वेदव्यास
साहित्य को आज भी ‘सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् के पर्याय रूप में ही देखा जाता है। समय का सत्य, समाज का शिव और प्रकृति का सुन्दर ही इसकी विचारधारा है। हजारों वर्ष से शब्दों की यह महाभारत युद्ध और शांति के बीच जारी है। विकास के नए सोपान इसे ऊर्जा देते हैं और मनुष्य के नए संधान इसे प्रासंगिक बनाते हैं।
यह साहित्य मनुष्य के द्वारा ही मनुष्य के लिए समाज और समय के बीच खड़ा रहता है। राजा और प्रजा के बीच, प्रकृति और मनुष्य के साथ, सूर्य और धूप के मध्य तथा जीवन और जगत के आमने-सामने यह साहित्य ही होता है। मनुष्य क्या सोचता है, मनुष्य क्यों सोचता है और मनुष्य किसके लिए सोचता है जैसी सभी जिज्ञासाएं इस साहित्य में ही निवास करती हैं। नाद ब्रह्म की तरह यह शब्द ब्रह्म मनुष्य के चेतन-अवचेतन का पर्याय है। वेद और पुराण की ऋचाएं, वाल्मीकि और महर्षी वेदव्यास की वाणी इसी का अनहदनाद है। इसका उद्गम मनुष्य का हृदय है और इसकी यात्रा समय का ओर-छोर है तो प्रतिफलन स्मृतियों का भाष्य है।
साहित्य का यह प्रवाह मनुष्य के बिना कुछ भी नहीं है। यह संविधानों का संविधान है और जिजीविषा का महाघमासान है। इसे कभी कालिदास गाते हैं तो कभी कबीरदास सुनाते हैं। इसे दर्शन में ढूंढा जाता है तो कभी अरविन्द और विवेकानन्द के इतिहास में पढ़ा जाता है। सूरदास और तुलसीदास भी साहित्य में मनुष्य के समय की नील जल सोई परछाइयों की तरह हैं। साहित्य वाणी को अर्थ देता है, ज्ञान को सामर्थ्य प्रदान करता है और अंधकार में प्रकाश का परिचालक बन जाता है।
यह साहित्य केवल शब्दों की जोड़नी भी नहीं है और न ही इसे समय का प्रलाप कहा जा सकता है। यह तो मनुष्य के मन और विचार का, विवेक और विस्तार का, आधार और व्यवहार का ऐसा नीर-क्षीर विवेचन है जिसे दादी कहती है और पोते सुनते हैं। साहित्य की अवधारणा मनुष्य मन की स्वायत्ता में जीवित है तथा इसे आचार्यों और प्राचार्यों की व्याख्याओं से बांधा नहीं जा सकता। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम साहित्य की सीमाएं तय नहीं कर सकते और मीडिया भी इसके प्रभाव को धूमिल नहीं बना सकता। परिवर्तन के सभी प्रभाव और दबाव साहित्य में भी ज्वार भाटा की तरह बोलते हैं तथा साहित्य इसीलिए मनुष्य और समय के बीच चेतन और अवचेतन तक मुखरित रहता है।
यह साहित्य क्या है और क्यों है तथा इसकी सार्थकता कौन तय करता है। इस तरह के प्रश्नों से कुछ बाहर निकलकर देखें तो हमें यह भी मालूम होगा कि साहित्य का उद्देश्य और अवधारणाएं भी निरन्तर बदलती रहती हैं। साहित्य कोई जड़ पदार्थ नहीं है तथा साहित्य में भी अंतिम सत्य का प्रादुर्भाव मनुष्य के मन की दिशाओं में लगातार बदलता रहता है। यह साहित्य मनुष्य के जीवन संसार का ही एक विस्तार है। छंद, सवैया, गीत, नवगीत, कविता, नई कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण, आत्म-कथा, निबंध, रिपोर्ताज, नाटक, विधाएं इस साहित्य के सृजनघाट है जहां विचार और कल्पना विवेक और यथार्थ के कपड़े उतार कर नहाती हैं।
शेक्सपीयर, मेक्सिम गोर्की, रवीन्द्रनाथ टैगोर, पाब्लोनरुदा, नाजिम हिकमत, प्रेमचंद और फैज अहमद फैज जैसे सैकड़ों शब्द पुरुष इस साहित्य के सहयात्री हैं। परम्परा, सभ्यता और संस्कृति की सभी त्रिवेणियां इस संगम में समाहित है। यह साहित्य इतना निर्मम है और इतना निर्मल भी है कि कहीं यह महाभारत बन जाता है तो कहीं यह रामायण की चौपाइयों में बिखर जाता है। कहीं यह उपमा बनकर याद आता है तो कहीं यह अतिशयोक्ति के भेष में मिलता है। यह रस सिद्धांत भी है तो यह विचार का व्यावहारिक रूपांतरण भी है।
इस साहित्य को लेकर समय और इतिहास की चिंताएं भी हमने देखी हैं तो सुकरात, अरस्तु, गैलीलियो और आइंस्टीन के सत्य से साक्षात्कार भी हमें विरासत में मिले हैं। मनुष्य के मनोविज्ञान और पराज्ञान को जानने और उसका समानीकरण तय करने का एकमात्र पैमाना साहित्य ही है। यह साहित्य दुनिया की हजारों भाषाओं और बोलियों में प्रवास करता है, और यह साहित्य ही शब्द के रथ पर बैठाकर स्मृति के गर्भ में दुबक जाता है। यह जरूरी नहीं है कि लिखा जाय वही साहित्य है और यह भी सम्पूर्ण नहीं है कि बोला जाय वही साहित्य है, बल्कि साहित्य तो काल की तरह ऐसा अजर-अमर तत्व है जो चिंतन और मीमांसा के बीच और अद्धैत के सानिध्य में, भ्रम और यथार्थ के पास-पड़ौस में तथा इच्छा और आकांक्षाओं के सहवर्ती के रूप में हमें रोज जागते हुए भी और सोते समय सपनों में भी मिलता रहता है। साहित्य इसीलिए समय और समाज की चौखट है तथा ज्ञान और विज्ञान ही इसकी खिड़कियां हैं। इसके गर्भगृह में कोई राम और रहीम नहीं रहता वरन् एकमात्र मनुष्य रहता है। यह मनुष्य न जो पूरब-पश्चिम में बंटा हुआ है और न ही इसे योग और भोग की तरह विभाजित किया जा सकता है। आदिम कबीलाई जीवन से लेकर अब मंगलग्रह की यात्रा तक के इसके सभी सरोकार केवल साहित्य, संगीत और कला के मेहंदी मांडणों में ही सुने जा सकते हैं। यह साहित्य ही बताता है कि सत्य का किस तरह लोकगमन हुआ और शब्द ने किस तरह बहेलिया बनकर क्रोंच पक्षी का वध किया। हम अक्सर कभी होमर, दांते, मार्क्स और एंजिल्स में साहित्य को ढूंढते हैं तो कभी शब्दों की चिताओं पर लग रहे मेलों में खोजते हैं जो शब्द की सत्यवेदी पर कुर्बान हो गए। राजपाट छोड़कर जो भर्तृहरि बन गए, घर-संसार छोड़कर सिद्धार्थ हो गए या फिर महावीर की तरह दिगम्बर में साकार हो गए। ईसा की तरह सूली पर लटक गए, महात्मा गांधी की तरह गोली खाकर है राम! में समा गए, मार्टिन लूथर किंग की तरह काले-गोरों का गीत बन गए अथवा मीरां बाई की तरह जहर का प्याला पीकर भी प्रेम की दीवानगी पर चलते रहे। इस सबके पीछे से कहीं मनुष्य की स्वतंत्रता, सह अस्तित्व और विकास की बहस ही सुनाई पड़ रही थी क्योंकि सत्य तो वही है जो देखा, सुना और समझा नहीं गया है साहित्य वही है जो अब तक खोजा नहीं गया है, मनुष्य वही है जो अब तक रचा नहीं गया है। शब्द वही है जो अब तक वर्णमाला से बाहर है तथा वाणी और स्मृति वही है जिसे हम आज तक किसी सुरताल में बांध नहीं पाए हैं।
साहित्य की यह सरस्वती सभी देशों में बहती है। कोई भी पूंजी और सामाजिक व्यवस्था इसके टुकड़े नहीं कर सकती। कोई भी शासन और तंत्र इसका गला नहीं घोट सकता। यह एक ऐसी आवाज है जो जितनी अधिक बंद की जाती है उतनी ही अधिक गूंजती है। लोक से लोकोत्तर बन जाती है और जंगल में मंगल की तरह, छवियों में आयाम की तरह, चेतना में उमर खैयाम की तरह, खेतों में बसंती परिधान की तरह, सत्ता और व्यवस्था के रू-ब-रू सम्मान की तरह, संवेदनाओं के उफान की तरह, सैनिक के प्रयाण की तरह, ऋषिपुत्रों के अभियान की तरह, सरोकार के धनुषबाण की तरह, नीति और सार के आख्यान की तरह, प्रकृति और मनुष्य के बीच सुगंध की तरह रम जाती है। साहित्य इसीलिए भक्ति, शक्ति और प्रेम की त्रिवेणी है, योग से भोग तक का सफर है तो मनुष्य और समाज की बदलती सभ्यताओं और संस्कृतियों का गवाक्ष है। यह साहित्य ही है जहां चेतना को काम, क्रोध, मद, लोभ और माया के दैत्य नहीं सताते और यह शब्द पुत्र ही है जो कालातीत और कालजयी रहता है।
हमारे देश में साहित्य और संस्कृति को एक दूसरे का परक पूरक माना गया है। दर्शन और चिंतन परम्परा का अनवरत यज्ञ कहा गया है तो चन्द्रमा की सोलह कलाओं की तरह मनुष्य मन की लीलाओं का वृन्दावन भी समझा गया है। वीर गाथाकाल से लेकर आधुनिक काल तक जो कुछ लिखा-सुना गया केवल वही साहित्य नहीं है अपितु शब्द और साहित्य तो मनुष्य की प्रागैतिहासिक संरचना को समझने का भी पहला सूत्र है।
यह साहित्य संत, सती और सूरमाओं का ही खेल मैदान नहीं है, यह साहित्य किसी महाजनी सभ्यता का प्रस्थान भी नहीं है, यह साहित्य किसी आदि विद्रोही का जयगान भी नहीं है और यह साहित्य नौसिखिये शब्द जीवियों का मचान भी नहीं है। यह चिंतन और मनन का एक ऐसा गंभीर लोकाचरण है जिसकी इतिश्री एक मनुष्य के लिए नहीं होकर सदैव लोकमंगल में ही समाहित, संयोजित और विकसित होती है।
साहित्य में जहां मनुष्य और उसके समय का दिग्दर्शन होता है, वहां साहित्य में मन, वचन और कर्म की परछाईयों का भी दूध का दूध और पानी का पानी किया जाता है। समय के प्रभाव से साहित्य के स्वर भी बदलते हैं तथा सरोकार भी नया रूप और अवधारणाएं ग्रहण करते हैं, लेकिन साहित्य को समझना, देखना और परिभाषित करना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इस साहित्य में सामाजिक न्याय तो है पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है। यहां स्वायत्तता तो है लेकिन सामाजिक सरोकार भी छोड़े नहीं जा सकते। यह एक साहित्य ही है जिसमें मनुष्य विरोधी और जनकल्याण के खिलाफ चलने या चलाने की पूरी रोक है। हम साहित्य की इसी चौखट से मनुष्य, समाज और समय की सभी छोटी-बड़ी दस्तक को सुनेंगे। कुछ उनकी तो कुछ अपनी कहेंगे। कभी उनकी करवट को तो कभी अपनी करवट से बात करेंगे। हमारी चिंता बाजार की नहीं होगी अपितु एक शाश्वत मानवीय कल्याण और सृजन की होगी। सभी वाद-विवाद जारी रहेंगे और प्रतियोगिताएं भी चलेंगी लेकिन समय का सत्य ही हमारा निर्णायक मंडल रहेगा। अगली बार से यह ‘उल्लेखनीय‘ देश-देशांतर में ही नहीं अपितु वन-प्रान्तर में भी जाएगा। गद्य-पद्य के सभी उदाहरण लाएगा तथा साहित्य के समस्त सृजनात्मक सरोकारों की जाजम भी बिछाएगा। तेरी मेरी इस कहानी को पढ़ते रहिए, क्योंकि सृजन अभी और भी है।
प्रस्तुति-हिम्मत सेठ,उदयपुर