पूरे देश में कृषि विज्ञान केंद्रों को कार्य करते हुए 50 वर्षों से अधिक का समय हो चुका है। जिला स्तर पर किसानों की सेवा में तत्पर और अपने काम की बदौलत कृषि विज्ञान केंद्र एक ऐसा नाम बन चुका है कि हर संस्था औरं विभागों की निर्भरता इन केंद्रों पर हमेशा बनी रहती है। बावजूद इसके कृषि विज्ञान केंद्र कर्मियों के वेतन व सेवा शर्तों में असंवैधानिक ढंग से कटौती कर इन्हें बंधुआ मजदूर से भी बद्तर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है।
डॉ सत्येंद्र पाल सिंह
पूरे देश में कृषि विज्ञान केंद्रों को कार्य करते हुए 50 वर्षों से अधिक का समय हो चुका है। जिला स्तर पर किसानों की सेवा में तत्पर और अपने काम की बदौलत कृषि विज्ञान केंद्र एक ऐसा नाम बन चुका है कि हर संस्था औरं विभागों की निर्भरता इन केंद्रों पर हमेशा बनी रहती है। बावजूद इसके कृषि विज्ञान केंद्र कर्मियों के वेतन व सेवा शर्तों में असंवैधानिक ढंग से कटौती कर इन्हें बंधुआ मजदूर से भी बद्तर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है।
एक पत्र के बाद कृषि विज्ञान केंद्र के कर्मियों का भविष्य अधर में लटक गया है। आखिरकार यह निर्णय किन परिस्थितियों में और क्यों लिया गया इसका जवाब देने को कोई भी संबंधित संस्था तैयार नहीं है। इस पत्र की प्राप्ति के बाद, बात अब बहुत आगे निकल चुकी है। परिणाम स्वरुप पूरे देश में कृषि विज्ञान केंद्र के कर्मी आंदोलन की राह पर हैं। केवीके कर्मियों को वेतन के साथ मिलने वाले सभी मान्य जीवन यापन के लिए जरूरी भक्ते, अवकाश नगदीकरण, ग्रेच्युटी, चिकित्सा हितलाभ सहित उनके अवकाश की उम्र में भी भारी कटौती कर दी गई है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के इस तुगलकी फरमान के बाद कृषि विज्ञान केंद्र के कर्मियों पर एक बहुत बड़ा वज्रपात हुआ है।
कृषि विज्ञान केंद्र के कर्मियों को अपना पूरा भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है। इतना ही नहीं इस आदेश के परिपालन के चलते हुए पूरे देश के कृषि विज्ञान केंद्रों में पिछले कई महीनों से वेतन तक नहीं मिला है। हालत यह हैं कि केवीके कर्मियों के सामने अपने परिवार के पालन पोषण से लेकर जीवन के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाएं जुटाना भी बहुत मुश्किल हो रहा है। अगर हालात यही बने रहे तो आने वाले कुछ महीनों में कृषि विज्ञान केंद्र के कर्मियों की हालत बद से बदतर होने से नहीं रोकी जा सकेगी।

यहाँ यह बताना बहुत जरूरी है कि आखिर कृषि विज्ञान केंद्र हैं क्या और इन्हें खोले जाने की जरूरत क्यों पड़ी। देश में कृषि एवं कृषि से संबंधित विषयों पर अनुसंधान और शिक्षा प्रदान करने वाली सर्वोच्च संस्था भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद जोकि पूसा, नई दिल्ली में स्थित है के अधीन सम्पूर्ण देश मैं विभिन्न अनुसंधान संस्थान कार्य कर रहे हैं। इन संस्थानों में होने वाले अनुसंधान को सीधे किसानों के खेत तक पहुंचाने और गाँव-किसान तक प्रचार-प्रसार के लिए वर्ष 1974 में मनमोहन सिंह मेहता की अध्यक्षता में आई रिपोर्ट के बाद पहला कृषि विज्ञान केंद्र पांडिचेरी में खोला गया था। इसके बाद से प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में लगातार कृषि विज्ञान केंद्रों को जिला स्तर पर खोले जाने का सिलसिला आजतक जारी है। वर्तमान में पूरे देश में लगभग 731 से अधिक कृषि विज्ञान केंद्र कार्य कर रहे हैं।
कृषि तकनीकी के प्रचार-प्रसार एवं किसानों के खेत पर अनुसंधान की सत्यता की जांच और शोध करने के लिए कृषि विज्ञान केंद्रों की भूमिका हमेशा से अग्रणी रही है। जब से कृषि विज्ञान केंद्रों द्वारा संपूर्ण जिले में तकनीकी के प्रचार-प्रसार का कार्य किया जा रहा है, उसके बाद से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और कृषि विश्वविद्यालय से निकलने वाले शोध को सीधे किसानों तक पहुंचापाना सर्व-सुलभ हुआ है। इसका परिणाम यह हुआ है कि नवीनतम तकनीकी को प्राप्त करने के बाद हमारा सर्वदाता किसान खाद्यान्न, फल, फूल, सब्जी, दूध, मांस, मछली, तिलहन, दलहन आदि सभी की उपलब्धता सुनिश्चित करके आज देश की 140 करोड़ से अधिक की जनसंख्या को इनकी आपूर्ति के माध्यम से किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होने दे रहा है। इतना ही नहीं अपितु सर्वदाता किसान देश की जनसंख्या की पूर्ति करने के बाद अधिक उत्पादन को निर्यात करके भारत सरकार के विदेशी मुद्रा भंडार में भी उत्तरोत्तर बढ़ोतरी कर रहा है।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी अपितु यह पूर्णता सत्य है कि पूरी दुनियां में कृषि एवं कृषि से जुड़े विषयों की वैज्ञानिक नवीनतम तकनीकी ज्ञान के प्रचार-प्रसार की इससे बड़ी कोई दूसरी संस्था अभी तक नहीं है। कृषि तकनीकी के प्रचार प्रसार और सीधे आम किसानों तक पहुंच रखने वाली दुनियां की सबसे बड़ी संस्था कृषि विज्ञान केंद्र आज अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संकट से जूझ रहे हैं। इनका आगे क्या होगा यह भविष्य के गर्त में छुपा है। लेकिन वर्तमान में केवीके कर्मियों पर आए संकट से पार पाना उनके लिए मुश्किल हो गया है।
देश में संचालित कृषि विज्ञान केंद्र अलग-अलग संगठनात्मक ढांचे के तहत: कार्य कर रहे हैं। सर्वाधिक संख्या में कृषि विज्ञान केंद्र राज्य सरकारों के अधीन संचालित कृषि विश्वविद्यालयों के तहत: आते हैं। इसके बाद काफी संख्या में कृषि विज्ञान केंद्र गैर सरकारी संगठन (एनजीओ), राज्य सरकारें एवं स्वयं आईसीएआर संचालित कर रहे हैं। कृषि विज्ञान केंद्रों को अनुदान देने एवं तकनीकी, रिपोर्टिंग आदि कार्यों पर नियंत्रण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का रहा है। जबकि इन केंद्रों पर प्रशासनिक नियंत्रण एवं नियुक्ति का अधिकार मेजबान संस्थान का है। बताया जा रहा है कि कृषि विज्ञान केंद्र अभी तक प्रोजेक्ट मोड में ही चल रहे हैं।
इसी प्रक्रिया के तहत: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं मेजबान संस्थान जैसे- कृषि विश्वविद्यालय, एनजीओ आदि के बीच में एक समझौता ज्ञापन (एम.ओ.यू.) साइन हुआ है। इस एम.ओ.यू. में क्या नियम और शर्ते तय: हुई हैं, इस बात की जानकारी इन दोनों संस्थाओं के बीच में ही हैं। नियुक्ति के लिए विश्वविद्यालयों द्वारा जारी विज्ञापनों में इस एम.ओ.यू. के नियम और शर्तों के बारे में कोई पूर्व जानकारी नहीं बताई गई। इतना ही नहीं नियोक्ता द्वारा जारी नियुक्ति पत्रों में भी इन नियम और शर्तों का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन अब विगत कुछ माहों पूर्व भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की तरफ से आए एक तथाकथित पत्र के द्वारा एम.ओ.यू. के अनुसार नियम एवं शर्तो का हवाला देकर कृषि विज्ञान केंद्र पर कार्यरत कर्मियों के मान्य भक्तों में कटौती, अवकाश नगदीकरण, ग्रेच्युटी, अवकाश ग्रहण की अवधि आदि में कटौती करने की बात की जा रही है।

अभी तक कृषि विज्ञान केंद्रों के वेतन भक्तों से लेकर अन्य मदों में शत प्रतिशत अनुदान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा दिया जा रहा था। लेकिन विगत वित्तीय वर्ष में कुछ कटौतियों के बाद से इस वित्तीय वर्ष 2024-25 में इनको पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का कहना है कि वह सिर्फ बेसिक, डीए और आवास भत्ता देने के लिए ही बाध्य हैं। बाकी अन्य भत्ते एनपीएस, अवकाश नगदीकरण, ग्रेच्युटी, चिकित्सा भत्ता आदि देने की जवाबदारी मेजबान संस्थान की है। जबकि गौरतलब तथ्य यह है कि देशभर में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा संचालित स्वयं के कृषि विज्ञान केंद्रों में कार्य करने वाले कर्मियों को संपूर्ण वेतन भक्तों सहित एनपीएस एवं अवकाश बाद के सभी लाभ दिए जा रहे हैं। इतना ही नहीं उन्हें अवकाश प्राप्त करने की अवधि भी आईसीएआर के अनुसार ही दी जा रही है।
इस रस्साकसी के चलते सबसे ज्यादा परेशानी देश में कृषि विश्वविद्यालय के अधीन संचालित कृषि विज्ञान केंद्रों में पैदा हो रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा इन सभी मदों में बजट काट दिया गया है। विश्वविद्यालयों द्वारा कोई अतिरिक्त बजट इस हेतु आवंटित नहीं किया जा रहा है। इस कारण कृषि विज्ञान केंद्रों पर वेतन, भक्तों के मद में काफी कम बजट मिल पा रहा है। इसके चलते केवीके कर्मियों को सुचारू वेतन के लाले पड़ रहे हैं। कई राज्यों में कृषि विज्ञान केंद्र के कर्मियों की यह लड़ाई माननीय न्यायालय तक भी पहुंच गई है। माननीय जबलपुर हाईकोर्ट द्वारा इस पर मध्य-प्रदेश के दोनों कृषि विश्वविद्यालयों के केवीके कर्मियों के पक्ष में स्टे ऑर्डर भी दिया जा चुका है। बावजूद इसके संबंधित संस्थाओं द्वारा इस पर कोई भी संज्ञान नहीं लिया गया है। अब देखना होगा कि पूरे देश में कृषि विज्ञान केंद्रों में पैदा हुई इस समस्या का अंत आखिर क्या होगा।
विदित हो कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा जारी पत्रों क्रमशः 26 मई 1997 और 2 सितंबर 1997 के माध्यम से अचानक कृषि विज्ञान केंद्रों के वित्तीय प्रावधानों में बदलाव करके उनको मिलने वाली ग्रांट को मैचिंग शेयर में बदल दिया गया था। जिसमें संपूर्ण ग्रांट की आधी राशि आईसीएआर तथा आधी राशि मेजबान संस्थान को देनी थी। लेकिन जब इस मुद्दे ने राष्ट्रीय स्तर पर तूल पकड़ा और सरकार पर उनके सहयोगियों द्वारा ही दबाव बनाया गया और गैर सरकारी संगठनों के कृषि विज्ञान केंद्रों द्वारा माननीय सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर कर दी गई। परिणाम स्वरूप योजना आयोग द्वारा इस पर संज्ञान लेते हुए मार्च 1998 से पुनः देश के सभी कृषि विज्ञान केंद्रों को मिलने वाली वित्तीय सहायता शत प्रतिशत कर दी गई थी।
(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिंड) मध्य प्रदेश में प्रधान वैज्ञानिक और प्रमुख हैं।)
Add comment