अग्नि आलोक
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अज़ीब होती हैं कुछ औरतें 

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        बबिता यादव 

कुछ औरतें अजीब होतीं हैं
रात भर पूरा सोती नहीं
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं
दरवाजों की कड़ियाँ
बच्चों की चादर
पति का मन.

जब जागती हैं सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं
हवा की तरह घूमतीं घर बाहर
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती
आशायें.

पुराने पुराने अजीब से गाने
गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर ही
सब के करीब होतीं हैं
औरतें सच में अजीब होतीं हैं.

कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर
देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं बीच में ही छोड़ कर
ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे पेन्सिल किताब
बचपन में खोई गुडिया
जवानी में खोए पलाश.

मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी
छिपन छिपाइ के ठिकाने
वो छोटी बहन
छिप के कहीं रोती
सहेलियों से लिए दिये चुकाए हिसाब
खोलती बंद करती खिड़कियाँ ।
क्या कर रही हो ? सो गयीं क्या?
खाती रहतीं कभी बच्चों की कभी पति की झिङकियाँ
न शौक से जीती न ठीक से मरती
न कभी पूरा अपने मन की कहती.

थोड़ी तो कभी उसके अपने समझें उसकी बात पूरी ज़िंदगी बस इसी कश्मकश में जीतीं
अपनी आँखे बंद होने तक माँगती भगवान से दुआ
कि हो न कोई तकलीफ़ भगवन मेरा परिवार रहे ख़ुशहाल सदा और दुनियाँ को कह देतीं अलविदा
औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.
(चेतना विकास मिशन)

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