अग्नि आलोक
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 *नाग-संस्कृति : एक अध्ययन*

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         (नागपंचमी पर विशेष)

            प्रस्तुति : आरती शर्मा 

    _श्रावण शुक्ल पंचमी नाग संस्कृति का त्यौहार है। देश के बहुत बड़े क्षेत्र में श्रावण शुक्ला पंचमी को नागपंचमी का त्यौहार मनाया जाता है, उस दिन द्वार पर पांच सर्प आकृतियाँ अंकित की जाती है, मुख मनुष्य जैसा चित्रित किया जाता है।_

        लोक में नागपंचमी के त्यौहार पर  नाग की मूर्तियों, रेखांकित-चित्रों अथवा जीवित साँपों की पूजा की जाती है। उन पर घी, दूध, दही, मधु और पुष्प चढ़ाये जाते हैं। सपेरों को वस्त्र, अन्न, आटा और नगद दान दिया जाता है। लोकजीवन में नाग पकड़ने वाली जातियों का ऐतिहासिक महत्त्व रहा है, जिन्हें सपेरा अथवा कालबेलिया कहा जाता है। आज भी नट और कालबेलिया-जाति के लोग साँप पकड़ने और नाग-पंचमी पर पुंगी या बीन बजाने का कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। लोक-चित्रों में नाग के -साथ सपेरों यानी कावड़ लिये कालबेलियों का भी रेखांकन अथवा चित्रण किया जाता है। साँप की बाँबी या बमीठा भी बनाया जाता है, जिसमें साँप का निवास होता है। लोककथाओं में बांबी में से  ही पाताल लोक जाने का मार्ग है।

      ‘सर्पपूजा’ लोक-संस्कृति का महत्वपूर्ण सूत्र तो है परंतु नाग पंचमी केवल सर्पपूजा का ही त्यौहार नहीं है, उसमें इतिहास का व्यापक अध्याय छिपा हुआ है। वास्तव में नागपंचमी नागजाति को जीवनदान प्राप्त होने का दिन है।

       नागपंचमी के दिन जनमेजय ने नाग-जाति के विरुद्ध युद्ध को रोक दिया था । इसीलिये नागपंचमी नाग जाति के लिये  जीवन का त्यौहार है ! नाग पंचमी की कहानी में एक नारी साँप की रक्षा करती है। कृतज्ञता स्वरूप नाग उसे अपनी बहिन बना लेता है। नारी उसकी झूठी सौगंध न खाने का वचन देती है और नाग उसको मणियों का हार, धन- संपत्ति, आतिथ्य तथा नागलोक में पितृगृह का स्नेह देता है। 

      नाग पंचमी के संबंध में भाँति-भाँति की किंवदंतियाँ प्रचलित हैं , कहते हैं कि कछुए के अण्डे पर कुण्डली मारकर बैठे हुए शेष नाग के सिर पर पृथ्वी रखी हुई है। मान्यता है कि शेषनाग, नागपंचमी के दिन अपने सिर की ‘गुढरी’ बदलता है। ‘गुढरी’ या ईंडुरी  वस्तुतः भारी बोझ के दबाव को सिर पर कम करने के लिए कपड़े के टुकड़े की मोटी रस्सी की शक्ल में गोल-गोल मोड़कर बनाया गया आकृति मूलक उपकरण है।

    नागपंचमी को बैगा – ओझा, तांत्रिक अपने लोकमंत्रों की साधना या अनुष्ठान करते हैं। [मडई २००३]

 *नवलदे गाथा :*

     गाँवों को सर्प दंश  से रक्षित करने के लिए श्रावण के महीने में काँसे की थाली बजाकर नवलदे-गाथा  गायी जाती है, जिसे भर्रनी, भन्नी , मैदानी नवलदे आदि नाम  दिये गये हैं । नवलदे वासुकि की कन्या है । भ्रांति के कारण पुत्री पर कुदृष्टि के दोष से वासुकि को कुष्ठ हुआ । हस्तिनापुर के अमृतकूप से जल लाने के लिये तक्खे  गया तो परीक्षित से परास्त हो गया फिर नवलदे नागिन बन कर गयी तो परीक्षित सँपेरा बन गया। नवलदे तोती बन कर आकाश में उड़ी तो परीक्षित बाज बन गया।

     नवलदे हिरनी बनी तो राजा परीक्षित शिकारी बन गया। अंत में नवलदे ने परीक्षित से प्रभावित होकर श्रावण महीने की तीज को मिलने का वचन दिया और विवाह हेतु सहमत हो गयी।  नागराज वासुकि ने  इसे अपना अपमान माना और परीक्षित से बदला लेने के लिए बीड़ा डाला , छोटे पुत्र कचमन ने उठाया परन्तु वह धोखे से परीक्षित का नमक खा गया तदुपरान्त तक्खे ने बीड़ा उठाया तब नवलदे ने कामरु देश के धनंतरी को तोते के द्वारा संदेश भेजा परन्तु तक्खे ने धनंतरी के कंधे को डस लिया और  फिर परीक्षित के प्राण हरण कर लिये।

     इसका बदला लेने के लिए परीक्षित के बेटे जनमेजय  ने नागयज्ञ किया ,नागयज्ञ में  नागों का सामूहिक विनाश किया था , त्राहि-त्राहि मच गयी ।तब तक्षक की पत्नी नवलदे के पास पति के प्राणों की भिक्षा मांगने आयी नवलदे ने बेटे को नागयज्ञ रोक देने को कहा। इस गाथा में बहिन प्रत्यक्ष रूप से नाग रक्षा का कारण बनती है। नवलदे-गाथा जनमेजय के नागयज्ञ की गाथा है, जिसे पुराणों में यज्ञगाथा  कहा गया है।

      निश्चित ही उसका रूप नवलदे- गाथा से भिन्न है,पुराणों की यज्ञ-गाथा में नवलदे नाम का कहीं अता-पता नहीं है, वहाँ परीक्षित की पत्नी इरावती है, जो परीक्षित के मातुल इन्दर की कन्या है। नवलदे गाथा  में तक्षक की बहिन का नाम नवलदे है और वही मातृकुल की रक्षा का निमित्त बनती है, जबकि यज्ञ गाथा  में तक्षक की बहिन का नाम जरत्कारु है, जो जरत्कारु मुनि को व्याही गयी थी और उसका बेटा आस्तीक था।

    यह आस्तीक ही अपने मातृकुल की रक्षा का निमित्त बनता है। यज्ञगाथा रोमहर्षण सूत के पुत्र उग्रश्रवाने वैशंपायन से सुनी थी। वहाँ गाथा  दृशद्वती के तट पर शौनक आदि ऋषियों को सुनाई गई थी। इसी के साथ यह भी सत्य है कि उग्रश्रवा द्वारा सुनायी गयी यज्ञ-गाथा  और नवलदे गाथा के बीच एक व्यापक, गहरा और स्पष्ट संबंध-सूत्र है।जनमेजय के नागयज्ञ की कथावस्तु को लेकर के काव्य लिखे गये हैं तथा मौखिक परंपरा में भिन्न-भिन्न जनपदों में इस गाथा के अनेकानेक रूप बने-संवरे हैं । नवलदे गाथा में राजा पारिथ तथा राजा वासुकि का परिचय होता है, परिचय मित्रता में बदल जाता है और दोनों चौपड़ खेलते हैं।

       यद्यपि पुराणगाथा का तक्षक वासुकि का पुत्र नहीं है पर नागों से मित्रता का अभिप्राय पुराण- गाथा  और ब्रज में प्रचलित लोकगाथा दोनों में है। वृंदावन में एक घाट है, जिसका मिथक सूत्र कालिय- नाग से जुड़ा है।  

*कालिय-नाग :*

     कृष्ण के समय में काद्रवेयनाग-कुल के  कालिय ने यमुना के घाटों पर अधिकार जमा लिया था।कालिय-नाग की कथा श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित है।गरुड़ के भय से नागों  के स्थान रमणक द्वीप   को  छोड़ कर कालियनाग   यमुना-ह्रद में आ गया था ।श्रीकृष्ण ने यमुना तट से उसके अधिकार को समाप्त करने के लिए कालियनाग से युद्ध किया तथा नाग-पत्नियों की प्रार्थना   पर उसे जीवित छोड़ दिया परन्तु यह कह दिया कि “अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियों के साथ शीघ्र ही यहाँ से समुद्र की ओर  चला जा ।कालियनाग-नाथने के अनेक लोकगीत  गाये जाते हैं। 

      कालियनाग की पत्नी और कृष्ण का संवाद लोक-गीतों में बहुत प्रसिद्ध है – कौन दिसा ते आयौ रे बालक  कहा तिहारौ नाम है ?

*लोक-कहानी :*

      भारत की लोककला  और लोककथाओं में नाग संबंधी अभिप्राय [मोटिफ़] बहुत व्यापक हैं ।भारतीय लोकधर्म में नागपूजा का प्रचलन अत्यन्त प्राचीन है।  नाग-पूजा  के  द्वारा बहिन अपने भाई की रक्षा करती है। अनेक लोककहानियों  में राजा को  नागमणि प्राप्त होती है, जो पुत्र के रूप में परिवर्तित हो जाती है। दूबरी सातें’ की कहानी में बूढ़ा सांप रानी का सुहाग बहोरता  है ।लोककथा  के  ‘सर्प मनुष्य’ अपार धन-संपत्ति के स्वामी हैं।नागपंचमी’ की कहानी में ‘सर्प-मनुष्य’ नारी को मणियों का हार  और  सोने की सींक  देता है।

     एक कहानी में बेटा साँपों के पुरखा की सेवा करके एक ऐसी अंगूठी प्राप्त कर लेता है, जो सोने चांदी के बर्तन ही नहीं ,सोने का महल तक बना देती है। जैसी करनी वैसी भरनी’ कहानी में साँप को मार कर बबूल के  नीचे खजाना प्राप्त होता है। कहानियों में नाग की अलौकिक शक्ति है ।

       मणियों के हार का साँप बन जाना, मेहमान द्वारा नागलोक में भूला हुआ दुपट्टा करील के पेड़ पर मिलना , नाग की अलौकिक शक्ति के अनेक प्रसंग हैं ।नाग द्वारा स्त्री का अपहरण , नाग और स्त्री का प्रेम , नाग-पुत्री का राजा से विवाह ,  पूर्वज नाग , इच्छा रूप धारी नाग ,नाग से संवाद  आदि अभिप्राय और प्रसंग    लोककथाओं में जगह-जगह मौजूद हैं।

       अनेक लोकगाथाओं में नागलोक के वर्णन  हैं , नाग से संघर्ष और नाग से मित्रता भी है ।नल वासुकि को पगड़ी -पलटा यार बनाता है तथा वह जब वासुकि स्मरण करता है तो वासुकि के मंदिर के चौरासी घंटे बजने लगते हैं और वह नल की सहायता हेतु नागसेना भेज देता है। 

       नाग-कथाओं के पात्र ऐसे हैं कि  उनमें सर्प और मनुष्य घुले-मिले हैं ,  उनके  पास मणि है , दंश है , विष है , बदले की भावना है , मनुष्य की भाँति वाणी है , धन-दौलत है , अमृत है , राजपाट है ,  वे  जब चाहे तब साँप से मनुष्य बन सकते हैं और जब चाहें तब  मनुष्य से साँप  बन सकते हैं । वे जब चाहें , धरती के संसार से नागलोक जा सकते हैं  और नागलोक से धरती के संसार में आ सकते हैं ।नागलोक  पाताल में है। समुद्र से रास्ता जाता है। वहाँ अमृतकुंड है। मणियाँ हैं , जिनसे प्रकाश होता है। साँप अपनी धर्म बहन को नागलोक ले जाता है।

*स्याओ माता :*

      नागों को लेकर लोक में अनेक कहानी कही जाती हैं । जैसे अहोई आठें की कहानी है – भाभी ने ननद से कहा कि – चलो मिट्टी खोद कर ले आवें ! ननद ने कहा कि आज हम उपासी हैं , आज नहीं । भौजाई बोली – मैं मिट्टी खोद दूंगी , तुम भर लेना । ननद की समझ में आ गई , खदान पर पंहुचीं।.

      भौजाई फावडा चलाने लगी , खोदते समय सांपिनी के अंडा-बच्चा फावडा लगने से मर गये । घर में मिट्टी आगई । धीरे-धीरे बात पुरानी हो गई , उसे भूल गये । आगे चल कर भौजाई के गर्भ हो , बालक का जन्म भी हो किन्तु बालक कुछ दिन बाद ही मर जांय । छह बालक मरे ।  एक डोकरी-मैया आई , उसने कहा कि – तूने “स्याओ देवी मां” का अपराध किया है।

      भौजाई ने अहोई मैया की मानता की और स्याओ मैया की ‘तुरपुती ‘ में से भाभी के सातों मृतपुत्र निकल कर “बिटौरा” में खेलने लगते हैं ।  अब यह स्याओ माता कौन है ? नाग देवी ! किस प्रकार यह कहानी हमें पुरातत्व के सूत्रों की भांति किसी प्राचीन – युग में ले जाती है ! यह संस्कृतिशास्त्रियों के अध्ययन की बात है! 

      दूबरी सातें , भाईदोज , सिड़रिया , जाहरपीर , ढोला, यार हो तौ ऐसा हो ,  नारद को घमंड दूर कर्यौ,  कौसी कौ पूत  तथा दीपावली की कहानियों में हमें  ऐसे पात्र मिल जाते हैं , जो सर्प  भी है और मनुष्य भी है -सर्प-मनुष्य ।अनन्त चतुर्दशी अनन्तदेव  का त्यौहार है।

*रतवारे :*

       मथुरा के एक  परिवार  में  रतवारे  नाम के  अनुष्ठान  की कहानी सुनी कि एक स्त्री के गर्भ से दो  बालक उत्पन्न हुए  एक   मानव-बालक दूसरा सर्प-बालक ।माँ मानव बालक को  खटोले पर सुला देती तो सर्प-बालक खटोले के नीचे पड़ा रहता ।दोनों बालक  आँगन में  खेलते।

     एक दिन माँ तो जमना  नहाने   गयी। नाग-बालक चूल्हे में बैठा था , अंधी सास ने मिट्टी का तेल डाल कर चूल्हा सुलगाया और  नाग-बालक जल गया । माँ ने दुख माना और जला हुआ सर्पबालक दूध में पटक दिया । तब से नागपूजा प्रारंभ हो गयी। 

*नागजाति  का इतिहास :*

       टोटम जातियों में सर्प- उपासक नागजाति का इतिहास  बहुत समृद्ध है।नागसभ्यता बहुत व्यापक है।रांगेय राघव ने मिस्र तक नागों के प्रसार की बात कही है।  नाग शक्तिशाली थे।नाग वरुण के सभासद थे । समुद्र-मंथन बहुत महत्वपूर्ण मिथक-शास्त्रीय घटना है और समुद्र-मंथन प्रसंग में देवता और असुर नागराज वासुकि को अमृत में से हिस्सा देने का वचन देते हैं। इसी प्रकार पृथ्वी-दोहन के प्रसंग में नागराज धृतराष्ट्र की भूमिका उल्लेखनीय है| .

    इतिहास में नागराजाओं को उत्तम स्थापत्यकार, नैयायिक तथा उत्तम रासायनिक बताया गया है।

        नागराज तक्षक ने तक्षशिला बसायी थी, और नागपुर भी नागों का स्थान था। प्राग्ज्योतिष, तक्षशिला और मथुरा नगर उन्होंने बसाये थे।भोगवती  को नागों की राजधानी बतलाया गया है , जो प्रयागराज के पास है ।तिरुवानन्तपुरम्‌त्रिवेन्द्रम्‌ का अर्थ है अनन्तनाग का नगर ।नागौर नागरकुंडल नागौद ,अहिच्छत्र  नाग-संस्कृति के केन्द्र थे।

*नागवंश :*

      कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रु  से  नागों का जन्म हुआ है। जिनमें प्रमुख आठ नाग थे- अनंत ,शेष, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म,  शंख और कुलिक। कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी विनता के पुत्र गरुड़ और वरुण थे।महाभारत’ में नागजाति के उनहत्तर वंशों का उल्लेख आया है। कालांतर में भारशिव-नाग के रूप में इतिहास में नाग ही  मिलते हैं।

      बाकी नागवंश विभिन्न जातियों के साथ वैवाहिक संबंधों की प्रगाढ़ता में समा गये।अग्रसेन महाराज को नाग कन्या ब्याही थी।  रासायनिक नागार्जुन, नागराज -पुत्रों में से था।डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- ‘कद्रू पुत्र नागों के वंश में उत्त्पन्न अर्बुद नामक ऋषि ऋग्वेद के दसवें मण्डल के चौरानवें सूक्त के रचयिता बताये गए हैं। एक और मंत्रद्रष्टा ऋषि इरावत के पुत्र जरत्कारु  थे, जिन्हें सायण ने सर्प जाति का बताया है।

      नागों के प्रसिद्ध शत्रु माने जाने वाले जनमेजय के पुरोहित सोमश्रवा थे, जिनके विषय में परिचय देते हुए उनके पिता श्रुतश्रवा ने कहा था- यह मेरा पुत्र नाग-कन्या के गर्भ से संभूत महातपस्वी स्वाध्याय-सम्पन्न और मेरे तपोवीर्य से उत्पन्न हुआ है। 

          नाग प्राचीन जाति थी, पहले आर्यों से इनका संघर्ष हुआ और बाद में इनका सहज दाम्पत्य संबंध स्थापित हो गया। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन-अनुशीलन से यह पता चलता है कि अनेक आर्य  ऋषियों और राजाओं ने नाग कन्याओं से विवाह किया था।कायस्थों में अस्थाना (अहिस्थाना) अपनी परंपराओं में नाग को मामा  मानते हैं। 

मनसा कश्यपऋषि की पुत्री  है ।मनसा देवी के पति का नाम ऋषि जरत्कारु बताया गया है और उनके पुत्र का नाम आस्तीक है ।पुराण-कथाओं के अनुसार जरत्कारु नाम की नागकन्या का विवाह ‘जरत्कारु’ नामक ब्राह्मण से हुआ था।

      नागकन्या उलूपी अर्जुन को ब्याही थी।  वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी बलराम, और सुभद्रा की माता थीं। ये यशोदा माता के यहां रहती थीं। ऐसी मान्यता है कि भगवान् श्री कृष्ण की परदादी ‘मारिषा’ व सौतेली मां रोहिणी ‘नाग’ जनजाति की थीं। माता रोहिणी ही शेषनाग के अवतार बलराम की माता थी।

      बलराम की पत्नी रेवती नागमणि के अंश से  उत्पन्न हुई थी ,इसलिए वह भी एक प्रकार से नाग-कन्या मानी गई है।जब हनुमानजी समुद्र पार कर रहे थे, तब देवताओं ने उनकी शक्ति की परख करने की इच्छा से नागमाता ‘सुरसा’ को भेजा था। जब खांडववन जलाकर अर्जुन वहाँ बसनेवाले दुर्दात तक्षकवंशी लोगों का विध्वंस कर रहे थे उस समय इंद्र ने तक्षक की सहायता की थी। 

 *नागतीर्थ और नागलोक :*

       भारत में अनेक-स्थानों पर नागतीर्थ हैं , उन जगहों पर नाग पूजा और उत्सव होते हैं , ऐसा ही एक तीर्थ चमोली गढ़वाल में भी है ।निमाड़ अंचल में खरगोन के समीप नागझिरी और नांगलवाड़ी नागों के पवित्र स्थान माने जाते हैं।सौराष्ट्र में हर गाँव के सिरे एक सर्पालिया मन्दिर रहता है।[धर्मयुग १० अगस्त १९६९] लोककथाओं में नागलोक का वर्णन आता है।महाभारत के एक प्रसंग में भीम भी नागलोक गये थे  और वहाँ उन्होंने रसायन को ग्रहण करके बल अर्जित किया था।

*नाग-तत्व की  अन्तर्भुक्ति :*

       पृथ्वी का भार उठाने वाले शेषनाग पुराणों में देव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। पुराणों में विष्णु शेष-नाग पर शयन करते हैं.

     जब कृष्ण का जन्म होता है तब रूप में रखे बालक की वर्षा से रक्षा शेषनाग ही करता है। बलराम के परमधाम-गमन की कहानी में बलराम के मुख से सर्फ निकलकर जल में चला जाता है बलराम को शेष का अवतार माना जाता है । इसी प्रकार से लक्ष्मण को शेष नाग का अवतार बतलाया जाता है.

      नाग देवता शिव के गले में विराजमान है।  गूगापीर [जाहरपीर] के साथ नागतत्व हैं।भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा में नाग के सात फण  दिखलाये जाते हैं । सिन्दूर को नागचूर्ण बताया गया है। स्पष्ट है कि आर्य-स्त्रियों ने इसे नागजाति से ग्रहण किया था। आज सिंदूर  वह हिन्दू -स्त्री के सुहाग की निशानी है।

       तांबूल की लता को नागवल्ली कहा जाता है ! एकैव वल्लिषु विराजति नागवल्ली ! स्कन्दपुराण में नागवल्ली को अमृत से उत्पन्न बतलाया गया है ! अमृत और नागवल्ली दोनों नागसंस्कृति की देन हैं !  वासुकिनाग ने अपनी बेटी के दहेज में नागवल्ली दी थी ।नागपाश नाग पाश एक महत्वपूर्ण आयुध और अभिप्राय है। 

*भारतीय लोकसंस्कृति में नाग तत्त्व की व्यापकता :*

       कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत की लोकसंस्कृति में नाग तत्त्व बहुत व्यापक है ।कश्मीर में  बालादित्य से गोनन्दवंश की समाप्ति और कर्कोटक नागवंश की स्थापना हुई।दुर्लभवर्द्धन ने इस उपलक्ष्य में शेषनाग की पूजा की।

     राजा दुर्लभवर्द्धन (प्रज्ञादित्य) नागवंशी  था । उस संदर्भ में कल्हण ने  भी लिखा है :

    कर्कोटकप्रभवः प्रभुः स मुकुटप्रत्युप्तमुक्ताकण- द्योत श्रेणिफणाङकुराङ्कित वृहद्वाहुर्महीमुदहन्। सातिप्रीतिसतोऽ फणोऋत संफुल्ल दृक्पल्लवन्यासा- वर्जक हाटलाब्ज पटलस्र धाम शोभोऽ भवत्।[113/2911]

         नागवंशी राजा दुर्लभवर्द्धन (प्रज्ञादित्य) का परिणय की पुत्री अनंगलेखा से हुआ। जामाता राज्यपद पर अभिषिक्त हुआ ।यहाँ सबसे पहले नाग-जाति ही फली फूली ।  कश्मीर की जनसंख्या में नागों  का  बाहुल्य  था। कश्मीर में नाग तीर्थ हैं । जलाशयों के साथ नाग शब्द  जुड़ा हुआ है , जैसे-अनन्तनाग।

      नागबोधि  और नागार्जुन  जैसे नाम मिलते हैं ।बुद्ध के पश्चात् जब भारतवर्ष में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ तो कश्मीर में सर्वप्रथम नाग  ही इसके अनुयायी हुए। चिनाव-नदी के किनारे वासुकिनाग का मन्दिर है , शेषनाग , वसुकनाग, तखतनाग, प्रीतमनाग, शबीरनाग , कर्कोटकनाग , कर्णनाग, इन्द्रनाग, आदि वहाँ के देवताओं के नाम हैं।

      कुछ विद्वान तो पाणिनि  को  गांधार के  नागवंश से जोड़ते हैं ।[धर्मयुग १० अगस्त १९६९]

व्रजभूमि के चारों और नागों की बस्तियाँ थीं।लोकजीवन ने  अनेक जटिल विधि-विधान, अनुष्ठान तथा विश्वासों और मिथकों को जोड़ कर अपने जिस जातीय इतिहास को अपनी मौखिक परंपरा में जीवित रखा है, उसका महत्त्व नागराजाओं, नागकन्याओं और नागदेवताओं की उन मूर्तियों से तनिक भी कम नहीं , जो  मथुरा के राजकीय संग्रहालय में सुरक्षित रखी हैं।

       नाग, यक्ष, दानव और असुर जैसी प्राचीन जातियों से गोपालक जातियों और क्षत्रिय कुलों के साथ जो संघर्ष हुआ तथा  एवं सांस्कृतिक अन्तर्भुक्ति हुई, उनकी याद इन लोक गाथाओं में छिपी हुई है ।मथुरा में नागटीला है।ब्रजमंडल के विभिन्न  स्थलों  से नाग मूर्तियां प्राप्त हुई हैं ,सौख की खुदाई में वासुकिनाग की भव्यप्रतिमा प्राप्त  हुई थी ।मथुरा में नागफणों से युक्त जो मूर्तियाँ मिली है , इन्हें बलराम की मूर्ति माना जाता है। बलराम के रूप में प्रच्छन्न  रूप में किसी समय ब्रज में  नाग पूजा का प्रचलन था ।कोटवन में शेषशायी मंदिर है।  हरियाणा में सफीदों का संबंध सर्प दमन  की कहानी से बताया जाता है ।खांडव वन में  नागजाति का निवास था ,जनमेजय ने हरियाणा के सफीदों नामक स्थान पर नागयज्ञ किया था।

      राजस्थान में गोगाजी नागों के देवता के रूप में पूजे जाते हैं । राजस्थान के देवता वीर कल्लाजी [चार हाथों वाले देवता] शेषनाग का अवतार  माने जाते  हैं ।बाताँ दी फुलवारी [ विजयदान देथा ]  में  सर्प और नाग से संबंधित  राजस्थान की शताधिक  लोककथाएं संकलित हैं।

कुमाऊँ में नाकुरी ,राऊँ में बैनी नाग,फैनी नाग ,  कालीनाग, धौली नाग,   करकोटक, पिंगलनाग, खरहरी नाग और अठगुली नाग, नागद्यौं ,, पद्मद्यौं  आदि स्थानों पर नागसंस्कृति के अवशेष हैं। बाला- भानिज, बलराम-कृष्णा, रितुरैण गोरिथना , अर्जुन वासुदंता तथा रामौलों  की गाथाओं में  नागों के उल्लेख   हैं।

       हिमाचल में  नाग-कथाएं प्रचलित रही हैं। जैसे कुल्लू में भोटती देवी और वासुकि नाग से अन्य नाग उत्पन्न हुए । एक कन्या द्वारा  अट्ठारह नाग पैदा होने की कथा  भी है । किन्नौर में भी नाग उत्पत्ति कथा है। सुंगरा के पाँडा क्षेत्र में एक महिला रहती थी जिसका विवाह यहाँ हुआ।  उसे पानी बहुत दूर से लाना पड़ता था जब यह मायके गई तो यह समस्या रो रो कर सुनाई। इस पर पिता ने उसे एक टोकरी दी   और कहा कि इसे बिना खोले बिना देखे गौशाला में रख देना।

       महिला  ने  टोकरी खोल दी ,टोकरी में से एक नाग भाग निकला। इस तरह वह रास्ते में टोकरी खोलती रही और नाग भागते रहे। जहां जहां नाग छिपे, वहां जल की कमी नहीं रही, टोकरी में छः नाग और एक नागिन थी। तीन नाग तो रास्ते में ही निकल गए। महिला ने टोकरी पशुशाला में रख दी और पूजा करने लगी। कुछ समय बाद जहां टोकरी   रखी थी, वहां से जल निकलने लगा । यह बात एक अन्य महिला को पता लग गई और उसने टोकरी खोल  दी  टोकरी से तीन नाग बाहर निकले।  एक अन्य कथा के अनुसार एक लामा ने तिब्बत से एक व्यक्ति के पास टोकरी में बहुत से नाग भेजे।

      जब वह ‘यू मिग-ग्यालसा’ पहुंचा तो उसे टोकरी खोल कर देखने की इच्छा हुई। उसने टोकरी खोल दी। टोकरी के खुलते ही नाग बाहर भाग गए। जहां जहां वे गये वहां झरना या पानी का स्रोत  फूटा। इस पानी के स्रोत को ‘यू मिग-ग्यालसा’ कहा जाता है। उनमें से एक नाग अंधा था, जो वहीं गिर गया। इस जगह जो लो निकला उसे अंधा स्रोत कहा जाता है। उरनी में नाग देवता का एक गीत गाया जाता है। [सप्तसिन्धु / अप्रैल-जून 2014]चम्बा और काँगड़ा में नाग-मन्दिर हैं।

      पंजाब  जालंधर में सोढल देवता को शेष नाग का अवतार माना जाता है।   चड्ढा कुल की एक महिला  जोहड़ में कपड़े धोने आयी थी , उनका बालक सोढ़ी यहाँ डूब गया।  उसने माँ को दर्शन दिये और सर्प देवता का रूप ग्रहण कर लिया। 

बंगाल में गंगा-दशहरा के दिन मनसा देवी की पूजा  होती है , मनसा-मंगल  गाथा गायी जाती है ।मनसा देवी की पूजा के बाद फिर नागपूजा होती है।  लोक-मान्यता  है कि  पंचमी के दिन घर के आंगन में नागफनी की शाखा पर मनसा देवी की पूजा करने से विष का भय नहीं रह जाता।ताराशंकर वन्द्योपाध्याय की नागकन्या की कहानी बंगाल में प्रचलित लोककहानी का ही रूप है , जिसमें गंगा के किनारे हिजलविल में मनसा मैया के बसेरा बाँधने का प्रसंग है ।[धर्मयुग २५ फरवरी १९७९]  बंगाल की संथाल जाति गोखुरा नाग को देवता मानती है।

प्राचीन काल में तमिलनाडु  में नागों की पूजा प्रचलित थी । वहाँ नागपूजा के   देवस्थल अभी भी हैं ,नायर नाग के वंशज माने जाते हैं।  नायरों द्वारा  नागपूजा  की जाती है। वे साँप के बिल से सुनहरी मिट्टी लाते हैं ।चेन्नई के समीप नागपट्टम है,  कहा जाता है कि  यह  प्राचीनकाल में नाग लोगों की राजधानी थी ।नागरकोइल में नाग अम्मणि का मन्दिर है, नागमलै आदि स्थान भी नागों  के प्रति आदर के  सूचक हैं।नागस्वामी, नागार्जुन, नागप्पन, नायनथिनम्, नागलिंगम्, नागनाथन्‌, नागम्मल, नागलक्ष्मी आदि नाम  नागसंस्कृति से जुड़े हुए  हैं।

        तमिलनाडु में पीपल की छाया में नाग-स्थल   होते हैं , वहाँ सांपों की बांबियों में दूध, फल-फूल चढ़ाने और कर्पूर-आरती के बाद स्त्रियां  प्रार्थना-गीत भी गाती है :

     पुट्रुत्र नागरे ,पुट्रुत्र नागरे ! भूमि इडम कोंडयरे ! मनिप्पिरंबु  पोला ! वाल अलगु नागरे !सिरु सुलकु पोला !पदमेडुक्कुम नागरे !कुंड मुतुप पोला कन्नलागु नागरे !पचारिसि पोला पल्ललाकु नागरे !कुलतार के पोनन इरु पुरामुम ओडुक्कि बाड़ विड़ वै नागरे!

अर्थात्‌  

हे नागराज, बांबियों में रहने वाले ,तुम्हारी पूछ बड़ी सुंदर है,धरती के गर्भ के निवासी मानो बेंत की लपलपाती हुई छड़ी जैसे आबदार मोती तुम्हारे पैने दांत, तुम्हारा उभरा हुआ फण जैसे हवा झलने का पंखा,तुम्हारी छोटी-छोटी  आँखें  मानो छड़े हुए चावल के दाने , जन्मजात श्रमिक देवेंद्र कुटुंबन कांधे पर कुदाल  धरे  गया है तालाब पर, या बांध पर खुदाई करने के लिए उसकी रक्षा करना, स्वामी ,उसे कोई हानि मत पहुंचाना  अपने इस विशाल फण को नीचा रखना ! और उस गरीब की राह निर्भय कीजिये  हे नागस्वामी !

इतिहासविदों का कहना है कि आंध्र लोग नाग जाति से संबंधित थे ।हैदराबाद के नाग मंदिर अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। मैसूर में दीमक के टीले पूजे जाते हैं , समझा जाता है कि यहाँ सर्प का वास होता है ।केरल में पुराने समय में सर्पपूजा की प्रथा थी, पुल्लवर नामक जाति में  सर्प-पूजा के गीत प्रचलित थे। नायर-परिवार में सर्प-नाग पूजा होती है । महाराष्ट्र के नागपुर  का उल्लेख महाभारत में है । सतारा जिले के बत्तिस शिराला गाँव  में नागमन्दिर हैं।  [ डा पुरुषोत्तम जयकृष्ण : भारत में नाग-सर्प पूजा : धर्मयुग १९ अगस्त १९६९]

       गोवा में श्री नागेश  हैं  ,गोवा के आदिवासी नाग की पूजा करते थे ।वर्तमान में अनेक जाति और जनजातियों के लोग अपने आपको नागों के वंशज कहते हैं- कइयों के गोत्र चिह्न नाग-आधारित हैं।मध्यप्रदेश के मुआसी जनजाति के लोग (कोरकू )   अपने को नाग -पूर्वजों का वंशज मानते हैं।

     असम के नाग अभी तक पहाड़ी रूप  में बचे हैं, वे भारतीय समाज में अन्तर्भुक्त नहीं हो सके ।असम में ओजापाली गाथा मनसा नागमाता की ही गाथा है । उसी का एक प्रकरण चाँद-बेहुला कथा है ।ओजापाली गायक मानते हैं कि इस नृत्य-नाट्य के प्रवर्तक बृहन्नला [ अर्जुन ] हैं।[जनसत्ता ३० जुलाई १९९५]

     उड़ीसा में कार्तिक  की चतुर्थी तिथि को  पिंगल नाग की पूजा की जाती है।छत्तीसगढ़ लोक संस्कृति में  नागतत्त्व भी  विद्यमान  है।मध्यप्रदेश के मुआसी (कोरकू:करकोटक की शाखा ) तथा नागवंशी अपने को सर्प-पूर्वजों के वंशज मानते हैं। राष्ट्रीय संग्रहालय में नागराजाओं, नागकन्याओं तथा नाग-देवताओं की मूर्तियाँ सुरक्षित है। (चेतना विकास मिशन).

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