अग्नि आलोक
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कथित भारतीय न्याय पर लिखी कुछ कविताएं 

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न्याय !
__

तुम पहले से ही अंधे थे !
अब अंधे और बहरे हो
पहले तर्क पर टिके थे
अब
कमीशन पर ठहरे हो !
न्याय !
जिस दिन तुम
राजनीति के साथ
उसके बिस्तर पर सो जाओगे
सच मानो न्याय !
उस दिन तुम
गूंगे भी हो जाओगे।

          ________

                     सुनवाई  
                    ________

बंद कमरे है
लगता है
कुछ हिसाब
बाकी है।
एक तरफ
सच का दबाव है
दूसरी तरफ
कुछ लुभाव
बाकी है।
निर्णय
तो कब का
चुका है
पर
धाराएँ
क्या क्या लगेंगी
बस यह चुनाव
बाकी है।

                       तारनहार
                        _______

पाताल लोक की
गहराई में
उतर गया है
न्याय का
बामन
भगवान
पापी -पुजारियों का
तारन हार बन कर

         जाग जाओ माई लार्ड !
        _____________

माई लार्ड !
तुम जितना ऊपर पहुँच सकते थे
पहुँच चुके हो।
शुरू हो चुका है तुम्हारा अधोपतन
और कितने रसातल नापोगे ?
किस किस को बनाओगे नायक
अपनी आलोचना से।
एक न एक दिन
लोगों के मन से
निकल ही जायेगा सारा भय
‘कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट’ का,
कारावास की सजा का।
विदूषकों तक के लिए
बन कर रह जाओगे
हास्य के पात्र।
कोई भी तुम्हें
न्यायाधीश कह कर
अपनी जुबान खोटी नहीं करेगा
और इतिहास में लिखा जायेगा
तुम्हारे नाम के सामने
“मालिक का कुत्ता”
दुःख इस बात का
कि यह तुम्हारी अवमानना नहीं
अपमान
उस पद का है
जिस पर तुम बैठे हो !

           आधुनिक न्याय !
              _________

स्वयंभू न्यायाधीश
कभी नहीं होता बंदर।
घटती हुई रोटियों की संख्या
उसे बनाती है न्यायाधीश।
उसे बनाती है न्यायाधीश
फैलती जाती भूख,
आपाधापी में व्यस्त बिल्लियाँ।
बिल्लियाँ
जो काल के अनुकूल
कर बैठती है
अपने साथियों पर अविश्वास
दूसरों की रोटी पर दावा
और थमा बैठती है
अपनी रोटी बंदर के हाथ।
तब जाकर कर
कर पाता है बंदर न्याय।
तोलते तोलते तराजू के पलढ़े में
बाँट लेता है रोटी
अपने ही हिस्से में।
क्या हुआ यदि
हाथ मलती
मुँह ताकती रह जाती हैं बिल्लियाँ।
स्वयंभू न्यायाधीश
कहाँ होता है बंदर ?

                   अवमानना
                   _________

मी लार्ड !
क्या हुआ उस मुकदमें का
जो चलाया जा रहा था
एक विदूषक के खिलाफ
अदालत की अवमानना के लिए?
क्या रख दिया गया है उसे
ठण्डे बस्ते में
इस सोच के साथ
कि यदि फिर कभी खतरा हुआ
तो निकाल लाया जायेगा।
क्या न्यायालय सोचता है
कि सर पर लटकी हुई
तलवार का भय
सजा से ज्यादा कारगर है?
क्या न्यायालय भी अब
अवसर वादी हो गया है,?

नहीं….. नहीं
मी लार्ड
मुझे कदाचित ऐसा नहीं कहना चाहिए था
न्यायालय को
अवसरवादी कहना भी तो
उसकी अवमानना ही है।

        साभार - सुप्रसिद्ध दार्शनिक कवि रामकिशोर मेहता, अहमदाबाद, गुजरात, संपर्क - 919408230881, ईमेल - ramkishoremehta9@gmail.com

         संकलन  -निर्मल कुमार शर्मा, 'गौरैया एवम् पर्यावरण संरक्षण ' , गाजियाबाद, उप्र,संपर्क - 9910629632,ईमेल 
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