता हमें दिखलाई पड़ने लगेगी और हम धुम्रपान से बाहर आने लगेंगे।_