पुष्पा गुप्ता
पठन-पाठन, पढ़ाई :
अध्ययन मूलतः सीखना है, ज्ञानार्जन है। इसके शब्दकोशीय अर्थों में पठन-पाठन, पढ़ाई है। पर जिन अर्थों में इसका प्रयोग किया जाता है उससे पर्यवेक्षण, देखना, सोच-विचार, जाँच जैसे आशय ही प्रकट होते हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है निरख-परख, चिन्तन-मनन या पठन-पाठन के ज़रिये ज्ञानार्जन करने को ही अध्ययन कहा जाता है।
आमतौर पर सरकारी खबरों में ‘केन्द्रीय अध्ययन दल आया’ जैसे शीर्षक छपते हैं। इसका अर्थ यह नहीं होता कि केन्द्र से विद्यार्थी आए हैं जो कक्षाओं में जाकर पढ़ाई करेंगे। स्वाभाविक है कि यहाँ किसी विषय को जाँचने, समझने के लिए आए विशेषज्ञों के समूह की बात होती है।
अयन, राह, रीति :
व्युत्पत्तिक नज़रिये से भी देखें तो अध्ययन में ‘अयन’ बसा हुआ है। अयन यानी राह-रीति। अयन बहुआयामी अर्थवत्ता वाला शब्द है। इसमें गति, काल, स्थान, आश्रय, चाल, पद्धति, दायरा जैसे आशय भी हैं।
‘अधि’ उपसर्ग में ऊपर, ऊँचा, सम्पूर्ण के साथ-साथ किसी सीमा से आगे, सीमा से ऊपर, सीमा के अलावा जैसे भाव समाए हैं। इस तरह अध्ययन का अर्थ किसी विषय के बारे में समग्रता से जानकारी लेना है। उस विषय की परिधि में आने वाली सारी बातें, उस विषय से सम्बन्धित सारी बातें।
यानी दायरे में और दायरे से बाहर वह सब कुछ जो उस सम्बन्ध में जानना चाहिए, यह सब अध्ययन में आता है। यह भी स्पष्ट है कि कूपमण्डूक का ज्ञान अध्ययन नहीं है। क्योंकि उसकी सीमा अत्यन्त संकुचित होती है। इस तरह अध्ययन का रिश्ता सिर्फ़ किताब, कॉपी, विद्यार्थी, पाठ्यक्रम से नहीं है।
वह सब जो अनूभूत है और वह भी जिसे पठन-पाठन से समझा जा रहा है, अध्ययन के दायरे मे आता है।
भवन, भुनन, संसार :
अब बात अनुभव की। जिस तरह अध्ययन अपने आप में ज्ञानार्जन प्रक्रिया है उसी तरह अनुभव भी ज्ञानार्जन प्रक्रिया है। अनुभव बना है अनु और ‘भव’ के मेल से। ‘भव’ में ‘होना’ का आशय है। वह सब जो हमारे चारों ओर घट रहा है, उससे आशय है। क्या ‘हो’ रहा है का अर्थ है क्या घट रहा है।
भवन-भुवन यानी जहाँ कुछ न कुछ हो रहा है। पृथ्वी को भू कहते हैं क्योंकि यहाँ कुछ न कुछ होता है। हिन्दी में ‘होना’ बेहद आम सहायक क्रिया है। कुछ घटित होने के अर्थ में होना, बोली और लिखत-पढ़त की भाषा में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाला शब्द। भाषाविद्, ‘होना’ की रिश्तेदारी ‘भवन्’ से मानते हैं जो भवत् का ही एक रूप है।
संस्कृत ‘भव’ में होने का आशय है। इसीलिए भवन या भुवन वह जगह है जहाँ कुछ न कुछ विकसित हो रहा होता है। यह संसार की गति है। भुवन यानी संसार।
‘हूँ’, ‘है’, ‘हो’ :
हिन्दी के वर्तमानकालिक वाक्यों के अन्त में ‘हूँ’, ‘है’, ‘हो’ जैसी सहायक क्रियाएँ अवश्य लगती हैं। ये सभी ‘हो’ या ‘होना’ से सम्बद्ध हैं। ‘भव’ से ही पूरवी बोलियों का ‘भया / भवा’ शब्द बना है। हिन्दी में इसका रूप ‘हुआ’ बनता है। ‘भयो’ का मालवी रूपान्तर ‘हुओ’ / होयो’ है।
डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक भवन का प्राकृत रूप होण था जिसका हिन्दी रूप होना है। समझा जा सकता है कि भवन > हअण > होण > होन > होना, कुछ इस क्रम में ‘होना’ का विकास समझ आता है। इस तरह ‘अनुभव’ अपने आप में प्रत्यक्ष बोध है। जो कुछ आँखें देख रही है, वह द्रष्टा का अनुभव है। ऐसा ज्ञान जो स्मृतिजन्य नही है।
अध्ययन के जितने भी कोशेतर अर्थ हैं, वही सब अनुभव से भी व्यक्त होते हैं यानी ज्ञान, बोध, समझ, उपयोग, बुद्धि, परीक्षण, निरख, परिणाम, प्रभाव, असर, निष्कर्ष, उपलब्धि, संज्ञान, अनुभूति, अभ्यास आदि।
समग्रता में देखना, अनुभव करना :
अनुभव भी ज्ञान है और अध्ययन भी ज्ञान है। अनुभव और अध्ययन साथ साथ भी चलते हैं। कई बार अध्ययन की अगली सीढ़ी अनुभव होती है। कई बार अनुभव के बाद अध्ययन का क्रम शुरू होता है। सो, ये सब बातें इन दोनों में निहित है। जानना जो पढ़ने से होता है और देखने से भी।
पर्यवेक्षण यानी समग्रता में देखना, अनुभव करना। इसमें दस्तावेज़ों का अध्ययन करने से लेकर हालात को समझने तक सब बातें शामिल हैं। अनुभव और अध्ययन एक दूसरे के पर्यायी शब्द नहीं हैं पर “मेरा अनुभव यह कहता है” अथवा “मेरा अध्ययन ये है कि” दोनों का आशय एक ही है।
इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि “ऐसा मैं अपने सीमित अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ” के स्थान पर अगर “ऐसा मैं अपने सीमित अध्ययन के आधार पर कह रहा हूँ” कहा जाए तो भी बात एक ही है।
*और अन्त में :*
जिस भू पर रहते हुए हम अपने आसपास की हर शै को गतिमान देखते हैं, भला यह सम्भव है कि हम कुछ भी जान-समझ न पाएँ ?
जानकारी का सीमित या अधिक होना सापेक्ष बात है, पर इस संसार में-भुवन में होना ही ही अनुभवी होना है।