अग्नि आलोक
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संवेदनाओं का समाजशास्त्र और गहराते जख्म!

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वीरेंदर नानावटी

महानगरीय #सभ्यता के जबड़ों में फंसी,

घात-प्रतिघात के भीषण द्वंद में उलझी,
भौतिक लिप्साओं की तृष्णा में अटकी,
संवेदना अब गुमसुम, गूंगी और पूरे गांव की गलियों से ग़ायब सी है!
ये आंगन,ये चौबारे, ये नीम-गुलमोहर भी स्तब्ध हैं तुम्हारी पराजित प्राणग्रंथियों को देखकर!

सचमुच #सवेदनाएं ,
अब ना तो सरस्वती की तरह वंदनीय हैं
और ना अब लक्ष्मी की तरह कुल की धरोहर है
वो तो द्रोपदी की तरह चीरहरण होने को विवश हैं
या पद्मावती की तरह आग में जलने को अभिशप्त

संवेदनाओं की गठरी ग़ायब है ! वे रिश्ते नदारद हैं जो कहते थे कि संग तुझपे गिरे और ज़ख़्म आए मुझे ! वो यार अब ढ़ूंढ़े बामुश्किल मिलते हैं जो दोस्त के दर्द को घोटकर पी जाते थे और उसकी दुश्वारियों के अलाव में ख़ुद सुलगते फिरते थे!

वे मोहल्ले ग़ुम हो गए,
वो बस्तियां सुम हो गईं
जो शाम होते ही चौराहों पर चहकती थी, घरों से निकलकर खुले आसमां के तले पसर जाती थी! जिसकी सुबह मस्ती भरी और शामें सुहागिन होती थी! एक अटूट रिश्ता था होली के रंगों का, दीवाली के चराग़ों का और शादी से लेकर तो उत्सवों तक की साझेदारी का! रंग अब बेरंग हो चले हैं और चरागों में अब वो चमक कहां हैं?
सब बुझे-बुझे से हैं!

पिता की वसीयतों ने सिर्फ़ खेत-खलिहानों, भवन और भूमियों का ही बंटवारा नहीं किया, मन भी बांट दिए! दीवारें दरो में ही नहीं, दिलों में भी खींच गई! संयुक्त परिवार तो दूर की कौड़ी है,एकल परिवार भी खंडित होते जा रहे हैं!
बच्चे विदेशों और महानगरों की चकाचौंध में लापता हैं और घर के बूढ़े वृध्दाश्रम के पतों की तलाश में! ऐसे किस्सों और हिस्सों का हिसाब बढ़ता ही जा रहा है!
ज़िन्दगी अपने सुरों पर थिरकती रही
जज़्बात सुलगते रहे!
वक्त बीतता रहा …
देश में….
कुर्सियां जाती रही… सत्ताएं इतराती रही…लाभ-शुभ और लेन-देन के गणित बदलते रहे…चेहरों की नक़ाबें उधड़ती रही..पीतल पर चढ़े सोने के मुलम्मे उतरते गए… रिश्तों में बहीखाते घुस गए…
वफ़ादारियाँ रक्कासाएं हो गई ..पुरखों की वसीयतों ने परिवारों के प्यार और पुण्य का श्राद्ध कर दिया.. साथ जीने का जो जज़्बा जहाँ था..
वहाँ साजिशें मुक़्कमल हो गई….रक्त के रिश्ते घात-प्रतिघात में बदल गये..
#ज़िन्दगी का पहिया.. वक़्त की धुरी पर घूमता रहा….
लेकिन……????
एक चीज़ कभी नहीं बदली, मेरे मुठ्ठी भर पुराने दोस्त I मेरी दोस्तियाँ ना तो कभी बूढ़ी हुईं, ना रिटायर
आज भी जब मैं अपने दोस्तों के साथ होता हूँ, लगता है अभी तो मैं जवान हूँ और मुझे अभी बहुत से साल ज़िंदा रहना चाहिए I

कहते हैं कि यंत्रणाओं और मंत्रणाओं का सबसे बड़ा साझेदार आपका यार और मित्र होता है!
लेकिन अब ऐसे दोस्त भी कमतर मिलते हैं!
पुराने दोस्तों वाला जज़्बा अब कहां रह गया?
आप नसीब वाले हैं, यदि ऐसे मित्र आपकी धरोहर में हैं!
ये बात सही है कि रिश्तों की गर्मजोशी दोस्तों से ही मिलती है!
वर्ना वसीयत और हैसियत की अंधी सुरंगों में संवेदनाओं के सम्बन्ध फंसे हुए हैं! आपकी ख़ैरियत जानने वाले अब मुठ्ठी भर हैं!
…. संवेदनाओं की गठरी लेकर आगे फिर कभी!

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