कुमार कृष्णन
सोहराय संथालों का प्रमुख त्योहार है। यह पर्व प्रकृति और पशुओं के बीच प्रेम,श्रद्धा और समानता का प्रतीक है। संताल समाज में भाई-बहन के प्रेम, सामाजिक सौहार्द और भाईचारे की भावना से ओत-प्रोत है यह त्योहार। सोहराय परब संताल समाज की सांस्कृतिक पहचान है।जनजातीय समाज इस पर्व को उत्सव की तरह मनाता है। आदिवासी समाज की संस्कृति काफी रोचक है। शांत चित्त स्वभाव के लिए जाना जाने वाला आदिवासी समुदाय मूलतः प्रकृति पूजक है। सोहराय का अर्थ है बधाई या शुभकामना होता है।

यह त्योहार भाई-बहन के प्रेम और प्रकृति के पूजा से जुड़ा मामला है। प्रकृति और मानव सृष्टि के श्रृंगार से जुड़े इस उत्सव की खास बात होती है अपने कुटुंब जनों के स्वागत व सान्निध्य के बीच परस्पर सौहार्द का परिवेश बनाना। संताल समाज में लड़की को कु†ाडी मिरू उपनाम से पुकारा जाता है, जिसका अर्थ है सुंदर सुगा पक्षी। वहीं, शादी ब्याह में उसे दाऊड़ा बोंगा कहा जाता है, फिर वापस घर लाने के बाद उसेओड़ाक् बोंगा-घिरनी एरा अर्थात गृह देवी-देवता के समान सम्मान दिया जाता है। इन्ही वजहों से यह त्योहार नारी सम्मान, खासकर अपनी बहनों के स्वागत-सत्कार से जुड़े अगाध प्रेम के अद्वितीय प्रतीक पर्व के रूप में मनाया जाता है। सोहराय के अवसर पर प्रत्येक संथाल परिवार अपने संबंधियों को आमंत्रित करते हैं।
खास करके यह पर्व भाई बहन के पवित्र रिश्तों को समेटता है। छह दिन तक चलने वाले इस पर्व में संथाल समाज के लोग न केवल अपने देवी देवताओं एवं इष्ट देव की पूजा करते हैं। अपितु गाय, भैंस, बैल, हल एवं अन्य औजारों की भी पूजा करते हैं। प्रत्येक दिन का है अलग-अलग महत्व है। जनजातीय समाज में इस पर्व का बेहद महत्व है। जनजातीय समाज इस पर्व को उत्सव की तरह मनाता है। आदिवासी समाज की संस्कृति काफी रोचक है। शांत चित्त स्वभाव के लिए जाना जाने वाला आदिवासी समुदाय मूलतः प्रकृति पूजक है। आदिवासियों में सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा भी काफी रोचक है। इसकी कथा सृष्टि की उपत्ति से जुड़ी हुई है।
आदिवासी समाज में प्रचलित कथा के अनुसार, जब मंचपुरी अर्थात् मृत्यु लोक में मानवों की उत्पत्ति होने लगी, तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस होने लगी। उस काल खंड में पशुओं का सृजन स्वर्ग लोक में होता था। मानव जाति की इस मांग पर मरांगबुरु अर्थात् आदिवासियों के सबसे प्रभावशाली देवता। (यहां बताना यह जरूरी है कि शेष भारतीय समाज मरांगबुरू को शिव के रूप में देखता है, लेकिन जन जातीय समाज में मरांगबुरू का स्थान शिव से भी उपर है।) मरांगबुरू के कहने पर भी ये दिव्य जानवर मंचपुरी आने से मना कर देते हैं, तब मरांगबुरू उन्हें कहते हैं कि मंचपुरी में मानव युगोंं-युगोंं तक तुम्हारी पूजा करेगा, तब वे दिव्य, स्वर्ग वाले जानवर मंचपुरी आने के लिए राजी होकर धरती पर आते हैं और उनके आगमन से ही इस त्योहार का प्रचलन प्रारंभ होता है। जाहिर है उसी गाय-बैल की पूजा के साथ सोहराय पर्व की शुरुआत हुई है।
पर्व में गाय-बैल की पूजा आदिवासी समाज काफी उत्साह से करते हैं। मुख्य रूप से यह पर्व छह दिनों तक मनाया जाता है, जिसकी धूम पूरे क्षेत्र में देखने को मिलती है। पर्व के पहले दिन गढ़ पूजा पर चावल गुंडी के कई खंड का निर्माण कर पहला खंड में एक अंडा रखा जाता है। गाय-बैलों को इकट्ठा कर छोड़ा जाता है, जो गाय या बैल अंडे को फोड़ता या सूूंघता है और उसकी भगवती के नाम पर पहली पूजा की जाती है तथा उन्हें भाग्यवान माना जाता है। मांदर की थाप पर नृत्य होता है। इसी दिन से बैल और गायों के सिंग पर प्रतिदिन तेल लगाया जाता है। दूसरे दिन गोहाल पूजा पर मांझी थान में युवकों द्वारा लठ खेल का प्रदर्शन किया जाता है। रात्रि को गोहाल में पशुधन के नाम पर पूजा की जाती है। खानपान के बाद फिर नृत्य गीत का दौर चलता है।
तीसरे दिन खुंटैव पूजा पर प्रत्येक घर के द्वार पर बैलों को बांधकर पीठा पकवान का माला पहनाया जाता है और ढोल ढाक बजाते हुए पीठा को छीनने का खेल होता है। चौथे दिन जाली पूजा पर घर-घर में चंदा उठाकर प्रधान को दिया जाता है और सोहराय गीतों पर नृत्य करने की परंपरा है। पांचवें दिन हांकु काटकम मनाया जाता है। इस दिन आदिवासी लोग मछली ककड़ी पकड़ते है। छठे दिन आदिवासी झूंड में शिकार के लिए निकलते है। शिकार में प्राप्त खरगोश, तीतर आदि जन्तुओं को मांझीथान में इकट्ठा कर घर घर प्रसादी के रुप में बांटा जाता है। संक्रांति के दिन को बेझा तुय कहा जाता है। इस दिन गांव के बाहर नायकी अर्थात पुजारी सहित अन्य लोग ऐराडम पेंड़ को गाड़कर तीर चलाते है। सोहराय में गीत नृत्य का अपना एक विशेष महत्व है।
अप्रतिम है झारखंड की प्रकृति और संस्कृति। यहां की आदिम जनजाति में विद्यमान है संगीत की अनगिणत स्वर लहरियां। संगीत के बिना झारखंड निष्प्राण है। सेन गे सुसुन, काजि के दुरङ, दूरी के दुमङ अर्थात चलना ही नृत्य है, बोलना ही संगीत। पुरानी कहावत है मुंडारी और सदानी की। उरांव भी यही कहते हैं – एकना दिम तोकना। कत्था दिम डंडी। स्वर सभी एक है, संस्कृति भी एक सी है। नृत्य में थकावट नहीं, तरावट आती है। तभी तो झारखंडी अखरा में रात-रात भर नृत्य चलता है।
झारखंड के प्राय: समस्त नृत्य-संगीत सामूहिक हैं। झारखंड में कलाकार और दर्शक के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं हैं। वस्तुत: दर्शक अपनी पारी की प्रतीक्षा में रहता है अथवा कलाकारों को तनिक विश्राम देने की ताक में। वास्तव में दर्शक और कलाकार एक ही होते हैं झारखंड के नृत्य-अखरा में। सभी नृत्यों के लय, ताल एवं राग भी है। इसी से यहां की नृत्य मुद्राओं की शैली के अनुरूप उनके रागों के नाम है, यहीं इनकी नैसर्गिकता और समरूपता है। मांदर झारखंड का सर्वाधिक लोकप्रिय मधुर वाद्य यंत्र। इसका प्रथम निर्माता खोल बनाने वाला कुम्हार होता है। दूसरा मोची जो, चमड़ा, छाने बांधने के लिए बना देता है।
तीसरा है रंगरेज, जो उसे रंग-रोगन कर सुंदर रूप देता है। चौथा है गोड़ाइत महली, नायक (घासी) जो उसको छाने, लेप चढ़ाने या अंतिम रूप देने का काम करता है। तब जाकर मांदर अखरा की शान बनता है। इसके बोल रसिकों को अखरा का दीवाना बना देता है। जैसे वीन की आवाज से नाग खिंचे चले जाते हैं। अपने-अपने घर के चौखट पर पूजा करने के उपरांत मांदर, नगाड़ा, टमक, घंटी आदि के साथ पुरुषों द्वारा ही घर-घर जाकर नृत्य किया जाता है। अखरा में भी वृत्तााकार सामूहिक रूप से एक दूसरे से जुड़ कर स्त्री-पुरुष नृत्य करते हैं। पूरी दुनिया आज जहां पर्यावरण, पशु धन जैसे कई संकटों से जूझ रहा है, उसका सिर्फ एक ही समाधान है, आप जब सोहराय में जाएंगे तो दिखेगा कि ऐसा ही सोहराय पर्व के आयोजन के माध्यम से हम पूरी दुनिया को यह संदेश दे सकते हैं कि अगर दुनिया को बचाना है तो इसी तरह प्रकृति से जुड़कर हमें त्योहार मनाने की आवश्यकता है।
यह सिर्फ त्योहार ही नहीं जीवन का दर्शन भी है। इस संसार में सब को जीने और रहने का अधिकार है। सोहराय हमें बताता है कि केवल हमें ही जीने का नहीं, पेड़-पौधे और प्रकृति के साथ ही साथ पशु, जो हमारे जीवन का अभिन्न अंग है उसे भी जीने का अधिकार है। हम लोग सिर्फ मनुष्य के बारे में चिंता करते हैं, यह पर्व हमें जीव जीवश्य जीवनम का संदेश देता है। जनजाति संस्कृति और चिंतन पेड़-पौधे से लेकर जीव-जंतु तक की चिता करता है। दुनिया को बचाना है तो निश्चित तौर पर सभी समाज तक इस तरह का संदेश पहुंचना होगा।