अग्नि आलोक
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पार्टनर से कुछ बातें

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         बबिता यादव 

पहले कई बार मैं सोचती थी
कि तुम भी वहाँ हो सकते थे
जहाँ मैं होती थी उन दिनों
पुराने ठहरे हुए पानी, धुंँधले आईनों,
दीमक लगे काठ के पुराने संदूकों,
पुरानी तस्वीरों के बीच,
उपेक्षित पोखर के टूटे परित्यक्त घाटों पर,
पुरानी घंटियों की दूरस्थ आवाज़ों के साथ।
या शायद घाटी के बचे हुए जंगलों के बीच
बहती एक छोटी सी नदी के किनारे
साथ-साथ चट्टान पर बैठे हो सकते थे हमदोनों
पानी में पैर डाले हुए।
*

वह समय भी कुछ यादगार रूमानी हो सकता था
शायद
जो पुरानी डायरी का एक फटा हुआ पन्ना
बनकर रह गया।
पर तुम तो एक राही थे जैसे मैंने बचपन में
सारंगी बजाते घर के सामने से गुज़रते
जोगियों को देखा था।
अब तो उस रात की ठीक-ठीक याद भी नहीं
जब मैं भागकर जोगियों के ठिकाने जैसे
किसी सराय तक पहुँची थी जहाँ सबकुछ
आश्चर्यजनक था मेरे लिए क्यों कि
ज़िन्दगी के बारे में मैंने कभी उसतरह से
सोचा नहीं था।
*

और फिर उसतरह से जीते हुए और
उस ज़िन्दगी को और बेहतर ढंग से जीने के
रास्तों की खोज, प्रयोग और आविष्कार करते हुए
हमने अपने समय के इतिहास का एक लम्बा
सफ़र तय किया।
ऐसे लम्हे हमें कम ही मिले
न भूल पाने वाली चंद यादों के साथ
जो सिर्फ़ हमदोनों के रहे
लेकिन अगर वे हमें अगर इफ़रात में मिलते
तो शायद हम एक-दूसरे से और इन्तज़ार की
अहमियत से परिचित न हो पाते।
*

ठहरे हुए शहरों में हम रंगों और गंधों की
पहचान खोते जा रहे थे
और जीवन के मृत आख्यानों के बीच भटक रहे थे
जब एक रात तुमने मुझे झिंझोड़ते हुए जगाया
और कहा, “उठो, हमें सारा सच जीवित लोगों के
मुखों से सुनना होगा और उन गुप्त दस्तावेज़ों को
ढूंँढ़ना होगा जिनमें मनुष्यता के विरुद्ध
सारी साज़िशों के साक्ष्य न मिटने वाली
स्याही से दर्ज किये गये हैं।”
व्यग्र-विकल स्वर में कहा तुमने कि हमें तेज़ी से
कदम बढ़ाकर उन थके हुए साथियों तक
पहुँचना होगा जो अपने कंधों से पूर्वजों का
बोझ उतारना चाहते हैं
और बस ज़रूरी स्मृतियाँ सहेज कर रखना चाहते हैं।
*

हमने साथ गुज़ारे हों
कुछ तसल्लीबख़्श दिन,
ऐसा बहुत कम हुआ और मुझे न कोई
शिक़ायत रही न कोई अफ़सोस।
जितना हम साथ रहे,
उत्कटता से रहे
खदकते मतभेदों के बीच,
और तरल संवादों के साथ
और बीच बीच में कुछ बतियाने
कभी माओ, कभी लेनिन कभी मार्क्स
आ जाते थे और उनके जाने के बाद
बहुत दिनों तक हम उनकी बातें
समझने की कोशिश करते रहते थे।
याद है तुम्हें,
एक बार हमने अपनी एक कुटिया के बाहर ही
ब्रेष्ट के ड्राइवर की मदद की थी
उसकी टैक्सी के टायर बदलने में
और सड़क किनारे की पुलिया पर बैठे हुए
ब्रेष्ट घाटी की एक जलती हुई बस्ती को
देख रहे थे एकटक, अपने में खोये हुए से।
*

कवियों के विचार खोखले थे
और साहित्य के सिद्धान्तकारों के पास
कुछ गणितीय सूत्र थे और कुछ अटकलें।
उनके हृदय पिछली सराय में धूप में सूखकर
छुहारा हो रहे थे बड़ियों-मुँगौड़ियों और
बच्चों के पोतड़ों के साथ।
हम नासमझियों के घुटन भरे पुरातन
अंँधेरे से आये ज़रूर थे लेकिन तब
गलियों में चलते हुए
जूते ख़ून भरे कीचड़ से लथपथ नहीं होते थे
और रात को आसमान में तारे चमकते हुए
दीखते थे खुली छतों से।
बड़ी अम्मा की कहानियांँ अभी ख़त्म नहीं हुई थीं
और बरसात में मछलियांँ पानी भरे खेतों से
निकलकर कच्ची सड़कों पर आ जाती थीं।
तब शहरी घरों के गमलों में लगे फूलों पर
उत्तरआधुनिक कीड़ों के प्रकोप का
नामोनिशान नहीं था।
*

तो ऐसे समय में, फिर भी हमने प्यार का
एक नया कीर्तिमान स्थापित किया
और न झुकने और न रुकने की कसमें भी खायीं।
ताउम्र हमने राहें तलाशती
खोजी गद्यात्मक कविताएँ लिखीं
और चिपचिपी रागात्मकता में लिथड़ने से
और विचारहीनता के बीहड़ों से बचे
तो बर्बरों द्वारा विजित प्रदेशों में आ पहुंँचे।
अब ऐसे समय में हमें जीना है
बूढ़ी होती हड्डियों की बची-खुची ताक़त को
बटोरते हुए,
तमाम बुराइयों के बावजूद बहुतेरी उम्मीदों के साथ।
और अब ज़िन्दगी भी कहांँ कोई रियायत बरतने वाली है
हमें ढलती उम्र की अंधी खोह में धकेलने में।
उसकी अलार्म घड़ी तो हमेशा सेट रहती है।
*

प्यार तो हमारा हमेशा छापामार योद्धाओं या
जेल में बंद कैदियों जैसा रहा
अतृप्तियों के सुख और सौन्दर्य से भरा हुआ
लेकिन निजी तौर पर कुछ अफ़सोस और कुछ
पश्चातापों से भरा हुआ।
और जीवितों से उधार लिए शब्दों से
इतिहास के कठघरे में जब हम मृतकों की गवाही होगी
तो हम एकदम साफ़ शब्दों में बोलेंगे
एकदम दो-टूक,
धोई हुई क़मीज़ों पर ख़ून के धुंँधले पड़े
निशानात की शिनाख़्त कर लेंगे ।
शायद तब हमारी आने वाली पीढ़ियांँ
हमें उतना नहीं कोसेंगी
और ख़ास-ख़ास वक़्तों पर कभी -कभी
हमें कुछ लगाव और सरोकार के साथ
याद कर लिया करेंगी
हमारी कमज़ोरियों और ढिलाइयों पर सोचते हुए
कि हम भी क्या और कितना कुछ करते
इतिहास का भारी बोझ कंधे पर लादे हुए
और बेहद बीहड़ों और अंँधेरे रास्ते से सफ़र तय करते हुए।
जो बचे रहेंगे आगे की लड़ाइयांँ लड़ने के लिए,
बिगड़ी हुई चीज़ों को ठीक करने के लिए
और हमारे छोड़े गये कामों पूरा करने के लिए,
फ़ुरसत के वक़्तों में वे भी तो कभी
सोचेंगे आत्मीयतापूर्ण तदनुभूति के साथ,
कि ताउम्र हम एक दूसरे से जितना प्यार करते रहे
वह बस इसलिए कि अपने लोगों से भी
प्यार करना हमने कभी छोड़ा नहीं।
और न ही आने वाले दिनों के बारे में
अपनी उम्मीदें।

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