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*संसद का विशेष सत्र या संसदीय व्यवस्था से सनकी खिलवाड़*

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*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*

अमेरिका पर आतंकवादी हमले के बदले के नाम पर, 2002 के आखिरी और 2003 के शुरू के महीनों में अमेरिका ने जब इराक के खिलाफ हमला किया था, उस समय उसकी ‘शॉक एंड ऑ’ यानी हैरतजदा और खौफजदा करने बल्कि हैरत से खौफजदा कर देने की सामरिक रणनीति की बहुत चर्चा थी। इस रणनीति के पीछे मूल विचार यह था कि हमला इतना अप्रत्याशित रूप से भीषण हो कि उसका निशाना बनने वाला किसी तरह का मुकाबला कर ही नहीं पाए। अमेरिका की उक्त सैन्य रणनीति को इराक में या उसके बाद के भी उसके प्रयोगों में क्या और किस हद तक सफलता मिली, इस पर तो बहस हो सकती है।

लेकिन, कम से कम इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी को, हैरतजदा और खौफजदा करने की इस रणनीति का सहारा लेना काफी पसंद है। इसकी ताजातरीन मिसाल, 18 से 22 सितंबर तक, संसद का पांच दिन का विशेष सत्र बुलाने का मोदी सरकार का पूरी तरह से हैरान करने वाला फैसला है। इस फैसले की घोषणा भी संसदीय कार्यमंत्री द्वारा पहले ट्विटर रहे और अब एक्स बच चुके सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से की गई। हां! इसे संयोग मानना मुश्किल है कि यह घोषणा ठीक उसी दिन की गई, जिस दिन मुंबई में विपक्षी मोर्चे, इंडिया की दो दिनी बैठक शुरू होनी थी! हालांकि, यह मानना भी आसान नहीं है कि संसद के पांच दिन के विशेष अधिवेशन का फैसला, सिर्फ विपक्षी बैठक की खबरों की ओर से ध्यान हटाने के लिए किया जा सकता है।

बहरहाल, संसद के विशेष सत्र के इस फैसले में हैरान करने वाले तत्व का पूरा ख्याल रखा गया है। वास्तव में सहज ही इस फैसले ने प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इससे पहले लिए गए ऐसे ही एकदम अप्रत्याशित दो और फैसलों की याद दिला दी है — 2016 का पांच सौ और हजार रुपए के नोटों की नोटबंदी का फैसला और 2020 के मार्च-अप्रैल का चालीस दिन के पूर्ण देशव्यापी लॉकडाउन का फैसला। इन दोनों फैसलों से देश भर में आम लोगों को जिस तरह की असह्य तकलीफें झेलनी पड़ी थीं, उन्हें लोग आसानी से भूल नहीं सकते हैं। बेशक, इन तकलीफों को साक्ष्य बनाकर, सत्ताधारी पार्टी द्वारा अपने सुप्रीमो की ‘बड़े फैसले लेने वाले’ नेता की छवि बनाने की कोशिशों को भी देश ने कुछ हैरत से और ज्यादा अविश्वास से देखा।

लेकिन, अंधाधुंध इस तरह के फरमान जारी करना, नेता की निर्णायकता का कम और उसकी मनमानी का ही साक्ष्य ज्यादा था, जो जनतंत्र और पारदर्शिता के घोर अभाव की बीमारी का, सहज पहचान वाला लक्षण है। आगे चलकर, तीनों विवादित कृषि कानूनों के रूप में इसी बीमारी का एक और लक्षण सामने आया, लेकिन किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन ने उस मामले में सत्ता में बैठे सुप्रीमो के फरमान को न सिर्फ नामंजूर कर दिया, बल्कि उसे अपना फरमान वापस लेने पर भी मजबूर कर दिया। लेकिन, इसके बाद भी मोदी राज ने लोगों को हैरतजदा और खौफजदा करने वाले फैसलों का सहारा लेने की अपनी रणनीति को छोड़ा नहीं है। संसद का रहस्यमय तरीके से बुलाया जा रहा विशेष सत्र इसी का सबूत है।

इस पूरे मामले में इस हद तक रहस्य बनाए रखा गया है कि लगता नहीं है कि विशेष सत्र की घोषणा करते हुए, खुद संसदीय कार्यमंत्री तक को इसका पता था कि इस सत्र में होगा क्या? कहने की जरूरत नहीं है कि इससे पहले कभी संसद का विशेष सत्र इस तरह रहस्यमय अंदाज में नहीं बुलाया गया। इसके उलट, संसद के सभी सत्र सामान्यत: सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों से चर्चा के रास्ते पर चलते हुए, आयोजित किए जाते हैं। आखिरकार, संसद की सार्थकता ही जनता के प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता के सामने, शासन के काम-काज की जवाबदेही सुनिश्चित करने में है। और इस जवाबदेही के लिए, संसद का सारा काम-काज ज्यादा-से-ज्यादा पारदर्शी तरीके से होना सुनिश्चित किया जाना जरूरी है।

यह पारदर्शिता सिर्फ संसद की कार्रवाई संसदीय टीवी पर दिखाने में नहीं है, बल्कि जनता के प्रतिनिधियों के साथ अधिकतम-संभव जानकारियां साझाकर, उनके बीच ज्यादा-से-ज्यादा जानकारीपूर्ण चर्चा से, शासन के अनुशासित होने में है। यहां विशेष सत्र की तारीखों की घोषणा के कई दिनों बाद तक और जाहिर है कि बार-बार विपक्ष द्वारा ही नहीं, बल्कि मीडिया द्वारा भी पूछे जाने के बावजूद, इसका कोई इशारा तक नहीं है कि विशेष सत्र में होगा क्या? संसदीय व्यवस्था के साथ सनकी खिलवाड़ का इमर्जेंसी के बाद इससे भद्दा दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा।

लेकिन, अमेरिकी सामराजियों से उधार ली गई रणनीति, सिर्फ हैरतजदा करने की नहीं है। वह तो हैरतजदा करने के जरिए, खौफजदा करने की रणनीति है। संयोग ही नहीं है कि संसद के विशेष सत्र की तारीखों की घोषणा के साथ ही, इसकी खबरें तेज हो गईं कि मोदी सरकार, ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर कुछ करने जा रही है। यह जैसे इसकी अटकलों का बाजार गर्म करने के लिए इशारा था कि शायद विशेष सत्र, इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए बुलाया जा रहा है! मोदी सरकार ने जिस तरह सिर्फ अपने संख्याबल के सहारे, वास्तव में बहुुमत की तानाशाही के बल पर, धारा-370 के खत्म किए जाने तथा जम्मू-कश्मीर के तोड़े जाने, संशोधित नागरिकता कानून से लेकर, तीन कृषि कानूनों समेत, अनेक विधेयकों को बिना बहस के ही या समुचित बहस के बिना ही संसद पर थोपा है, उसे देखते हुए प्रस्तावित विशेष सत्र को लेकर इस तरह की आशंकाएं पैदा होना अस्वाभाविक नहीं था। और सत्ताधारी दल तथा सरकार ने अपनी ओर से इन आशंकाओं को हवा देने का ही काम किया है।

भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था की परंपराओं से एक और गंभीर विचलन में, अचानक यह खबर आई कि सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर, सेवानिवृत्त राष्ट्रपति, कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित करने जा रही है। यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली ही बार है, जब किसी पूर्व-राष्ट्रपति को, सरकार की ओर से इस तरह किसी काम की आधिकारिक रूप से जिम्मेदारी सौंपी गई हो। आखिरकार, राष्ट्रपति के रूप में पूरे शासन के ही प्रमुख रहे व्यक्ति से, उस शासन के किसी एक अंग के सामने रिपोर्ट करने या उसे रिपोर्ट देने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? लेकिन, बात इतने तक ही सीमित नहीं रही।

पूर्व-राष्ट्रपति का नाम आने के बाद, कमेटी की विचार शर्तों और उसके दूसरे सदस्यों के नाम आने में भी करीब बहत्तर घंटे लग गए। लेकिन, इन बहत्तर घंटों में इसकी अटकलें अगर कुछ कम भी हुई थीं कि मोदी सरकार प्रस्तावित विशेष सत्र में ‘एक चुनाव’ की ओर कोई कदम बढ़ा सकती है, तो कमेटी के अन्य सदस्यों के नामों की घोषणा ने, दोबारा प्रस्तावित सत्र को लेकर आशंकाओं को तेज कर दिया। इस कमेटी में, खासतौर पर संविधान, कानून तथा संसदीय मामलों के विशेषज्ञों के तौर पर ऐसे लोगों के शामिल किए जाने से, जो पहले ही ‘एक देश, एक चुनाव’ के पक्ष में सार्वजनिक रूप से दलीलें रख चुके हैं, एक प्रकार से पहले ही यह सुनिश्चित किया जा चुका है कि कमेटी क्या रिपोर्ट देगी।

हैरानी की बात नहीं है कि कमेटी में रखे गए एकलौते विपक्षी नेता, लोकसभा में कांग्रेस के दल के नेता, अधीर रंजन चौधुरी ने खुद को यह कहते हुए इस कमेटी से अलग कर लिया कि कमेटी के गठन में ही, उसका निष्कर्ष पहले ही तय किया जा चुका है। उन्होंने राज्यसभा में विपक्ष के नेता को इस कमेटी में शामिल नहीं किए जाने का मुद्दा भी उठाया। जाहिर है कि इस कमेटी के गठन में इसका कोई प्रयास ही नहीं था कि इसमें संसद में प्रतिनिधित्व-प्राप्त प्रमुख राजनैतिक दृष्टियों का प्रतिनिधित्व हो। वास्तव में संसदीय समिति में और विधि आयोग में इस मुद्दे पर लंबी चर्चा के बाद भी मोदी सरकार, उसी तरह से पूरी तरह से मनमाफिक सिफारिश हासिल नहीं कर पाई थी, जिस तरह समान नागरिक संहिता के मामले में नहीं कर पाई थी। इसीलिए, अब पूर्व-राष्ट्रपति की अध्यक्षता में एक ऐसी कमेटी गठित की गई है, जो इस मामले में मोदी सरकार के कदम आगे बढ़ाने का रास्ता बनाएगी।

बेशक, संसद के प्रस्तावित विशेष सत्र में क्या सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ के मामले में कोई कदम उठाएगी या इस विशेष सत्र में क्या होगा, यह अब भी अटकलों के ही दायरे में है। लेकिन, इस सत्र में चाहे इस मामले में कुछ हो न हो, पर इतना तय है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ के अपने नारे को अमल में उतारने की ओर, मोदी सरकार ने एक बड़ा कदम बढ़ा दिया है। यह दूसरी बात है कि यह अपने सार में ही न सिर्फ सरासर अलोकतांत्रिक तथा संघीय व्यवस्थाविरोधी-संविधानविरोधी है, यह पूरी तरह से अव्यावहारिक भी है, जिसके लिए पांच संविधान संशोधनों की और देश के आधे से ज्यादा राज्यों के अनुमोदन की जरूरत होगी। यह फिलहाल इसे लागू करना लगभग नामुमकिन बना देता है।

इसके बावजूद, मोदी सरकार अगर इसके लिए इतनी उतावली हो रही है, तो यह मोदी राज की चौतरफा विफलताओं के बीच, विपक्ष की बढ़ती एकता और उसके एकजुट प्रहारों से, मौजूदा निजाम और उसके संचालक, संघ-परिवार की घबराहट को ही दिखाता है। बदहवासी में वे अपने जाने-पहचाने पुराने मुद्दों पर हाथ मार रहे हैं, शायद कोई मुद्दा काम कर जाए। डूबते को तिनका भी सहारा लगता है। यह दूसरी बात है कि डूबने से तिनकों के सहारे अब तक कोई बचा नहीं है।

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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